राकेश पाठक : नाम एक वकील का

दोलत्ती

: हाईकोर्ट की वकालत में सहजता और गंभीरता का मिश्रित व्यक्तित्व : तब से उन्होंने गारंटी नहीं, सिर्फ मेरिट पर मुकदमा लड़ा : खिन्न भाव में मुकदमे की मिसिल और मिली फीस मुअक्किल के हाथों में थमा दी : डिग्री, कोट-पैंट, बैंड, गाउन से कोई वकील नहीं बनता :

कुमार सौवीर

लखनऊ : जज साहब ने पूछा :- “आपकी बातें समझ रहा हूं, लेकिन यह तो बताइये कि प्रमोशन लेटर कहां है, जिसके आधार पर आप पदोन्‍नति हासिल करने का दम भर रहे हैं?”
वकील साहब सन्‍नाटे में आ गये। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस सवाल का अब वे क्‍या जवाब दें। प्रमोशन लेटर तो उनके पास है ही नहीं। इस पत्र की आवश्‍यकता के बारे में उन्‍होंने सोचा तक नहीं था।
दरअसल, वे पिछले एक हफ्ते से ही प्रसन्‍न थे। फाइल कोर्ट में सबमिट कर चुके थे। सुबह सुनवाई होने को थी। खुशी में उत्तेजना का पारावार नहीं था। पूरा मामला ही साफ दिख रहा था कि जज साहब रेमेडी दे देंगे, इसलिए वकील साहब बहुत उत्‍साहित थे। थोड़ा इसलिए ज्‍यादा ही खुश थे कि उन जज साहब का व्‍यवहार वकीलों के प्रति ज्‍यादा ही आत्‍मीय हुआ करता था। इसीलिए उन्‍होंने मुअक्किल को पूरी तसल्‍ली दे दी थी। साफ कह दिया था कि मामला फतह है, गारंटी दे रहा हूं।
लेकिन कोर्ट रूम में जो कुछ भी हुआ। वकील साहब की हालत बुरी हो गयी। सूख चुके गले को थूक से बमुश्किल गीला करने की कोशिश की, लेकिन वहां तो थूक तक सूख चुका था। ठीक से खखार भी नहीं पा रहे थे वकील साहब कि कुछ राहत ही मिल पाये।
तब तक जज साहब खुद ही बोले:- दो दिन बाद की डेट लगा रहा हूं। प्रमोशन का लेटर लेकर आइयेगा।
जज साहब की आवाज ने उन्‍हें सांस मिली। आनन-फानन उन्‍होंने फाइल उठायी और वकीलों की भीड़-भड़क्‍का से जहां-तहां खिसकते हुए कोर्ट रूम से बाहर निकले। सबसे पहले तो कैंटीन के पास पहुंचे और एक ग्लास पानी गटागट एक सांस में उदरस्थ कर लिया।
शाम को जब चैम्‍बर पर पहुंचे तो अपनी जीत के प्रति आश्वस्ति भाव से प्रसन्‍न-मुदित मुअक्किल पहले से ही डेरा डाले बैठा था। वकील को देखते ही मुअक्किल ने अपने होठों को लम्‍बाई से कुछ ज्‍यादा ही खींचा, दांत चियार करने की इस्‍टाइल में। अतिशय उत्‍साह में मुअक्किल ने मिठाई का डिब्‍बा मेज पर ही रखा था, जिसे कुर्सी पर बैठते वकील साहब को प्रसन्‍न करने के लिए मुअक्किल ने उनकी ओर सरका दिया।
वकील साहब थोड़ा का लहजा ही ऐसा था। गुस्‍से में बमक जाने के बजाय वे थोड़ा अनमनस्‍क ही थे। कुर्सी पर बैठने के बाद उन्‍होंने दराज से रुपये निकाले। यह वह रुपये थे, जो उन्‍होंने इस मुअक्किल ने अपना मुकदमा की फीस के तौर पर उन्‍हें दिया था। कुछ दिनों से पत्‍नी मायके गयी हुई थीं, इसलिए यह रुपये जस की तस मेज की दराज में सुरक्षित रखे हुए थे। वकील साहब ने मुअक्किल को उनके मामले की मिसिल मुअक्किल के सामने रख दी, और उस पर वह सारे रुपये भी रख दिये जो मुअक्किल ने उन्‍हें फीस के तौर पर दिये थे।…
लेकिन यह पूरा मसला सुनाने के पहले मैं आपको इन वकील साहब से आप सब का तआर्रुफ तो करा दूं !
दरअसल, कई लोग सामान्‍य से अलहदा होते हैं। उनका दिमाग भले ही बेहद श्रेष्‍ठ-स्‍तर तक को छू रहा हो, लेकिन अपनी देह-यष्टि को वे अलग-अलग डायमेंशन में व्‍यवस्थित रहते हैं। शरीर के विभिन्‍न अंगों पर उनका कमाल का नियंत्रण होता है। ऐसा कि उन्‍हें देख कर आप अपनी उंगलियां दांतों तले चबा सकते हैं। मसलन, अगर उन्‍हें मुस्‍कुराना है, तो उस क्रिया में केवल उनके होंठ ही सक्रिय रहेंगे। हंसना है तो उसके आसपास के सारे अवयव उत्‍तेजित रहेंगे। किसी को डांटना है, तो भाव केवल स्‍वर तक ही होगा और अगर अपार गुस्‍सा आ रहा होगा, तो चेहरे के पड़ोसी अंग से अधिक तक प्रतिक्रिया नहीं हो पायेगी। ऐसा नहीं होगा कि उनका पूरा शरीर उनके ऐसे हर क्रिया पर सहयोगी बना ही रहे। जबकि जब उन्‍हें चलना होगा, तब उनकी भंगिमा अलग क्रिया करेगी। तब केवल शरीर ही नहीं, बल्कि उनका गाउन भी ठुमकता-ठुनकता साफ दिख जाएगाा। पीछे से देखने वाला साफ समझ जाएगा कि अमुक शख्‍स जा रहा है। रही बात उनके दिमाग और तत्‍सम्‍बन्‍धी क्रियाओं की, तो वे हजारों में से ही एक होगी। व्‍यवहार और व्‍यवसाय पर उनका तरीका बेहद अलग-अलग है। लेकिन बेईमानी कत्तई नहीं। उनके जूनियर भी उनसे गदगद रहते हैं।
यह सज्‍जन हैं राकेश पाठक। लखनऊ हाईकोर्ट में वकील हैं और उनका चैम्‍बर खासी ख्‍याति रखता है। सरलता में आदर्श। जो बात कहनी है, साफ-साफ कह देंगे। लेकिन पूरी शाइस्‍तगी के साथ। अपने रुष्‍ट भाव को भी वे हजम कर उसे सहज बात में तब्‍दील करते हैं। हंसते तो हैं, लेकिन उनके ठहाके कभी भी गदगदा कर नहीं लगते। बनावटीपना कत्तई नहीं। उनमें कटु व्‍यवहार तो मैंने कभी देखा ही नहीं। मेहमान-नवाजी कोई इनसे सीखे।
तो साहब ! यह घटना आज से करीब तीस पहले की है, जब राकेश पाठक वकालत में शुरुआती दौर में थे।
उपरोक्त मामले में जब वकील साहब ने मामले की मिसिल और वकील के तौर पर मिली फीस की रकम वापस किया तो मुअक्किल हक्का-बक्का रह गया। घबराया और बोला, “क्या हो गया।”
वकील ने पूरा किस्सा तफ़सील से सुना दिया और बताया बताया कि मुअक्किल ने सारी जानकारी नहीं दी, और मैंने भी बड़ी चूक की, कि मुअक्किल के मसले में उठ सकने वाले तर्क का जवाब खोजने में तनिक भी मेहनत नहीं की। राकेश ने कुबूल किया कि इस मामले में मुअक्किल से ज्यादा उनका अपना ही काम बेहद कमजोर रहा। इतना कि एक सहज प्रश्न को भी वे सोच तक नहीं पाए। नतीजा यह असफलता उनके माथे पर जा चिपकी।
मुअक्किल के सामने राकेश पाठक बेहद दुखी थे। बोले, आप अपना केस जिसे भी देना चाहें, करा लें। अभी दो दिन का वक्त है आपके पास। कोई दूसरा वकील रख लें। मैं यह केस नहीं लड़ पाऊंगा।
इतना ही नहीं,राकेश पाठक ने भीष्म-प्रतिज्ञा भी ली कि अब चाहे कुछ भी हो जाये, वे किसी मुअक्किल का उसके केस को लेकर गारंटी के साथ नहीं लड़ूंगा। बल्कि जो भी केस लड़ूंगा, केस की मेरिट पर ही लड़ूंगा।
लेकिन मुअक्किल निराश नहीं हुआ। उस ने साफ कह दिया कि, ” वकील साहब ! यह केस तो अब आप ही लड़ेंगे। गलती को सुधारना भी एक चैलेंज होता है। मुझे जो कहना था, कह चुका। आप वकील है, केस समझना आपका काम है। कोर्ट में तर्क और जवाब का काम आप को ही संभालना है। अब आपको जो करना हो, करते रहिएगा। वरना यह केस में किसी दूसरे से हाथों नहीं लड़ूंगा। आप चाहें, तो इस फाइल को रद्दी में फेंक दीजिएगा।”
राकेश पाठक निःशस्त्र। उनके हाथों से तोते उड़ गए। शर्म भी आई कि मुअक्किल इतने विश्वास के साथ अपनी जिंदगी उनके हाथों में सौंप दी, और मैं अपने इस फैसले से उसके संग विश्वासघात कर रहा हूँ। कमी तो मेरी तरफ से है,और फिर मुअक्किल क्यों झेले?
अपनी बात फिर से वकील साहब को समझा, दोबारा केस बताया। बताया कि क्या गड़बड़ है, और उससे कैसे निपटा जा सकता है। लाभ-नुकसान विस्तार से समझा दिया। बीच-बीच में वकील साहब ने कई सवाल पूछे, जिसका जवाब भी सुना। करीब रात पूरी शांति के साथ वकील साहब और मुअक्किल में बातचीत होती रही। राकेश पाठक सब नोट करते रहे। भोजन के बाद चाय के कई दौर के बीच सुबह हो गयी।
सच बात तो यही थी कि वकील साहब पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुए थे। पिछले अनुभव रह-रह कर उन्हें डरा देता था। अब क्या होगा, कैसे जवाब दूंगा, क्या फैसला होगा, मुअक्किल से क्या कहूंगा, वह क्या सोचेगा वगैरह-वगैरह।
इन्हीं उधेड़-बुन में राकेश पाठक कोर्ट पहुंचे। अपने केस का नंबर आने की प्रतीक्षा में लग गये। केस लगा, तो जज ने पहले सीधे सरकारी वकील से पूछ लिया, ” हाँ, क्या मामला है?
सरकारी वकील ने पूरी बात नहीं समझ पाए, तो जज ने राकेश की ओर देखा। राकेश पाठक ने अपनी बात कह दी कि मुअक्किल को पिछले पांच बरस से यह दायित्व सौंपा गया था, इसके तहत सारे प्रशासनिक और आर्थिक अधिकार भी दिए गए थे। और इस पूरे मामले को वह पूरे दौरान बिना किसी भी अफसर ने उनके कामकाज पर कोई भी शिकवा-शिकायत या दिक्कत नहीं महसूस की। उस पर कोई आरोप भी नहीं लगा।
पांच साल हो गया। ऐसी हालत में प्रमोशन लेटर मुअक्किल को अगर नहीं दिया गया तो इसमें मुअक्किल का तो कोई अपराध है नहीं। दोष अगर कोई है तो सरकार और उनके अफसरों की ओर से है। सरकार से पूछा जाना चाहिए कि उसने प्रमोशन लेटर को क्यों जारी नहीं किया गया।
जज साहब संतुष्ट हो गये। और पूरा मामला राकेश पाठक यह मुअक्किल के पक्ष में हो गया।
शाम को फिर मुअक्किल अपना मुंह उठाये वकील साहब के चेंबर के बाहर चहलकदमी करते दिखे। उनके आने और राकेश पांडेय के चेहरे को देख हल्का सा संतुष्टि भाव उभरा। दिल को तसल्ली और दिमाग में कोकाकोला। लेकिन यब तक बात साफ न सुन ले, तब तक कुछ आशंकाएं भी थी।
राकेश पाठक ने मुअक्किल के कंधे पर हाथ रखा और चेंबर के भीतर ले गए। कुर्सी पर बिठा कर खुशी बांटी। बाकी सब तो वही हुआ जो किसी खुशी के मौके पर निपटाया जाता है।
लेकिन उसी वक्त मन ही मन राकेश पाठक ने भीष्म-प्रतिज्ञा कर डाली, कि आज से चाहे कुछ भी हो जाए, वह कोई भी मुकदमा तब ही अपने हाथ में लेंगे जब उसमें गारंटी नहीं, बल्कि मेरिट होगा।
और उस दिन का वक्त है और आज का दिन, राकेश पाठक में चाहे जो भी कर लिया हो, लेकिन जो भी मुकदमा अदालत में पेश किया वह केवल मेरिट पर ही रहा।
उन्होंने कभी भी किसी भी मुअक्किल को कोई भी गारंटी नहीं दी। मेरिट है तो राकेश पाठक सदा-सर्वदा हैं। राकेश पाठक का ब्रह्मसूत्र है कि डिग्री, कोट-पैंट, बैंड, गाउन पहनने मात्र से कोई से व्यक्ति वकील नहीं बन सकता, वकालत के लिए तर्क, बुद्धि, दिल, और दिमाग भी त्वरा भाव में मौजूद होना चाहिए और वह स्थिति केवल अटूट परिश्रम से ही मुमकिन है।
हां, बुद्धि न हो तो अच्छा खासा आदमी भी जमूरा से कम नहीं दिखता।

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