लसोढ़ा के बिना भी कोई जिन्‍दगी है ?

बिटिया खबर

: परमानेंट तो हमारी-आपकी सांसें भी नहीं हैं हुजूरेआली : पीढि़यों तक संस्‍कार के लिए जीवन में लसोढ़ा-पन खोजिए : प्रेमचंद की बूढ़ी काकी या फिर मंत्र के उस ओझा की तरह डॉ चड्ढा का मासूम बच्‍चा बचाने वाला लसोढ़ा कहीं और न मिलेगा : अशक्‍त, असहाय, मजलूम, महकूम लोगों को जिन्‍दगी से कोई खास शिकायतें नहीं होती :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मेरी तो पूरी जिन्‍दगी लसोढा जैसी बीत गयी है। जैसी ही नहीं, बल्कि बाकायदा लसोढ़ा ही है। कभी किसी के लिए लसोढ़ा बन गया तो कभी खुद के लिए लसोढ़ा में तब्‍दील हो गया। वह न होता, तो मैं ही आज न होता। सच बात तो यह है कि लसोढ़ा ही जिन्‍दगी है, और यही लसोढ़ा-पन हर शख्‍स के जीवन में अनिवार्य तत्‍व होता है। दिक्‍कत सिर्फ यह होती है कि इंसान अपनी दिक्‍कत, अपनी सफलता, अपनी सुव‍िधा अपनी शिकायतों में लसोढ़ा को न तो ठीक से पहचान पाता है, और न उसका ठीक से इस्‍तेमाल ही कर पाता है। जिन्‍दगी की सांस, प्‍यास, भोजन या सुविधाओं की तरह है लसोढा-पन, लेकिन हम उसे लगातार नकारता ही रहते हैं।
अब देखिये न, कि अमीरों और सुविधा-सम्‍पन्‍न लोगों के लिए तो जिन्‍दगी का हर पल सुविधाजनक बन जाता है। वजह है लसोढ़ापन। नींद में डिस्‍टर्बेंस है, तो आपके ड्राइंग रूम के कोने पर ही तो है आपका आलीशान बार, जहां शीरॉज से लेकर जॉनी लीवर और टकीला जैसी बोतलें हैं। काजू से लेकर स्‍वादिष्‍ट नमक के साथ टकीला मार दीजिए, टन्न से। भूख लग रही हो तो अपनी हैसियत के हिसाब से हुकुम कीजिए। स्‍विगी है, फागी है, दागी है, जोमैटो है या टमौटो है। औकात अगर चांद पर चमचमा रही है तो शोफर से कह कर बीएमडब्‍ल्‍यू निकालिये और ताज या रमाडा में चरने निकल जाइये। हरारत या कोई हल्‍की-फुल्‍की पुर्र-पों की शिकायत भी है तो फोन कीजिए। डॉक्‍टर से लेकर एयर-एम्‍बुलेंस भी आपके चौखटे तक पलों में पहुंच जाएंगी। इतना ही नहीं, शोक-मइयत का मामला हो तो उसकी भी व्‍यवस्‍था चंद क्षणों में हो जाएगी। हुकुम हुआ कि नहीं, झक्‍कास-बुर्राक बेहतरीन चिकनकारी वाला सफेद कुर्ता-पायजामा या धोती की व्‍यवस्‍था हो जाएगी। रोने-धोने के बीच आंसू या नाक छिनकने के लिए भी कड़क रुमाल भी है। काम तो आपके आर्डर के हिसाब से ही होगा न। है कि नहीं ? कफन से लेकर दफन तक, जल से लेकर अग्निदान, तिल-पिंड से लेकर कपाल-क्रिया करने वाला बाकायदा सजाधजा बांस लेकर आपके आत्‍मीय के कपाल को छिन्‍न-भिन्‍न कर देगा। अस्थि बटोरने से लेकर उसे आपकी इच्‍छानुसार संगम, काशी, गया या हरिद्वार ही नहीं, बल्कि केदारनाथ के गांधी सरोवर से लेकर सारी नदियों और समुंदर पर उड़ा कर उसे मथ डालने की भी व्‍यवस्‍था होगी। आप लिस्‍ट तो फाइनल कीजिए।
हां, अशक्‍त, असहाय, मजलूम, महकूम लोगों को भी जिन्‍दगी से कोई खास शिकायतें नहीं होती हैं। वजह यह कि उन्‍हें अपनी दिक्‍कतों और अंजाम का अंजाम बहुत अच्‍छी तरह पता होता है। उनका लसोढ़ा-पन का यह देसी अंदाज है। इसीलिए वे अपनी जिन्‍दगी और उसके अंजाम को अपने ठेंगे पर रखते हैं। गरीब लोग अपना समाधान वे प्रेमचंद की बूढ़ी काकी की तरह खोज लेते हैं या फिर मंत्र के उस ओझा की तरह डॉ चड्ढा के मासूम बच्‍चे से सांप डंसे जहर को निकालने के बाद वह वह डॉ चड्ढा के सत्‍कार के बजाय अपने फेंटे में रखी तमाखू को चिलम भर कर दम भरते हुए चुपचाप निकल जाता है।
गरीब के पास खोने के लिए बहुत ज्‍यादा नहीं होता है। गांव में खुरपी से गर्भनाल काट कर गींठा मार दिया जाता है, उस पर कड़वा तेल का छापा। पैर में कील गड़ गयी, तो कड़वा तेल से गरम दाग देंगे। मामला चौव्‍वन। मर भी गया तो कोई यह रिकार्ड दर्ज करने नहीं जाता कि मौत की वजह क्‍या थी। अरे मर गया तो मर गया। सिवाय खुशी के। आप गौर से देखिये। छप्‍पर डालते वक्‍त पूरा गांव अपना सारा कामधाम छोड़ कर मौके पर पहुंचता है और जोर लगाओ हइस्‍सा जैसी अद्भुत जीवनी-शक्ति से सराबोर स्‍वरों वाले नाद का समवेत उच्‍चारण करता है। बीड़ी और कच्‍ची शराब भी आपस में मिल-बांट कर मौज मनाते हैं। अमीर मरा तो आप सबसे पहले अपना टाइम-टेबुल चेक करेंगे, लेकिन तालाब में फिसले शख्‍स को बचाने के लिए पूरा गांव एकजुट हो जाता है। हर व्‍यक्ति, हर समाज और हर हैसियत के लिए अलग-अलग होता है लसोढ़ा-पन।
बहरहाल, आइये आपको सुनाते हैं आज लसोढ़ा की कहानी। दरअसल, लसोढ़ा-पन और लसोढ़ा अलग-अलग बातें हैं, लेकिन उनकी खासियत एक सी ही है। हर आय-वर्ग की जरूरत को चिपका देता है लसोढ़ा-पन। बस, पहचानने की कोशिश कीजिए। सुख-सुविधा और आनंद के बीच की जरूरतों को परखिये। और फिर अपनी जरूरत के हिसाब से एडजस्‍ट कर दीजिए। यही काम तो लसोढ़ा बखूबी जानता, समझता और चिपका देता है। अब वह समाधान परमानेंट है या टेम्‍परेरी, इस चक्‍कर में मत पडि़ये। परमानेंट तो हमारी-आपकी सांसें भी नहीं होती हैं। जिन्‍दगी चिपकाने की जरूरत और चिपक जाने तक सुविधा तक ही है। हां, आप अपने संस्‍कारों को अपनी पीढि़यों तक पहुंचाना चाहते हैं तो इसके लिए आपको जीवन के लसोढ़ा-पन को खोजना पड़ेगा। बशर्ते आपके पास वक्‍त, जरूरत, और सुविधा हो, तो।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– एक )

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *