बेदम मध्यवर्ग में विभीषिका की तस्वीर है यह झुरान आम

दोलत्ती

: संकट में बुर्जुआ, चरित्र डावांडोल, स्वार्थी, शोषक, दिखावटी और नौटंकी : निम्न-अल्प, मध्य व उच्चवर्ग में कमजोरी असंतुलन की हालत : बैंक में नोटों सी लदी हैं कोर्ट में वकीलों की गड्डियां, अलग हैं अर्चना मिश्र :

कुमार सौवीर

लखनऊ : बहुत संवेदनशील, सक्रिय, मुखर और अपने आसपास होती अधिकांश घटनाओं के प्रति बहुत ही गहरी नजर रखती हैं अर्चना मिश्रा। व्यवसाय के गौर पर अर्चना मिश्र लखनऊ हाई कोर्ट में वकील हैं, लेकिन शायद यही वह खासियत नहीं है कि वह किसी भी घटना को तत्क्षण महसूस कर लेती हैं। किसी भी बैंक में नोटों की तरह ही अदालतों में वकीलों की कई कई गड्डियां नुमा चैम्बर होते हैं। लेकिन अर्चना जैसे वकील जरा कम ही मिलेंगे जिनमें किसी घटना पर तत्काल विश्लेषण कर व्यक्त भी करने की सलाहियत होती है।
इनके छोटा कद, कैसे वस्त्र, स्मित मुस्कान, छोटे बाल और औसत से ज्यादा खूबसूरती पर ज्यादा ध्यान मत दीजिए। उनका मगज यानी बुद्धि उन सब से ज्यादा बेहद तार्किक और शार्प है। कब किस चीज पर उनकी तीखी नजर पड़ जाए, और किसे वे फोटो समेत शाया कर दें, लोग प्रतीक्षा करते हैं, जैसे रशीदा फरहीन की चाय वाली फोटो या स्लोगन। अर्चना मिश्र से मैं कभी मिला नहीं, हाँ फोन से कई बार बात जरूर हो चुकी है। वे मेरी स्नेहभाजन तो हैं ही।
बिलकुल अभी-अभी अर्चना मिश्रा ने न केवल आम की डाल से लटकते सूखे चमडीदार आम की फोटो लगाई, जो पूरी तरह बेहद बुजुर्ग झुरान-लुहान लटक रहा है। यह आम न तो सूखा है, और न ही चटनी पीसने अथवा खटाई सुखाने से दिख रहा है। बस आम का आभास ही दे रहा है। जैसे एक हजार रुपये का वह नोट जो डीमॉनिटाइजेशन के बाद चलन के बाहर होने के बाद आरबीआई के बाहर लगी लाइन में खड़े लोगों के हाथों में बंडल बना हुआ था।
मैं सहमत हूं अर्चना मिश्रा से। मैं सहमत हूं कि उन्होंने एक वकील की नजर और तरीके से डाल से सूखे लटकते आम को लगातार सूखते मध्यवर्गीय चरित्र के तौर पर देखा और पहचाना।
लेकिन मेरी नजर इस फोटो से हमारे देश और समाज में आर्थिक दशा को अलग तरीके से खंगालना चाहती है। इस लगातार सूखते आम में सूखते मध्यवर्ग की दशा है। लेकिन इसमें इस आम, और उस पर व्यंग्य के अलावा एक विषाद, दुख, आक्रोश और दयनीय व्याख्या की जरूरत है। यह घटना समाज के मध्यवर्गीय, उच्च वर्गीय और अल्प-न्यूनतम वर्गीय क्षेत्र में परस्पर लगातार बदलते चरित्र को साफ रेखांकित करता जा रहा है।
जरा गौर से देखिए कि हमारे समाज के निम्न-अल्प वर्गीय और उच्च वर्गीय आय वर्ग वर्गों के बीच मध्यम आयवर्ग का सबसे कमजोर हो जाना समाज के संतुलन में एक डरावना चित्र प्रस्तुत कर रहा है। हालत ऐसी कि रोंगटे तक भस्म हो जाएं।
तो पहले अल्प-न्यून आय वर्ग को देखें, जो देश की करीब आबादी का 75 फीसदी के आसपास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो 80 करोड़ लोगों को अति-निर्धन वर्ग का मान कर पांच किलो अनाज बांट रहे हैं। उसके बाद है मध्यआयवर्ग, जिसका हिस्सा देश की आबादी में 24 फीसदी है। बचा एक फीसदी, जो उच्च आय वर्ग है।
इसमें सबसे हताश और दोगलेपन की हालत तो मध्यआयवर्गीय की है। वामपंथ ने इस वर्ग को बुर्जुआ शब्द से नवाजा है, जिसका चरित्र बेहद डावांडोल, स्वार्थी, शोषक, दिखावटी, और बेहद नौटंकी से भरा होता है। ऐसा, जो अपने से कमजोर लोगों को धोखा देने में माहिर होता है।
मध्यआयवर्गीय लगातार अपने ऐश्वर्य तक ही सीमित होता है। वह चाह कर भी उच्च आय वर्गीय चरित्र और स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता। उनसे भयभीत भी रहता है। उसके उलट अल्प व निम्न वर्गीय आय के लोगों को हेय, घृणा, त्याज्य, निकृष्ट, दुत्कार और अपमानजनक स्तर पर लाकर खड़ा कर देता है। यही नहीं, बल्कि गरीबों को बुलशिट जैसे शब्द से संभाषित करता है। सरेआम भी। मौके मिलते ही उन्हें पीट देना भी मध्यआयवर्ग का खास शगल होता है।
ऐसे शब्द उच्च वर्गीय लोगों के शब्दावली में नहीं होते, बल्कि केवल मध्यवर्गीय लोग ही इन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। जबकि उच्चवर्गीय लोग मध्यवर्गीय लोगों को हल्का सा इशारा या बेहद शाहीन अंदाज़ में आंखों-आंखों में तरेर लेते हैं। फटकारते तक नहीं।
लेकिन यही मध्यवर्गीय लोग जब गरीब, अल्प, निम्न वर्गीय लोगों के साथ बात-बात पर हेय व्यवहार करता है। अक्सर गाली तक से संबोधित करना चाहता है। ज्यादातर आनंद के लिए भी।
अब आखिरी बात। समाज का 24 फीसदी हिस्सा जब झुरान, लुहान या सूखने लगेगा, तो समाज के किस वर्ग में जुड़ेगा। उच्च वर्ग इस सूखे,अशक्त, जर्जर और झुरान मध्य वर्ग को तो अपने आप में आत्मसात तो करेगा नहीं। ऐसी हालत में इस वर्ग को न्यून, अल्प और गरीब वर्ग में ही अपना ठीहा खोजना ही पड़ेगा। और चूंकि गरीब, अल्प, न्यून वर्ग के पास अपने ही संकट बेहिसाब आ रहे हैं, ऐसी हालात में उसकी चादर में कौन, कब घुस जायेगा, किसे कहाँ पता चलेगा? फुर्सत ही कहाँ बचेगी किसी में?
लेकिन ऐसी हालात में समाज केवल दो वर्गों में ही बंटेगा। एक उच्च वर्ग, और दूसरा अल्प वर्ग। यानी 99 फीसदी बनाम एक फीसदी। ऐसे में अर्थ-युद्ध की आशंकाओं को टाल पाना असंभव होगा।
हाँ, इनमें कौन, कितना और कैसे हत-आहत होगा, किसे पता?

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