कुमार सौवीर: भीख मांगने से बेहतर है मैं समलैंगिक हो जाऊं

दोलत्ती

: समलैंगिकों के योद्धा सौरव कृपाल बन सकते हैं हाईकोर्ट में जज : नृत्य में एक-एक भंगिमा रोमांचक, भंगिमा में सेक्स-अपील है तो क्या : कृपाल की कमर लचकती है, मेरी रीढ़ में 3 फ्रैक्चर : भिखमंगा से बेहतर है एलजीबीटी होना, ताली बजा कर धोती उठाई तो पुलिसवाले भी भाग निकलेंगे : भावुकता में बेमिसाल होते हैं थर्ड जेंडर :

कुमार सौवीर

लखनऊ : आखिर सौरव कृपाल और मुझमें क्या फर्क है, सिवाय इसके कि कृपाल वकील हैं, और मैं कानून के मामले में निरा उल्लू का पट्ठा। लेकिन पढ़ता, सोचता और लिखता तो मस्त ही हूँ। फर्क सिर्फ यह है उनके पास शोहरत, दौलत और पहुंच है, जबकि मैं ठनठन-गोपाल। वे मोटी फीस उगाहते हैं, मैं लड़हू-लस्सुन, कानी-कौड़ी में भी महंगा।

लेकिन अब सौरव कृपाल को हाईकोर्ट का मी-लार्ड बनने दीजिये बस। उसके बाद तो मैं भी सारे एलजीबीटी के साथ सक्रिय छोटा-मोटा नेता या कार्यकर्ता ही बन जाऊंगा। सौरव कृपाल समलैंगिक लोगों के एक वर्ग के नेता हैं। तो मैं भी कंगाल पार्टी का इकलौता संस्थापक, अध्यक्ष, महामंत्री से लेकर चपरासी तक का काम अकेले दम पर ही करने को मजबूर हूँ। सौरव के एक इशारे में हजारों तालियां बज जाती है, धन का अंबार लग जाता है। हर व्यक्ति उन्हें कुछ न कुछ तो दे ही देता है। जबकि भिक्षा मांग-मांग कर मेरे गले से लेकर पिछवाड़ा तक सूख कर अकड़ जाता है।
दीगर बात है कि महीने में एकाध लोग बहुत सिकोड़-सिकोड़ कर मुझे दो-चार हजार रुपया दे देते हैं। लेकिन उतने भर से तो मेरी दवा तक का खर्चा भी नहीं निकल पाता। रीढ़ की हड्डी में तीन फ्रैक्चर का इलाज का खर्चा बीस लाख है, और मेरे पास कौड़ी-छदाम भी नहीं। अब तो कोई फों करने में भी परहेज करते हैं। एक बड़े अफसर मेरे हर फोन पर तो हर बार मुझे बुलाते हैं, फिर दफ्तर से ही चुपचाप सटक जाते हैं। हां,, एक वकील साहब ने मुझे पांच हजार रुपयों का प्रिवी-पर्स बांध रखा है, इस आश्वासन पर कि अगली बार कई बार की पेंशन अदा कर देंगे। लेकिन अगली बार मिलते ही बकाया सारा प्रिवि-पर्स जब्त कर लेते हैं।
इतना ही नहीं, कई लोग तो ऐसे भी मिले जो मुझे लोक-प्रहरी घोषित कर दूसरे शहर-जिला और प्रदेश में भेज देते हैं, लेकिन यात्रा और भोजन तक की व्यवस्था भी नहीं करते। अहसान उप्पर पर। घाते में। “चढ़ जा बेटा बांस पर, भला करेंगे राम।”आपको बता दूं कि सौरव कृपाल दिल्ली हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट हैं और घोषित गे यानी समलैंगिक हैं। समलैंगिक लोगों को लेकर उनकी भूमिका भी काफी सराही जाती है। उनके पिता बीस साल पहले सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च न्यायाधीश भी रह चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट बेंच उनकी तारीफ करती है और कोलोजियम ने उनका नाम दिल्ली हाई कोर्ट के लिए भेज दिया है।
आपको बता दें कि सौरव कृपाल का मामला 13 अक्टूबर-17 से लटका है। दिल्ली हाई कोर्ट कलीजियम ने उनका नाम प्रस्तावित किया था। 11 नवंबर-21 को सुप्रीम कोर्ट ने उनका नाम सरकार को भेजा। कहा जाता है कि सौरव कृपाल के पास योग्यता भी है, निष्ठा भी है, कला भी है। जबकि केंद्र सरकार का यह कहना था कि उनका पार्टनर स्विस नागरिक है। जानकारों का तर्क है कि इस तर्क को मानने का कोई कारण नहीं है। वर्तमान और भूतकाल में कई उच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के पति या पत्नी विदेशी नागरिक रहे हैं। इस सिद्धांत के आधार पर कृपाल की उम्मीदवारी खारिज नहीं हो सकती है। तब से ही हंगामा चालू है। एक झंझट यह भी है कि सौरव कृपाल का एक साथी स्विस में, जबकि वे दिल्ली में। ऐसे में पचास की उम्र के फेंटे वाले सौरव कृपाल यह “दाम्पत्य-जीवन” कैसे संभालेंगे? वेतन से तो भेंट-मुलाकात भी ठीक से नहीं हो पाएगी, फिर दाम्पत्य के नाम पर केवल छूँ-छां का क्या मतलब?
आपको बता दूं कि कृपाल का साथी विदेशी है, और सौरव कृपाल उस साथी को अपना पति मानते हैं। मेरी नजर में इसमें अनैतिकता कहाँ है? लेकिन आशंकाएं तो खूब हैं। माना कयय जा रहा है कि कोलेजियम के प्रस्ताव पर सरकार की मुहर लगते ही एलजीबीटी लोगों का हौसला फ़नफना जाएगा। हर ओर बधाइयां बजनी शुरू हो जाएंगी। सब ओर सिर्फ एक ही नारा लगेगा। “सौरव कृपाल, हम सब का कृपाल। हम सब को पाया है, मेरा सौरव आया है।” मसलन मसलन।
आपको बता दूं कि जन्म, देखनी, मंगनी, थौना, गौना, तिलक, शादी और विदाई ही नहीं, हर बच्चे के जन्म और खतना तक में उनकी डिमांड सवा लाख से ही स्टार्ट होती है, लेकिन अदा करने वाला अम्बानी की संपत्ति की तरह 51 हजार तक पोंक मारता है। मैं तो कहता हूं कि यह भी चौंचक धंधा है। सौरव कृपाल भी तो ताल ठोक कर कह रहे हैं कि अगर मैं जज नहीं बन पाया, तो अगले 15-20 बरस तक कोई भी एलजीबीटी व्यक्ति जज नहीं बन पाएगा। यह भी तो एक दावा और दबाव है।
वैसे बड़ा मस्त डांस करते हैं सौरव कृपाल। उनका एक वीडियो तो वायरल चल रहा है, बेहद मस्त-मस्त है। मिया खलीफा, सन्नी लियोनी और उर्फी जावेद तो नहीं, लेकिन राखी सावंत सा समझ लीजिए। जिसमे उनकी एक-एक भंगिमा देखने वाले को रोमांचित कर सकती है। क्या फर्क पड़ता है कि उनकी ऐसी भंगिमा में सेक्स-अपील की भरमार है। व्यवसाय और अभिरुचि यानी शौक अलग-अलग होता है यार, और अपने हर क्षेत्र में वे माहिर हैं। रुपयों की गड्डियां उन पर बरसती हैं। सच बात तो यह है कि मौके-बे-मौक़े पर एलजीबीटी का अस्थायी लाभ उठाने वाले भी हमारे-आसपास खूब हैं।
अब यह दीगर बात है कि कोई भी ऐसी बात कोई भी किसी के सामने नहीं बताता है कि उसने अपने बचपन, छात्रकाल या व्यवसाय में एलजीबीटी वाले सम्बन्ध बनाये हैं, या नहीं। बताता है सिर्फ एक। वह भी अपना सीना ठोंक कर। और उसका नाम है कुमार सौवीर।
इसीलिए, मैं भी सोचता हूँ कि समलैंगिक बन जाऊं। और बाकी जिंदगी ऐश के साथ बिताऊं। कोई ज्यादा ना-नुकुर करे, तो उसके सामने अपनी धोती उठा लूं। अच्छा-खासा आदमी जेब की रकम मेरे चेहरे पर थमाए, और भाग कर पीटी उषा हो जाये।
वैसे भी बीवी तो 18 साल से ही मुझे सहार मरुस्थल में छोड़कर बर्फीले दक्षिणी ध्रुव में चली गयी। ऐसे में अगर मैं स्वयं को एलजीबीटी के तौर पर बन जाने की कोशिश कार्यान्वित कर डालूं, तो उसमें क्या गुरेज है, कोई मुझे बताए तो!
और फिर, ऑपरेशन की क्या बात है, बिना जर्राह के भी तो सैकड़ों समलैंगिक लोग तर्क, बस, ट्रेन और सड़क-बाजार में भी तो सबसे झकझोर उगाही करते रहते हैं। पुलिस वैसे तो ऐसे हर मामले में अपना डंडा-टोपी न जाने कहाँ घुसेड़ लेती है, न जाने कहाँ अलग ही सरक कर भाग निकल जाती है। लेकिन अगर पुलिस ने कोई हस्तक्षेप किया भी, तो सबके सामने ही अपनी साड़ी उतार लेते है वे एलजीबीटी लोग। बस फिर क्या, सब सारे मर्दाने लोग भाग निकलेंगे। बड़े-बड़े वकील पैसा अकूत वसूलने के लिए क्या-क्या कर्म-कुकर्म नहीं करते है, यह पूरा अधिवक्ता जगत भी जानता है। बस बोलने का साहस किसी में नहीं। मैंने कहा न, कि सच तो बोलता है सिर्फ कुमार सौवीर।
अरे फिर एलजीबीटी होने में हर्ज क्या है? कौन यह देखने के लिए खड़ा रह कर दीदा फाडे रहेगा कि सामने वाला एलजीबीटी है या नहीं, या फिर उनकी धोती के अंदर कुछ है भी क्या? और अगर है भी तो वहां है क्या? हर जिज्ञासा का साक्षात समाधान कर पाना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं होती है।
देर आयद, दुरुस्त आयद। इससे क्या फर्क होता है एक्टिव अथवा पैसिव गे-गिरी में। सिवाय सौरव कृपाल की कमर मस्त लचकती है, जबकि मेरी रीढ़ में तीन फ्रैक्चर हैं। तो क्या हुआ, दुख-सुख तो जीवन का अविभाज्य अंग हैं। कमर तो दोनों की ही है। हां, उनके प्रयोग की संभावना, उपयोगिता और उपादेयता अलग-अलग हैं।
और फिर, संभावनाओं का जन्म भी तो कष्ट में ही मुमकिन है।
रही बात एलजीबीटी की, तो मेरा निजी अनुभव रहा है हिजड़ों को लेकर। मुझे सबसे मानवीय, स्नेहिल और आत्मीय लगे। मेरी दो बेटियों के जन्म के बाद जब उनके झुंड मेरे घर आये, तो मुझसे अभिभूत हो गए। हिजडों को मैंने कभी भी गुंडा, लुटेरे या अराजक होते नहीं देखा। बल्कि मेरी बेटियों को न्योछावर तक दिया मेरी उन बेटियों ने।
फोटोज साभार: भास्कर और न्यूज हिंदुस्तान

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