खानदानी वकील हैं शुचिता सिंह। इंसान भी जबर्दस्त

बिटिया खबर

: हर रिश्ते को घोड़े-घास संबंध से नहीं तौला जा सकता: अरब का घोड़ा बन कर क्या हासिल होगा, इंसानों पर बात किया जाए न : मुझे बताया गया था कि काम में बेहद सतर्क-पेशेवर शुचिता हैं, कम ही वकील ऐसा कर सकते :

कुमार सौवीर

लखनऊ : दुनिया के सभी देशों में यह कहावत बिल्कुल सटीक और मशहूर मानी जाती है कि, “घोड़ा अगर घास से दोस्ती करेगा, तो खायेगा क्या ?”
लेकिन यह कहावत या लोकोक्ति केवल घोड़ा और घास के परस्पर भोज्य-पदार्थ संबंध तक ही सीमित हो सकता है। मनुष्यों पर यह रिश्ता लागू नही होता है। और भी उन इंसानों जो लेकर है, जो वाकई मानव होते हैं और उसमें भी आदमियता को श्रेष्ठतम पायदानों तक पहुंचना चाहते हैं। इसके लिए
आज शुचिता से मिला। पेशे से खानदानी वकील हैं और खंडन है ठाकुर यानी राजपूत। श्वसुर जिला जज रह चुके हैं, पति संजीव सिंह हाईकोर्ट में वकील हैं। चैम्बर में ही उनके पति संजीव सिंह ने बताया कि वे मुझे दोलत्ती डॉट कॉम वेब और यूट्यूब-चैनल के माध्यम के चलते मेरे काम से वाकिफ हैं, और प्रशंसक भी।
शुचिता सिंह से मेरी मुलाकात मेरे विश्वसनीय मित्र और यूपी राज्य उपभोक्ता फोरम के एक अधिकारी के माध्यम से हुई। मुझे बताया गया था कि अपने काम में जितनी सतर्क और पेशेवर शुचिता सिंह हैं, बहुत कम ही वकील ऐसा कर पाते हैं।
भेंट हुई तो मामला पारदर्शी दिख गया। पता चल गया कि जैसा नाहे, वैसा ही उसका अर्थ। शुचिता यानी पवित्र, शुभ, अच्छा चित्र, सुंदर और समझदार भी होता है। कुल मिलाकर अपने संदर्भ में सर्वोत्तम।
जैसे मैं। जी हाँ, मैं भी।
मैंने भी 43 बरस तक पत्रकारिता की है, जिसमें केवल साढ़े सोलह बरस तक विभिन्न राज्यों और संस्थानों में नौकरी कर पाया। बाकी वक्त भी बेरोजगार होने के बावजूद पत्रकारिता ही करता रहा। वेतन का सवाल ही नहीं था। लेकिन न पारिश्रमिक लिया, न चंदा, न दान, न विज्ञापन। पूरा जीवन भिक्षा तक ही घिसती रही। यह अलग बात है कि बहुत कम ही लोग ऐसे मिले तो मुझे भिक्षा देने में उत्सुक दिखे हैं। ज्यादातर या तो बहाना ही बनाते हैं या काम निकालने पर आंख चुराते ही रहे। बहुत लोग तो ऐसे ही मिले, जो पीठ-पीछे मुझे बाकायदा और दोगला कहते और गालियां देते रहते हैं।
मगर मेरा काम धर्म-दायित्व की तरह झकाझोर ही चलता रहा, निर्विघ्न। निर्विकार।
इसके बावजूद ऐसे बहुत लोग मुझसे मिले, जिनसे मिल कर लगा जैसे मेरा जीवन धन्य हो गया। किसी कोहिनूर जड़ा ताज की तरह। श्रेष्ठता की प्रकर्ष तक। जो न हो, तो लोग मुझे पहचान ही न पाएं।
13 महीनों से असीमित शारीरिक कष्ट झेल रहा हूँ। हल्का भी झटका दर्द का करंट की तरह पूरा शरीर दहला देता है। इसके बावजूद काम अत्यावश्यक होने के चलते में विजयंत खंड में मिनी स्टेडियम से सटे मकान में शुचिता सिंह के घर पहुंच ही गया। साथ में लद गए थे भावार्थ उर्फ च्यवनप्राश।
क्या शुचिता, क्या उनके पति और क्या उनका प्यारा बेटा, सभी ने मुझसे पहले भावार्थ की सेवा की। दरअसल, मैं अपनी एक मित्र के भूखंड से जुड़े एक विवाद को लेकर आया था। इस भूखंड के विक्रेता फर्म ने धोखाधड़ी करके उसका रास्ता सात मीटर के बजाय सिर्फ पौने चार मीटर कर दिया था। वे सहमत हो गईं कि शुचिता अब इस मामले को अदालत में घसीटेंगी।
बातचीत का आखिरी मोड़ यानी पटाक्षेप का दौर आ गया। मैंने पूछा, ” आपको भुगतान कितना करूँ?”
शुचिता सिंह ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ” न। कुछ भी नहीं।”
मैं स्तब्ध रह गया। पूछा, ” ऐसा क्यों?”
” दो-एक पन्ने का ही मुकदमा दायर होना है। ऐसे में उस का मेहनताना?” शुचिता का जवाब था।
मैंने कई बार मन्नत की, हाथ जोड़े, लेकिन शुचिता टस-से-मस न हुईं।
मन मसोस कर मैं ने चाय पी, खेलने की जिद पर आमादा च्यवनप्राश को जैसे-तैसे बुलाया और वापस आ गया।
फीस न देने पर मैं निराश तो हुआ, लेकिन खुद पर गर्व भी बेहिसाब हुआ कि मैंने जीवन भर घास खाने में ही खुद को जाया-खत्म नहीं किया है, बल्कि अनमोल, अप्रतिम, अनोखे और बेशकीमती इंसानों को खुद से जोड़ने की जीतोड़ कोशिशें भी की है।
नमूना हैं शुचिता, उनके पति और उनका बेटा।
खैर, अगली बार फीस अदा करने की कोई दूसरी तजबीज खोजूंगा, जरूर।

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