: पूरी दुनिया में नेपाल, भूटान और अफ्रीका पर अकूत गहन अध्ययन : 80 बरस के हो चुके हैं वर्मा जी, शुभकामनाएं और बधाइयां भी : बेधड़क और ईमानदारी का गजब साम्यता रखता है पत्रकारिता का यह अद्भुत प्रकाश-स्तम्भ : सच बात तो यही है कि कतिपय मामलों में मैं निजी तौर पर वर्मा जी का विरोधी भी हूं :
कुमार सौवीर
लखनऊ : रिटायरमेंट का भयावह डर ज्यादातर लोगों की नींद उड़ा देता है। खास कर उनका, जिनका पूरा जीवन ही भोजन और मैथुन के अलावा ऐश और ऐश्वर्य जैसी दिखावटी मामलों तक सीमत होता है।
माना तो यही जाना है कि सरकारी कर्मचारी 45 बरस की उम्र में ही काइयां हो जाते हैं। वह दस-बीस रुपये तक नहीं छोड़ता। अगर सरकारी अफसर है तो वह ज्यादातर माल काटने में बिजी हो जाता है। मोटी लेंड़ तक गटक लेते हैं। कुर्सी पर बैठ कर पूरा जीवन खौं-खौ करते रहते है। लेकिन उसके बाद या तो कुत्ते के गुस्से से अपनी पैंट गीली कर बैठते हैं, या फिर पूरे मोहल्ले में कुत्ता-प्रॉब्लम को लेकर योगी और मोदी समेत पूरी भाजपा तक को गालियां देने में ही जुट जाते हैं। अगर वह अगर पत्रकार है, तो वह घुड़क कर बेईमान सरकारी अफसर या कर्मचारी से नोट खींचता है, टुकडे से लेकर मालपुआ तक गटक लेता है। अफसर की तरह मुर्गे को फंसाता नहीं, सीधे नोंच लेता है। आम आदमी की कमर तो घूस देने में ही टूट जाती है।
लेकिन पत्रकारिता में आनंद स्वरूप वर्मा शायद इकलौती स्पेशी हैं। जिस तरह का जीवन वर्मा जी ने जिया है, वह बेमिसाल है। वह अध्ययन, विश्लेषण और लेखन को ज्यादा वक्त देते हैं, बजाय बोलने में।
मेरा उनसे रिश्ता 41 बरस पुराना है। मैं उनका अनन्य प्रशंसक हूं और उनके विरोधियों से सख्त विरोध रखता हूं। वजह यह कि वर्मा जी तार्किक हैं, ईमानदार और निष्ठावान है। सक्रिय पत्रकारिता को छोड़े हुए उन्हें करीब 38 बरस हो चुके हैं। एक बार नौकरी छोड़ दी, तो हमेशा के लिए छोड़ दी। अपनी खुद की पत्रिका निकाली, अनुवाद किया। लेकिन सक्रिय पत्रकारिता में कभी भी नहीं वापस गये। आज भी वे पत्रकारिता के सबसे बड़े प्रकाश-स्तम्भ है। दिल्ली के एक समारोह में जब वर्मा जी ने खुल कर कहा कि वे पत्रकारिता का रॉंग-फॉंट हूं, तो मेरा दिल धक्क से बैठ गया। इसलिए नहीं कि उन्होंने गलत बात की थी, लेकिन मैंने पाया कि मैं ही शायद गलत दिशा में हूं। इसीलिए मैं भी अपने पूरे 42 बरस के पत्रकारीय जीवन में केवल साढ़े सोलह बरस ही सक्रिय नौकरी कर पाया हूं। जीवन का एक बड़ा हिस्सा व्यर्थ हो गया, हे राम। बाकी पूरा जीवन केवल संघर्ष में बीत गया। इस दौरान लोग मेरी बात-बात पर लानत-मलामत ही करते रहे। लेकिन सन-11 के बाद से ही मैंने भी पत्रकारिता में नौकरी कोअलविदा कह दिया।
खैर, मूलत: गोरखपुर के रहने वाले वर्मा जी सन-68 के करीब दिल्ली में अपनी आजीविका के लिए आ गये थे, लेकिन वहीं दिल्ली में ही जम गये। छोटा सा मकान में ही पूरा परिवार समा गया, लेकिन यहां से वे पूरी दिल्ली से लेकर नेपाल, भूटान, अफ्रीका और खास कर दक्षिण अफ्रीका में अपनी गहरी नजर से नापते और सूंघते रहे। जेल से रिहा होने के बाद नेल्सन मंडेला ने जो विश्वस्तरीय प्रेस-कांफ्रेंस की थी, वर्मा जी वहां मौजूद थे।
उनसे मेरी मुलाकात लखनऊ में साप्ताहिक शान ए सहारा में पहली बार हुई, जब वे इस अखबार में संयुक्त संपादक बन कर आये थे। उनका पूरा भी अलीगंज के सेक्टर-डी में आ गया। सदा-प्रसन्न भाभी और उनके दो बेटे और एक बेटी से मिलना किसी सौभाग्य जैसा रहा।
लखनऊ में उनका आगमन गोरखपुर के ही स्थापित कवि, साहित्यकार और पत्रकार तडि़त कुमार के प्रयासों से हुआ था। जबकि मैं उस अखबार में प्रूफ रीडर सा अदना सा कर्मचारी था, लेकिन पद था कॉपी-हॉल्डर। यानी प्रूफ रीडर का भी सहायक। आप कह सकते हैं कि क्लर्क से एक इंच ज्यादा। इस नये रिश्ते में वर्मा जी ने मुझे कई अनुवाद का दायित्व दिया। नौकरी से इतर था यह काम। फिर इस अखबार में हुआ हंगामा, मेरे और मेरे साथी श्याम अंकुरम के नेतृत्व में सारे कर्मचारी हड़ताल पर चले गये। और आखिरकार खिसियानी बिलार और पलिहर खेत में फंसे बंदर की तरह फंसे सुब्रत राय ने अपनी सम्पूर्ण छीछालेदर करने के बाद अखबार ही बंद कर दिया।
वर्मा जी फिर दिल्ली वापस चले गये और नोएडा के 22-62 सेक्टर वाले मकान में वापस जम गये। उसी दौरान उन्होंने समकालीन तीसरी दुनिया नामक पत्रिका भी शुरू की। अनुवाद में उनकी जो शैली है, वह किसी भी अन्य दूसरे अनुवादक में नहीं मिली। पूरी तरह त्रुटिहीन काम करते हैं आनंद स्वरूप वर्मा। करीब पैंतालिस बरस पहले उनके सिर का एक बाल सफेद हो गया, तो उन्होंने उसे तोड़ कर एक किताब में सहेज लिया। फिर प्रण किया कि अब कोई भी बाल सफेद नहीं होगा। खानपान सहज है वर्मा जी का, लेकिन सर्दियों में आप उनके पास दो-एक किलो मूंगफली रख दें, तो वह सहज ही निपटा देंगे। शराब पीते हैं लेकिन यदा-कदा।
लेकिन निजी तौर पर मैं उनके कई रवैयों से सख्त विरोध रखता हूं। मसलन, उनका मेरे प्रति नजरिया। इसके बावजूद सरलता के मामले में मेरे प्रति उनका रवैया बेहद सरल और आत्मीय होता है, लेकिन अक्सर उनके व्यवहार में दंभ और अहमन्यता भी चू पडती है। इसके बावजूद सच तो यही है कि वे द्रोणाचार्य हैं, जबकि मैं उनका एकलव्य।
लेकिन आज बात तो आनंद स्वरूप वर्मा के वृहद जीवन को लेकर है !
सच कहूं तो यह मेरी निजी राय नहीं, बल्कि पूरा पत्रकार जगत मानता है कि आनंद स्वरूप वर्मा नेपाल, भूटान ही नहीं, बल्कि पूरे अफ्रीकी देशों तक को लेकर जो गहन अध्ययन रखते हैं, वह किसी अन्य पत्रकार के वश की नहीं। न भूतो, न भविष्यत:।
तो, ताजा खबर यह है कि वे कल 80 बरस के हो चुके हैं। लेकिन उनकी फोटो से तनिक भी अहसास नहीं होता कि इस उम्र को हासिल कर चुके हैं। एक भी झुर्री नहीं है उनके चेहरे पर। ठीक उसी तरह जैसे भाभी जी का चेहरा।
वर्मा जी को मेरी और दोलत्ती परिवार की तरह से ढेर सारी बधाइयों और शुभकामनाएं।
आपने बहुत ही बढ़िया लिखा है। वास्तव में वर्मा जी जैसा कोई पत्रकार नहीं है और भविष्य में भी नहीं होगा।