सरकारी विद्यालयों में शिक्षा खिलती है, निजी स्‍कूलों में सत्‍यानाश

दोलत्ती

: तुलनात्‍मक करना शुरू कीजिए, तो सरकारी स्‍कूलों का कोई मुकाबला ही नहीं : क्‍या मधुलिका, क्‍या ममता और क्‍या शुभम, एक से बढ़ कर एक श्रेष्‍ठ नमूने हैं सरकारी स्‍कूलों में : आपको अपने बच्‍चे को रट्टू तोता बनाना है, या बुद्धिमान और आत्‍मविश्‍वास से लबरेज इंसान : प्रशिक्षित शिक्षकों की फौज है सरकारी स्‍कूलों में, कई डीएम के बच्‍चे भी वहां भर्ती हैं :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मेरी आर्थिक औकात कमजोर थी, लेकिन इसके बावजूद मेरा सपना था कि मेरी दोनों बेटियां लखनऊ के सिटी मांटेसरी स्‍कूल में पढ़ें।
एक साल तो किसी तरह घिसटा। लेकिन दूसरी बार कुछ ही महीने के बाद फीस न अदा कर पाने का दंड मेरे बजाय, मेरी फूल जैसी बच्चियों पर पड़ने लगा। लगा जैसे वे भेड़ों के रेवड़ से रिजेक्‍टेट भेंड़ को अलग चुन कर दंडित करने लगी हैं स्‍कूल की टीचरें। कई बार तो लगा जैसे वह मेरी बेटियां नहीं, रोहिंग्‍या हैं। पशुवत व्‍यवहार हुआ।
मुझे बेहद ग्‍लानि हुई। खुद पर गुस्‍सा भी। तय किया कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन इस मांटेसरी स्‍कूल से पिंड छुड़ा ही लूंगा।
थोड़ी भाग-दौड़ की। मेरे मित्र और दैनिक जागरण के नेशनल ब्‍यूरो चीफ प्रशांत मिश्र से दिल्‍ली में मिला। उन्‍होंने कुछ जोड़तोड़ लगाया और सेंट्रल स्‍कूल में इन बेटियों को एडमीशन मिल गया।
आज यह दोनों ही बेटियां लाजवाब हैं। किसी बड़े स्‍कूल-कॉलेज से निकले बच्‍चों से लाख दर्जा बेहतर मेधा, भाषा, व्‍यवहार और जीवन्‍तता-सरलता है उनमें।
अब जरा राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र में एक बड़ा नामी स्‍कूल का किस्‍सा सुन लीजिए। स्‍कूल का नाम है रियान इंटरनेशनल। खबर है कि फीस नहीं देने पर बच्चों को स्कूल से निकाल बाहर कर दिया गया। परिजनों का आरोप है कि बच्चों को तीन दिन से स्कूल के स्टोर रूम में बिठाकर रखते थे। फिर शाम को छोड़ देते थे।
अब सवाल यह है कि यह हालत ही क्‍यों लाते हो। सरकारी स्‍कूल से बढिया कोई शैक्षिक संस्‍थान नहीं होता है। हां, वहां संस्‍थान और एटीच्‍यूट भले ही कम होता हो, लेकिन बच्‍चों के प्रति अपने प्रशिक्षणप्राप्‍त शिक्षक निजी स्‍कूलों से लाख दर्जा बेहतर हैं। वहां के बच्‍चों को रट्टा लगाने वाला तोता-घोड़ा नहीं बनाया जाता है, इंसान बनाया जाता है। बच्‍चों को बखूबी सिखाया जाता है कि वे अपने स्‍कूल ही नहीं, समाज के लोगों, बच्‍चों के साथ सामंजस्‍य स्‍थापित करें। वहां किताबों के साथ खेल और प्रयोगशीलता भी सिखायी जाती है। जूता, ड्रेस, भोजन भी फ्री में।
सच बात तो यही है कि जिन्‍हें अपने बच्‍चों से होता है प्‍यार, वे सरकारी स्कूलों से कैसे करें इनकार। लेकिन सरकारी, व्‍यापारी, नेता और आभिजात्‍य वर्ग के लोग निजी स्‍कूलों के लिए लगातार गिड़गिड़ाते रहते हैं। जबकि जो अपने बच्‍चे के प्रति संवेदनशील हैं, वे अपने बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में करवाते हैं, लेकिन हमारे देश में ही कई अधिकारियों ने अपनी बेटी का दाखिला सरकारी स्कूल में कराकर मिसाल पेश की है। नेफा माने जाने वाले अरुणाचल राज्‍य में चीन का दखल रोकने के लिए नेहरू जी ने केंद्रीय विद्यालयों की एक बडी श्रंखला खड़ा कर दी थी। आज वहां के लोग धड़ल्‍ले से और गर्व के साथ हिन्‍दी बोलते हैं। और वे ही चीन को मुंहतोड़ दे पाने का साहस रखते हैं। वरना …
छत्‍तीसगढ में बलरामपुर के डीएम अवनीश कुमार शरण ने अपनी पांच वर्षीय बेटी की प्राथमिक स्तर की पढ़ाई के लिए सरकारी प्रज्ञा प्राथमिक विद्यालय को चुना है। आंध्र प्रदेश के पार्वतीपुरम में सीतामपेटा एकीकृत आदिवासी विकास एजेंसी के परियोजना अधिकारी आईएएस बी नव्या ने अपने बेटे को सरकारी स्कूल में भर्ती कराया है। उनका बेटा बी श्रीकर प्रतीक छठी कक्षा का छात्र है। प्रतीक जिले के सीतामपेटा मंडल के शासकीय आदिवासी कल्याण आवासीय विद्यालय में पढ़ रहा है। ऐसे एक नहीं, कई नमूने हैं जो साबित करते हैं कि सरकारी विद्यालयों के मुकाबले निजी स्‍कूलों में कोई विशेष दम नहीं।
तो यह है सरकारी स्‍कूलों में शिक्षा ही नहीं, प्रयोगशीलता और क्रियात्‍मक सोच। मैं यह नहीं मानता या कहता हूं कि यह हालत यूपी के सारे प्राथमिक स्‍कूलों में है। लेकिन अधिकांश शिक्षकों की मेधा की तुलना किसी भी निजी स्‍कूल के शिक्षक से नहीं किया जा सकता है, यह मैं दावे के साथ कहता हूं। कारण यह भी कि मेरी मां सत्‍यप्रभा त्रिपाठी, मौसी सुशिक्षा अनुपम और छोटी मां जैसी बुशरा अंसारी यानी मीना बाजी। खास बात यह है कि यह तीनों ही बहराइच के फखरपुर, कैसरगंज, जरवल, जरवलरोड और विश्‍वेश्‍वरगंज के सरकारी स्‍कूल में ही शिक्षक रह चुकी हैं।
हां, जिन्‍हें मुफ्त शिक्षा और दीगर सुविधाएं चाहिए, तो वे जाएं भाड़ में। जाएं, निजी स्‍कूलों में। किसी ने रोका तो है नहीं, लेकिन निजी स्‍कूल और सरकारी विद्यालयों के बीच का मूल्‍यांकन तो किसी भी अभिभावक को करना ही हेगा।
राजधानी से सटा जिला अमेठी की सरकारी शिक्षिका है ममता सिंह। उन्‍होने एफबी पर लिखा है कि:- एक स्कूल है जहां अप्रैल से स्कूल का समय ही बदला है, इरादे नहीं…एक्स्ट्रा क्लास है कि चलती रहेगी..। यह शब्‍द केवल कागज पर छपे नहीं हैं, बल्कि उनसे बने वाक्‍यों ने जो अर्थ इस स्‍कूल और आसपास के लोगों को समझाया है, वह गजब सोच का प्रतीक है।
हाईकोर्ट बार एसोसियेशन के महासचिव रह चुके आरडी शाही के अनुरोध पर मैंने ममता सिंह की वाल खोजी और खंगाली। ममता सिंह सरल-हृदय हैं। जरा उनके शब्‍दों पर गौर कीजिए, उसमें सम्‍भावनाओं का असीम असमान खोजिए। ममता की इस डायरी का एक अंश है:- फूलों से महकते मुख़्तलिफ ख़यालात का गुलदस्ता है संग्रह।
किसी की डायरी को पढ़ना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है उसे लिखना।
जीवन में क्या हो रहा है, अपने आस पास क्या देखा और जब उसे सोचा तो कैसा महसूस किया जैसी कई झंझटों पर तो पार पाई जा सकती है लेकिन एक और वजह है पेचीदगी की।
सारी दुनिया के सामने तो आप कुछ भी हो सकते हैं, अपने-आप से ईमानदार होना बहुत मुश्किल है।
डायरी लेखन की सबसे बड़ी शर्त यही है। परन्तु एक बात जो अच्छी है वो सचमुच बड़ी सच्ची है। यही वो जगह है जहाँ आप सोच सकते हैं, समझ सकते हैं, बोल सकते हैं और लिख सकते हैं बिना किसी रोक-टोक के।
यही किया है ममता सिंह ने और डायरी में लिखी बेतरतीब बातें जब सिलसिलेवार सूरत में सामने आईं तो लगा कोई भी बात बे-वजह नहीं होती।
अमेठी के ही एक प्रायमरी स्‍कूल के शिक्षक हैं शुभम पांडेय। गजब मेधा, अध्‍ययन, लेखन, आलोचनात्‍मक नजरिया और सकारात्‍मक दृष्टि मैंने जितनी शुभम में देखी, उतनी शायद ही किसी और में हो। मुझे जब भी कोई संशय, दिक्‍कत या अर्थ खोजना होता है, तो सीधे शुभम के शरण में चला जाता हूं, और वे तत्‍काल मेरे हृदय-मस्तिष्‍क को कृत-कृत्‍य कर देते हैं। विभिन्‍न उर्जा का असीम भंडार हैं शुभम। जितनी किताबें मैंने नहीं पढ़ी, उससे कई गुना ज्‍यादा अध्‍ययन कर चुके ही नहीं है, बल्कि उसकी समीक्षा भी कर चुके हैं।
सरकारी स्‍कूल तो सकारात्‍मक और सहज प्रेरणा का समंदर है। नेपाल के सीमान्‍त जिला बहराइच के फखरपुर में बेसिक शिक्षा विभाग में शिक्षक हैं मधुलिका चौधरी। हालांकि मैं मधुलिका को नहीं जानता, लेकिन उनके बारे में कहीं पढ़ा था। आज रेयान स्‍कूल की घटना सुनते ही मुझे उनकी याद आ गयी। आजतक के रिपोर्टर रहे सलीम सिद्दीकी से मैंने ऐसी शिक्षक के बारे में पूछा, तो मधुलिका का पता चला। हालांकि मुझे पहले से ही पता है कि सरकारी स्‍कूल में प्रयोगशीलता और आत्‍मविश्‍लेषण की भी असीम संभावनाएं होती हैं। मधुलिका पर एक नजीर देख लीजिए। उन्‍होने लिखा है कि जनपद स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिता चल रही है. इससे पहले संकुल स्तर की और ब्लॉक स्तर की प्रतियोगिताएं हो चुकी हैं, हर जगह लगभग 700 बच्चों के साथ टीचर्स अनुदेशक अधिकारी वर्ग को मिलाकर 900 लोग इकट्ठे हो रहे हैं और कमाल यह है कि यह सब कुछ आपको शून्य निवेश पर करना है।
मतलब शून्य निवेश में ग्राउंड साफ करवाने से लेकर चूना, शील्ड, मेडल, सर्टिफिकेट, बच्चों का खाना पानी, ग्लूकोज, आने जाने का किराया भाड़ा सब कुछ शून्य से. शून्य की इतनी महिमा आपने पहले कभी नहीं सुनी होगी. शैक्षिक संगठनों ने शिक्षक हित में यह बड़ा फैसला लिया कि इससे पहले प्रति विद्यालय जो 1000 या 500 हम लोग साल में एक बार बच्चों के लिए जमा करते थे उस अवैध वसूली पर अब रोक लगेगी. जिस टीचर को ज्यादा चुल्ल हो स्पोर्ट्स की वह साल भर बच्चों के पीछे मेहनत करे और फिर उनके आने जाने आदि को मिलाकर सारा आर्थिक भार खुद ही वहन करे क्योंकि शिक्षक संघ अब कटिबद्ध है कि बच्चों के लिए एक भी पैसा किसी अध्यापक का खर्च नही होने देगा. हां… यह तय हुआ था कि खर्च का भार संगठन खुद उठाएगा जिसके सापेक्ष हर ब्लॉक में 5100 की शुभ राशि देकर उन्होंने पल्ला झाड़ लिया है. अब यह आयोजक टीचर्स पर है कि इस 5100 में वे गूलर के फूल डाल दें या इसे रखने के लिए त्रेता युग से द्रौपदी का अक्षय पात्र मंगवा लें।

दरअसल, दिक्‍कत सरकारी स्‍कूलों में नहीं, अभिभावकों की मानसिकता में है। निजी स्‍कूलवाला फीस को लेकर आपको और आपके बच्‍चे का अपमान कर सकता है। जबकि सरकारी स्‍कूल के शिक्षकों को लेकर पहले ही पहले से ही सारा नकारात्‍मक नजरिया अपने दिमाग में पाले बैठे होते हैं। सरकारी स्‍कूल में अगर कोई स्‍थानीय दिक्‍कत होती है, कोई वरिष्‍ठ अधिकारी या कोई नेता अथवा पत्रकार कोई अभद्रता करता है, तो आप उसको यह मान कर अपने दायित्‍वों की कॉलर झाड़ कर उसे खारिज कर देते हैं। उस पर तनिक भी ध्‍यान देने की जरूरत नहीं समझते। तो बेहतर हो, कि आप निजी स्‍कूल के शिक्षक की डांट-फटकार चुपचाप खाने के बजाय सरकारी स्‍कूल के शिक्षकों की दिक्‍कतों को सामूहिक रूप से पहलकदमी कर उसे दूर करने की कोशिश करें।

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