गीता तो महाभारत का भीष्म-पर्व है, क्रीत ब्राह्मणों ने अनर्थ किया

दोलत्ती

: नतीजा, ग्लानि में पांडवों ने धृतराष्ट्र को साम्राज्य सौंपा : श्रीकृष्ण जैसे नीतिज्ञ भी धर्म पर युद्ध के मैदान में उतरे तो परिणति सर्वविनाश : धार्मिक पाखण्डों विरोधी युद्धों को समझिए, जादू-टोना की किताबें नहीं : भाईचारा ही महाभारत का इकलौता संदेश : गीता प्रेस आर्ष-अनार्ष-1

त्रिभुवन

जयपुर : भारत में बाइबल और ईसाई धर्मग्रंथ छापने के लिए 1556 में पुर्तगाल से प्रिंटिंग प्रेस गोवा में नहीं आई होती तो आज गीताप्रेस गोरखपुर का नाम भी नहीं होता!
मार्टिन लूथर नहीं हुए होते और उन्होंने ईसाइयों के पाखण्डों पर हमले न किये होते तो भारत में न कोई दयानंद होता और न राजा राम मोहन रॉय। केशवचंद्र सेन हों या भीमराव अंबेडकर, या राहुल सांकृत्यायन, सभी तेजस्वी लोग पश्चिम की शिक्षा और वहाँ के न्याय बोध की पैदाइश हैं।
विवेकानंद का नाम भी अमेरिका के भाषण से ही लोकप्रिय हुआ। अगर यह शिक्षा न आई होती तो फुले और पेरियार जैसे क्रांतिचेता भी नहीं हुए होते।
पश्चिम से लोकतंत्र और आधुनिकताबोध का आगमन न होता तो भारत आज भी वर्णाश्रम व्यवस्था को ढो रहा होता।
टॉलस्टॉय नहीं होते तो गाँधी नहीं ही हुए होते। पश्चिम की शिक्षा न मिली होती तो भारतीय क्रांति में आधुनिकता बोध नहीं ही हुआ होता।
तिलक और गांधी ने गीता को आम लोगों तक पहुंचने का माध्यम बनाया। लेकिन क्या उससे वह हासिल हो सका, जो वे करना चाहते थे? गांधी सत्य और अहिंसा की राह पर चल रहे थे; लेकिन क्या यह गीता से संभव हो सका? क्या गीता की शपथ लेकर आज तक भारतीय न्यायालयों में सबसे अधिक झूठ नहीं बोला गया है?
लेकिन इसके बावजूद भारतीय ऋषियों-मुनियों और साधु-संतों ने ऐसा कुछ रचा और भारतीय लोगों ने कुछ इस तरह जिया कि समस्त पौराणिकताओं और प्रतिगामिताओं के बावजूद भारतीय सभ्यता और संस्कृति अद्वितीय है।
आजादी के बाद धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रित होने के बावजूद गांधीवादी और नेहरूवादी प्रभाव वाली प्रारंभिक शासन शैली में न्याय को आधुनिकता में ढालने के लिए धर्म का सहारा लिया गया और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में गीता की शपथ लेकर सत्य बोलने की अपेक्षा की गई। लेकिन अब जब इस ग्रंथ को कोई पुरातनपंथी दल शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने की बात करे तो यह एक विचार विशेष के लोगों को बुरा लगता है। वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि अप्रासंगिक प्रतीकों को एक आधुनिक राष्ट्र के संविधान में थोपने का काम अंतत: भारतीय लोकतंत्र और भारतीय धर्मनिरपेक्षता के लिए भारी और दु:खद साबित हो रहा है।
इस देश के भीतर पुरातनपंथ के प्रेत को जीवित करके अपनी राजनीति को सशक्त करने का काम काँग्रेस ने बहुत छद्म तरीके से शुरू किया था और भाजपा आज इसे बहुत खुलकर कर रही है। काँग्रेस ने इसे सर्वधर्म समभाव के नाम से किया। लेकिन कोई नहीं मान सकता कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सर्वधर्म समभाव है। धर्मनिरपेक्षता का सीधा-सा और सरल-सा अर्थ है कि राजकाज के किसी भी काम में किसी भी धर्म, किसी धर्म विशेष् के कर्मकांड और उससे संबंधित प्रतीकों या औपचारिकताओं का कोई लेनादेना नहीं।
सच बात तो यह है कि गीता अपने आप में कोई ग्रन्थ ही नहीं है। वह महाभारत का हिस्सा है। लेकिन महाभारत के भीष्म पर्व के कुछ अध्यायों को भारतीय शासकों की रक्षा में तैनात ब्राह्मण आचार्यों ने इसलिए अलग किया था ताकि वे धर्म के नाम पर भाई को भाई की हत्या के लिए इस ग्रन्थ के माध्यम से तैयार कर सकें।
महाभारत का सारांश यह है कि न्याय-अन्याय और धर्म-अधर्म के नाम पर किये जाने वाले युद्ध अंततः नरसंहार और आत्मविनाश साबित होते हैं।
गीता नहीं, महाभारत को आख़िर तक पढ़ने से यह पता चलता है कि मनुष्य को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, शासक हो या जन सामान्य—प्रेम, सौंदर्य, बल, कला, दक्षता, शिक्षा आदि गुणों में से किसी का भी न तो अभिमान करना चाहिए और न ही दुरुपयोग।
आप प्रेम भी करते हैं तो सबसे समान करें। आप मित्रों से भी समान बरताव करें और पुत्र-पुत्री से भी। न करेंगे तो आप अपनी जीवन यात्रा के दौरान नारकीय अंधकूप में गिरेंगे।
महाभारत बड़ी खूबसूरती से बताता है कि सबसे समान प्रेम करना, बल का दुरुपयोग न करना, अपनी शक्तियों, अपने सौंदर्य आदि का अभिमान नहीं करना, अपने बाहुबल या धनुर्बल का किसी पर धौंस न जमाना, कुत्ते तक से प्रेम करना और अपने प्रिय के साथ के लिए स्वर्ग को भी त्याग देना चरम मानवीय गुण है।
गीता के अध्याय मनुष्य को धर्म और अधर्म के लिए शत्रु में प्राणों की पिपासा तक पैदा करते हैं; लेकिन महाभारत का अंतिम सारांश यह है कि श्रीकृष्ण जैसे नीतिज्ञ और धर्मज्ञ तथा अर्जुन जैसे विलक्षण धनुर्धर भी न्याय या धर्म के नाम पर युद्ध के मैदान में उतरते हैं तो अंतत: परिणति सर्वविनाश है। इसीलिए पांडव विजय के बावजूद धृतराष्ट्र को ही अपना साम्राज्य सौंपते हैं और धृतराष्ट्र उसे लेने को तैयार नहीं होते; लेकिन अपने कुल के सर्वनाश के परिणामस्वरूप आत्मग्लानि के मारे पांडव धृतराष्ट्र को सत्ता सौंपकर अपने संतप्त मन पर पश्चाताप के कुछ छींटे डालते हैं।
गीता पर सोशल मीडिया में बहस चल रही थी तो मुझे कुछ युवा मित्रों ने आग्रह किया कि इस विषय पर मैं भी अपने विचार लिखूँ। मैं किसी भी मित्र, अग्रज साथी या विद्वानों के विचारों के प्रतिरोध या समर्थन में खड़ा होने का दुस्साहस नहीं कर रहा। मेरा ऐसा ज्ञान बोध भी नहीं है। मैं यहाँ बस इस विषय में अपने विचारों को प्रस्तुत कर रहा हूँ; क्योंकि धर्मशास्त्र का विद्यार्थी हूँ; लेकिन यह मानता हूँ कि आज न तो प्राचीन धर्म प्रासंगिक है, न जाति व्यवस्था और यहाँ तक कि न आज के राष्ट्र-राज्य ही प्रासंगिक रह गए हैं।
हम एक अन्तरनिर्भर दुनिया में रहते हैं और एक-दूसरे से सीखते हैं। हम एक विकास की अवस्था को जीते हैं। यथास्थितिवादी और पुरातनपंथी विचार, विचारधाराएं और प्रतिष्ठान मानव समाज की बेहतरी नहीं कर सकते। भले वे किसी भी धर्मग्रंथ के नाम से चलाए जाएँ। दुनिया में सबसे बड़े नरसंहारों के आयोजक किसी न किसी धर्म या धर्मग्रन्थ की आड़ लेते ही रहे हैं। साफ़ तौर पर कहूँ तो धर्म का किसी समय कर्तव्य का पर्याय था। इसलिए आज भी बहुत से लोगों के लिए धर्म निजी तौर पर कर्तव्य का प्रतीक है और सैद्धांतिक तौर पर यह एक नैतिक आचार संहिता का प्रतीक रहा है। (क्रमशः-2)

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