बकरीद: आपका चित्त अगर शांत हो, तो एक बात कहूँ !

दोलत्ती

: नेपाल, भूटान और लेह से लेकर पूरे देश में है मांसाहार : काली व स्थानीय देवता के लिए बलि प्रथा : हिन्दू मनौती के लिए, पर मुसलमान त्याग-भाव के लिए बकरीद मनाता है : आपकी परंपरा पवित्र, और मुसलमानों की क्रूर, अमानवीय और दूषित : क्यों झांकते हैं पड़ोसी की रसोई में ? : अदरक 300 व टमाटर 160 रुपये किलो कैसे :

कुमार सौवीर

लखनऊ : भारत में किसी भी आदि-देवी अथवा देव-देवता के आराध्य स्थान पर सदियों से बलि की परंपरा होती रही है। मैं लखनऊ में पैदा और पला हूँ। लिबर्टी सिनेमा के पास की काली बाड़ी में सैकड़ों बार बलि का दृश्य दिखा है। सुना है कि अन्य कालीबाड़ी में भी आजतक यही होता है। काली देवी तो रक्त-पिपासु हैं ही। उन्हें बलि ही सर्वोत्तम पसंद है। अब काली मां खुद तो बलि करती हैं नहीं, लेकिन उनके भक्त-पुजारी काली देवी के आदेश पर यह बलि मां काली के चरणों में दे देते हैं, और मां प्रसन्न हो कर भक्तों की मन्नतें कुबूल किया, का उद्घोष हो जाता है। सिर का हक पुजारी का, बाकी जजमान का। केवल लखनऊ तो दूर, जहां भी काली बाड़ी यानी बंगालियों का देवी-मंदिर है, यह हमेशा होता है। अखण्ड विश्वास के चलते।
सन-86 में दैनिक जागरण का वरिष्ठ संवाददाता के रूप में लखनऊ में तैनात था। उसी दौरान मिर्जापुर के विंध्याचल देवी समेत सिरसा तक की यात्रा की। पाया कि इस पूरे क्षेत्र के वीरान क्षेत्रों के दूरस्थ इलाकों के मंदिरों में बकरों की बलि दी जाती थी। लेकिन राजस्थान के जोधपुर, पाली-मारवाड़ आदि जिलों में अपनी दैनिक भास्कर की पोस्टिंग के दौरान पाया कि वहां बलि की परंपरा नहीं है।
सन-03 में जब मेरी पोस्टिंग दैनिक हिंदुस्तान में ब्यूरो प्रमुख के तौर पर हुई, तो पाया कि सिकरारा, जमालापुर, खुटहन, बदलापुर, केराकत, मड़ियाहूं, नाऊपुर और मछली नगर क्षेत्र में विभिन्न देव-स्थानों पर बलि होती है, जो आज भी जारी है। अधिकांश स्थलों में बकरे के साथ सुअर की भी बलि होती है। कुछ गरीब परिवार मुर्गे की बलि से ही अपना अनुष्ठान संपन्न कर देते हैं।
बलि के पहले पूरा परिवार अपनी मन्नत मांगता है। फिर बलि और फिर बलि दिए गए पशु के मांस को उत्सव के तौर पर पकाया और खाया जाता है। प्रसाद के तौर पर परिवार और आस-पड़ोस के लोगों में भी यह वितरण होता है।
उस उत्सव को इस क्षेत्र में कड़ाही-चढ़ाना जाता है।हालांकि कई शीतला माई की चौखट-बरामदे समेत कई देव-स्थानों में यह पशु बलि नहीं दी जाती है, जबकि कुछ स्थानों पर बलि केवल प्रतीक रूप में होती है। लेकिन कड़ाही चढ़ाना तो अधिकांश देव-स्थलों में प्रचलित है।
सन-08 में में जब मैं महुआ न्यूज का यूपी हेड बना, तो पाया कि अधिकांश देव स्थलों में यही पशु-बलि आस्था है। पूर्वांचल और आदिवासी क्षेत्रों में तो यह बलि-प्रथा बदस्तूर और बेहिसाब है।
बलिया, गाजीपुर और मऊ समेत आसपास के कई जिलों में भनौती परंपरा है। यादव आदि पिछड़ी और दलित जाति में। बलि दी जाती है किसी कुंवर जी के नाम पर। यहां के ठाकुर मांसाहारी हैं, लेकिन मनौती के झंझट में नहीं पड़ते। जहां मन किया, मार लिया। पार्टी स्टार्ट। कांख में बोतल तो उनके संस्कार में है।
लेकिन पिछड़ी जाति के ज्यादातर लोग बलि को भोजन में शामिल नही करते हैं, दूसरी जाति के दोस्तों में बांट देने के लिए छोड़ देते हैं। लेकिन बलि की हड्डियां अपने घर में ही गढ़वा लेते हैं। इस भनौती का मकसद है मनौती।
चाहे वह घर में आपदा से बचने के लिए, संतान और खास कर पुत्र की ख्वाहिश में। गाय से बछिया के लिए भी मनौती। यात्रा सुगम और सुखद रहे, परिवार कुशल में रहे, घर बन जाये, बिटिया का बियाह और बेटे को सुशील बहू। सामाजिक सुख या आपदा निवारण के लिए भी बलि। यह है भनौती। मंगल आपका, बलि पशु की।
बलि के पहले बकरे की खूब सेवा होगी। ताज़ा पत्तियां, चारा, चूनी-भूसी में गुड़ मिलाएगा। बकरा मस्त। लेकिन बलि के समय उसे पकवान दिए जाएंगे। बकरा भोजन में मुंह मारता रहेगा। बलि के दौरान पंडित भी आएगा और मंत्रोच्चार जैसा कुछ अंडबंड बुद्बुदायेगा। फिर चिल्लायेगा कि:- “बलि।” और तलवार जैसा शस्त्र बकरे की गले को धड़ से जुदा कर देगा।
खासकर सावन तथा चैत्र महीने में। कहावत ही है कि बकरी की मां कब तक खैर मनाएगी। सावन से बची बकरी, तो चैत में निपटेगी। बाकी महीने तो ठाकुरों या मांसाहारी लोगों के रहमोकरम में रहेंगी बकरी।
खास बात है कि इन जातियों में बलि कराने वाले तो अधिकांश हैं। लेकिन बलि करने वाला न के बराबर। इसके लिए बलि में झटका पद्यति होती है। ज्यादातर मामलों में इसके लिए कुरैशी मियांजी को बुला कर जिबह पद्यति से मामला निपटा दिया जाता है। वे भी मांस का सिर हिस्सा या सीधे पारिश्रमिक वसूलते हैं।
सन-14 में लेह-लदाख की यात्रा में मैंने पाया कि वहां लेह निवासी बलि नहीं देते हैं, जिबह भी नहीं करते। बौद्ध परंपरा में जीव-हत्या अपराध है, लेकिन मांसाहार की सम्पूर्ण स्वतंत्रता है। फिर सवाल यह कि मांस कैसे मिले? इसके लिए गुजरते मुस्लिम या चीनी यात्रियों से गुजारिश करते थे लदाखी लोग। लेकिन करीब 70 बरस पहले इसका स्थाई समाधान खोज लिया बौद्धों ने। बौद्ध राजा ने कश्मीर मुसलमानों जो यहां स्थाई रूप से रहने के लिए आमंत्रित किया। और लो हो गया समस्या का समाधान।
सन-15 में अपनी असम और पूर्वोत्तर यात्रा के दौरान मैंने गोहाटी के कामाख्या मंदिर को बहुत करीबी से निहारा। पाया कि वहां रोजाना सैकड़ों की संख्या में बकरे और बछड़े की बलि दी जाती है। बलि पशु का सिर पुरोहित के हिस्से में आता है, जबकि पूरा हिस्सा जजमान ले जाता है। हर पंडित के कपड़े रक्तरंजित होते हैं। कामाख्या मंदिर में ही और कामाख्या देवी के गर्भगृह के करीब बीस मीटर दूर। खास बात है कि पूरे असम के अनेक मंदिरों में बलि की प्रथा खूब है।
यही हालत बंगाल में भी है, और बहुतायत है। खासकर वहां, जहां शाक्त और कहीं-कहीं शैव समुदायों के देवालय हैं। असम से आगे बढ़ते ही आप पाएंगे कि हर घर में बलि होती है, और अक्सर तो हर सामाजिक परिवारों में यह परंपरा अनिवार्य होती है। पड़ोसी नेपाल और भूटान में तो यह प्रथा बेहिसाब है। इस पूरे क्षेत्र में मांसाहार में विभेद नही होता है। मांस चाहिए, चाहे बकरा हो या गाय-भैंस।
मकसद है पेट भरना या ईश्वर को प्रसन्न करना।
लेकिन जब यही प्रथा मुसलमान अपनाता है, तो आप क्यों विद्वेलित हो जाते हैं? क्यों आक्रोश से भर जाते हैं? आपको क्रोध किस बात पर आता है?
क्या तर्क यही कि आपकी परंपरा पवित्र है, और मुसलमानों की परंपरा क्रूर, अमानवीय और दूषित है?
जाइये, सोचिए कि हमारी सोच में यह गड़बड़ या असंतुलन क्यों है? हम यह नहीं सोचते कि हिन्दू अपनी मनौती के लिए बलि देता है, जबकि मुसलमान खुद में त्याग भाव उगाने के लिए।
लेकिन इसके बावजूद आप को अगर मुसलमान ही पूरी तरह गलत समझ में आता है तो भी, इस बात को भी तो जरूर सोचिएगा कि आज लखनऊ में अदरक 300 रुपये किलो और टमाटर 160 रुपये प्रति किलो अचानक कैसे पहुंच गया।
धन्नासेठ सेठों और बिचौलिया बनियों की पार्टी-जन्य करतूतें आपकी समझ में नहीं आती हैं, तो विश्वास कर लीजिएगा कि आपको कोई भी हरगिज नहीं समझा सकता।
खास कर इस तर्क पर कि बकरीद के त्योहार में प्याज का कोई इस्तेमाल नहीं होता है।

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