गौरा ने छोड़ा नन्दी पर शेर, महादेव चारोंखाने चित्त

दोलत्ती

: सवा सौ बरस की स्मृतियां ताजा कर दी इस तैल-चित्र ने : तब के भगवान हमारे कोमल हृदय में बसते थे, अब दूरस्थ पाषाण-कारा में कैद : भांग में मस्त शिव-भोला पर गृहस्वामी का स्नेह-कोप। गणेश-कार्तिकेय आँचल में जा छुपे : सावन केवल शिव नहीं, पूरे परिवार का समारोह : भगवा ने समाज में धर्म को हिंसा और तनाव से जोड़ा :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सावन उल्लास का पर्व है और कोई भी परिवार विभिन्न व्यवहारों के मान्यताओं का महासागर। एक विशाल समाज की तरह, जहां पति सर्वोच्च नहीं और पत्नी केवल घूंघट में लजाती गृहणी भर नहीं। वह भी पति पर गुस्सा कर सकती है, ठिठोली कर सकती है। ईर्ष्या और तनाव नहीं, बल्कि हंसी-ठट्ठा की तर्ज में भी। यह क्या फर्क पड़ता है कि वह बड़ा समाज की तरह परिवार है, जहां पति-पत्नी परिवार, बच्चे, शिव-वाहन नन्दी, गौरा-वाहन सिंह, महादेव-आभूषण सर्प, कार्तिकेय-वाहन मयूर, गणेश-वाहन मूषक जैसा पूरा भरा-पूरा कुटुंब।
इस चित्र को देखिए। उन्नीसवीं शताब्दी में समाज के इस तैल-चित्र में कलाकार ने उस दौर में देवता और भगवान को एक पूरे कुटुंब की तरह देखा है। जाहिर है, कि यह चित्र तब हमारे समाज की भावनाओं का रेखांकन ही है।
देखते ही मन हर्षित हो गया इस सावन के झोंकों से। लगा जैसे कोई हिंडोले पर, तो कोई पेड़ से लटके झूले पर पींगें मार रहा है। मन हर्षित हो गया इस सावन के झोंकों से। लगा जैसे कोई हिंडोले पर, तो कोई पेड़ से लटके झूले पर पींगें मार रहा है।
पूरा हृदय एकदम्मे में गदगदायमान हो गया।
स्मृतियां जीवंत हो गईं।
कहाँ तब हमारे दिल-दिमाग और आसपास बिखरे होते थे यह देवता। इन भगवानों को हमारी आत्मीयता में गुँथे हुए। लेकिन भगवा ने उन्हें किसी को काशी, किसी को अयोध्या तो किसी को मथुरा में समेट कर उनके-उनके मंदिरों के दरवाजे पर सांकलें चढ़ा दीं।
हम अब उनमें अपना प्यार नहीं लुटाते, उन पर श्रद्धावनत कर दिया। अब उनसे आनन्द नहीं लेते, बल्कि उनसे डरते हैं।
किसी भयावह युद्ध के आधीश्वर और प्रेरणापुंज देवता जैसे लगने लगे हैं, जहां बात-बात पर हिंसा और तनाव ही बिछराया होता है।
कमाल है यह चित्र !
समाज में विभिन्न वैचारिक मान्यताओं को परस्पर स्नेह और आनंदयुक्त जीवन की शैली को क्या खूब चित्रयुक्त कर दिया। घर में परस्पर स्नेह-ठिठोली की परंपरा को गृहस्वामी को सिर पर बिठाने के बजाय उन्हें हृदयांगम की शैली कितनी प्यारी होती थी, जिसमें सभी का स्थान समान होता था, न कि छोटा-बड़ा।
बंगाल के शाक्त पंथ को शैव पंथ को घर में आबद्ध कर दिया।
गजब कर दिया। खेल में ही सही, लेकिन सभी के साथ ठिठोली हुई। जैसे विवाह में कोहबर, कलेवा और बाद भी गाली-परम्परा।
ज़रा देखिए तो कि गणेश और कार्तिकेय अपनी माँ गौरा के आंचल में लिपटे हुए हैं, और शिव-श्रीहीन
दिल्ली की वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका डॉ तृप्ति ने इस भाव में कितनी खूबसूरती से शब्दों को टांक दिए हैं। वे लिखती हैं कि:-
अब न रहे वे दिन जब हमारे भगवान सिर्फ पत्थर की मूरत बन कर मन्दिर में नहीं विराजते थे… वे साथ उठते-बैठते थे…हंसी-ठठ्ठा भी खूब चलता था उनके संग। न ईश्वर कुछ कम ईश्वर हो जाता था,न भक्त कुछ कम भक्त।
बहरहाल,सावन है…बम भोले की धूम है..इस पेंटिंग को देखिए .. इधर क्या चल रहा है…
बाबा चारों खाने चित पड़े हैं.. गौरा ऐसे हाल देख कर भला ताली क्यों बजा रही हैं ?
क्यों न बजाएं भई … सारा किया-धरा तो उन्हीं का है !
बाबा घर द्वार की फिकर छोड़ कर जाने कहां घूम फिर रहे थे।बड़े दिनों बाद कैलास लौटे भी तो भांग पी कर झूमते!
गौरा ठहरीं गौरा…बाहर होंगे महादेव..घर में तो पति ही हैं…आज बताती हूं इन्हें!
मारे गुस्से के अपने सिंह को छोड़ दिया बैल के पीछे..वो जो अपनी जान बचा के भागा तो बाबा धम से जमीन पर।डमरू कहीं.. कमंडल कहीं!
डरे -घबराए मोर और मूषक ने भी भागने में ही भलाई समझी। बेचारे बच्चे इस अफरा तफरी से घबरा के मां से जा लिपटे..अब ऐसा कामेडी सीन देख कर ताली तो बजानी ही थी..
बांग्ला में पढ़ सकते हैं यह मजेदार वर्णन जिसे चित्रकार ने बड़े जतन से चित्र के बीचोंबीच आंक दिया है।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बनाए गए इस तैलचित्र के चित्रकार का नाम उजागर नहीं है । स्रोत:देल्ही आर्ट गैलरी, दिल्ली

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