: अभी भी बड़ा झंझट जुड़ा हुआ है भाजपा में : अलका दास, अपर्णा यादव, नम्रता आदि दौड़ में : जेएनयू की पढ़ी-लिखी और टाइम्स समूह अखबार में लम्बे वक्त तक वरिष्ठ सम्पादकीय पदों में रहीं हैं वंदना मिश्र :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यूपी की राजधानी नगर निगम में दूसरी बार महिला महापौर के लिए होने वाले चुनाव में बाकी पार्टियां अब तक सोच-बिचार तक ही सीमित हैं, जबकि समाजवादी पार्टी ने अपना पत्ता साफ खोल दिया है। ऐलान हो गया है कि जेएनयू की पढ़ी-लिखी, कार्यकर्ता और कई समाचारपत्र और नवभारत टाइम्स में लम्बे वक्त तक वरिष्ठ सम्पादकीय पदों में रहीं वंदना मिश्र सपा के टिकट से लखनऊ के महापौर का चुनाव लड़ेंगी। दोलत्ती के साथ हुई बातचीत में वंदना मिश्र ने साफ भी कह दिया कि वे सपा के टिकट से चुनाव लड़ने जा रही हैं। वंदना जी लखनऊ विश्वविद्यालय में पोलिटिकल साइंस के प्रमुख प्रो रमेश दीक्षित की पत्नी हैं।
लेकिन सबसे बड़ा झंझट तो फंसा हुआ है भाजपा में। भाजपा समझ ही नहीं पा रही है कि वह किसको टिकट दे दे। आप किसी लखनउव्वा शख्स से बात कीजिए, तो आम तौर पर वे पूरी हिकारत के साथ संयुक्ता -भाटिया को सरासर खारिज कर देंगे। साफ कहेंगे कि, काम की न काज की, दुश्मन अनाज की। सड़क के दोनों ओर सायकिल रूट के लिए खम्भे गाड़ने की मूर्खतापूर्ण योजना अखिलेश ने बना कर सड़क की चौड़ाई को संकरा कर दिया था। संयुक्ता ने उन खम्भों को उखाड़ कर उसी जगह पर पक्का फुटपाथ बढा कर सत्यानाश कर दिया। खास बात यह कि यह काम केवल उसी इलाके में हुआ, जहां व्यापारियों की दूकान थी। नतीजा यह हुआ कि यह चौड़ा किया गया फुटपाथ उन दूकानदारों के कब्जे में आ गया। सड़कों से अतिक्रमण हटाने के बजाय उसे और ज्यादा संकरी कर दिया। आरोप है कि कमीशन खोरी सिर पर चढ़ी, और निजी धंधों के चलते नागरिको की सत्यानाश कर डाली। अपने पूरे कार्यकाल के दौरान संयुक्ता भाटिया ने शहर के लिए कोई काम किया हो या नहीं, लेकिन भाजपा की सरकार होने के चलते प्रचार बेहिसाब जुटा लिया। लेकिन यह सिक्का अब दोबारा नहीं चल पायेगा, इतना तय हो चुका है।
कोई चमत्कार हो जाए, तो दीगर बात होगी, लेकिन सच बात यही है कि फिलहाल भाजपा की फिजां में इस कुर्सी के लिए कई नाम नाच रहे हैं। एक तो हैं मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव की बहू और समाजवादी पार्टी से बगावत कर भाजपा का दुपट्टा पहन चुकीं अपर्णा यादव। इसके अलावा करीब चालीस बरस पहले मुख्यमंत्री रहे बाबू बनारस दास के पुत्र अखिलेश दास की पत्नी अलका दास की भी दावेदारी चल रही है। माना तो यही जा रहा है कि महापौर की सीट के लिए भाजपा से मौजूदा डिप्टी सीएम की पत्नी नम्रता पाठक भी ताल ठोंक सकती हैं। सीट महिला होने के बाद इनके नामों पर तेजी से चर्चा हो रही है। दावेदारी तो औरों की भी है, लेकिन इन्हें प्रमुख दावेदार माना जा रहा है। ऐसे में महापौर सीट को लेकर होने वाला चुनाव रोचक होगा।
तो पहली बात तो अपर्णा पर शुरू हो जाए। अखिलेश यादव ने उनको एक बार टिकट दिया था, लेकिन वह हार गयी, इस पर अपर्णा ने अपना दामन भाजपा को दे दिया। सपा में रहते हुए भले ही अपर्णा को कोई सांवैधानिक पद नहीं मिल सका है, यह दीगर बात है। लेकिन अब चूंकि वे सपा को दुत्कार कर भाजपा के सामने अपनी झोली खोल चुकी हैं, ऐसी हालत में कम से कम उनको महापौर का दुर्ग थमाने का टिकट उन्हें दिया जा सकता है, ऐसी सम्भावनाओं से अपर्णा के लोग गदगद हैं। लेकिन अपने कार्य-व्यवहार और पारिवारिक लोगों की हरकतों के चलते अपर्णा खासी विवादित हो चुकी हैं। वैसे भी आम आदमी के मसले पर कोई भी कदम अपर्णा ने अब तक नहीं उठाया।
आपको बता दें कि अपर्णा यादव की छवि जननेता की कभी भी नहीं रही। हां, मुलायम सिंह यादव की बहू होने के बावजूद समाजवादी पार्टी में उनकी चौथी-पांचवें पायदान पर स्थिति मानी जाती रही है। सच बात यह है कि मुलायम की परिवार होने की होने के बावजूद अपर्णा या उनके पति का इटावा, मैनपुरी या आसपास के किसी भी जिले में एक सुई बराबर भी जमीन या हैसियत नहीं बन सकी है। कारण है अखिलेश यादव। रिश्तेदारी अलग बात है और रिश्तेदारी और राजनीति पदों-लाभों को बांटने की प्रक्रिया अलग-अलग। माना जाता है कि अपर्णा मुख्यमंत्री योगी की पसंद हैं। और अपर्णा के पक्ष में योगी के लोगों की दौड़भाग चल रही बतायी जाती है।
यही वजह थी कि अपर्णा ने अपने ससुर के खानदान से अलग हट कर अपना नया साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश की, जहां समाजवादी पार्टी का कोई भी असर, प्रमाण किसी भी कीमत पर न स्थापित किया जा सके। अलग साफ स्वच्च्छ छवि बने और उसी आधार पर राजनीतिक कद मिल सके।
पिछले चार चुनावों में महापौर की सीट पर लगातार भाजपा का कब्जा रहा है। डिप्टी सीएम डॉक्टर दिनेश शर्मा दो बार लखनऊ के महापौर रह चुके हैं। एक चर्चा के तौर पर दिनेश शर्मा की पत्नी जय लक्ष्मी शर्मा को भी यह कुर्सी थमायी जा सकती है। लेकिन दिक्कत यह है कि डॉ दिनेश शर्मा इस पर कत्तई राजी नहीं हैं। खबर है कि डॉ शर्मा ने पार्टी नेतृत्व को साफ कह दिया है कि उनकी पत्नी कभी भी राजनीतिक नहीं रही हैं और ऐसी हालत में महापौर का यह चुनाव कार्यकर्ता के बीच ही होना चाहिए।
लखनऊ के शिक्षा-व्यावसायी रहे डॉ अखिलेश दास ने राजनीति में अपनी धमक लगाने के लिए सारे घोड़े खोल दिये थे। शुरूआत की थी महापौर का पद जीतने से। लेकिन इसके बाद शिक्षा-जगत से होने वाली अपनी अकूत रकम से अखिलेश दास ने एक ऐसा काम कर दिया, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। उन्होंने लखनऊ से सांसद निर्वाचित होने के लिए पूरे संसदीय क्षेत्र के प्रत्येक घर तक होली, दीपावती, ईद, बकरीद, 25 दिसम्बर, सूर्य षष्ठी और करवा-चौथ के त्योहार पर भी आधा-आधा किलो मिठाई और उससे सम्बन्धित सामग्रियां घर-घर पहुंचाने के लिए बाकायदा एक सेना ही तैयार कर ली। लेकिन सांसद बन पाना उनका ख्वाब कभी भी पूरा नहीं हो पाया। हार कर वे बसपा से तीन बार राज्यसभा सदस्य बने। हालांकि चर्चा हर बार चली कि अखिलेश दास ने मोटी रकम खर्व कर ही बसपा से यह टिकट पक्का किया है। लेकिन आखिर में अखिलेश दास ने ही ऐलान कर दिया कि मायावती ने उन्हें पांच करोड़ रुपयों की मांग न करने पर उन्हें राज्यसभा का टिकट बसपा ठुकरा दिया। लेकिन सच बात तो यही है कि अखिलेश दास के इस दावे को कोई भी स्वीकार नहीं पाया, उल्टे मायावती ने आखिलेश पर दगाबाज होने का आरोप जड़ दिया।
कुछ भी हो, अखिलेश दास के साम्राज्य की मालकिन अलका दास का नाम भी इस बार चुनाव में उठाया जा रहा है। कहने को तो मौजूदा डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक की पत्नी नम्रता पाठक का नाम भी लहर में है। लेकिन दिक्कत यह है कि इन दोनों की ही बेहद करीबी सत्ता में खेमाबाजी करने में माहिर बड़े नौकरशाही नवनीत सहगल से है। अब देखना तो यह है कि नवनीत इन दोनों में से किस के पक्ष में पैरवी कर पायेंगे।
इसके अलावा विधायक नीरज बोरा की पत्नी बिंदु बोरा और भाजपा नेता सुधीर हलवासिया की पत्नी माधुरी हलवासिया भी नाम जोरों पर है। और कहने की जरूरत नहीं कि इन सभी के पास खर्च करने का माद्दा बेहिसाब माना जाता है।