दर्जनों लुटेरे डॉक्टरों को जूता से हड़काया, सब भाग निकले

बिटिया खबर

: रवीश कुमार, द वीक, द वायर समेत सभी जगह पर अब मैं छाया हुआ हूँ, अच्छा लग रहा है : कप्पन की जमानत पर सभी ने मुझे सिर-माथे पर बिठाया : पत्रकारिता साधना है, सतत अभ्यास जरूरी : शुक्रिया दोस्त ! पत्रकारिता ने देश-विदेश में मेरा डंका बजा दिया :

कुमार सौवीर

लखनऊ : जेल से अब रिहा हो चुके पत्रकार सिद्दीक कप्पन की जीत दरअसल मेरी निजी सफलता है। लेकिन यह भी सच है कि सिद्दीक कप्पन तो एक माध्यम और एक आधार मात्र बन गया मेरे युद्ध का।
इसके पहले भी मैं जायज, स्पष्ट, बेलौस, निर्भीक, मुखर होने के चलते प्रताड़ित होने वाले पत्रकारों के पक्ष खड़ा ही रहा। रक्त का तकाज़ा भी तो है मेरे डीएनए में। नाना स्वर्गीय पृथ्वीराज शर्मा, पापा स्वर्गीय सियाराम शरण त्रिपाठी का खून मेरी रगों में है, जो सच को सच मानने से मुझे कत्तई नहीं मोड़ सकता। केवल सच, शाश्वत सत्य, और विशुद्ध सनातन सत्य। जो सच्चा है, मैं उसके साथ हमेशा रहूंगा। पत्रकारिता के नाम पर दलाल बने लोगों की कलई हमेशा उतारता ही रहूंगा।
कोई सात बरस पहले शाहजहांपुर में मारे गए जागेन्द्र सिंह के लिए मौके पर एक हफ्ते तक अकेले ही जूझता रहा। जबकि पूरी सरकार, अफसरशाही और लखनऊ से लेकर शाहजहांपुर के पत्रकार भी तब या तो सत्ता के कदम चाट रहे थे, या फिर दलाली पर आमादा थे। उप्र मान्यताप्राप्त पत्रकार समिति के तब के अध्यक्ष ने तो तब सत्कार के पक्ष में इस हत्याकांड को दबाने की साजिशें ही रच डाली थीं। यह बात तो वहां के पत्रकार ने खुद मुझे बताई थी।
इसके पहले भी सन-84 में साप्ताहिक सहारा के कर्मचारियों और पत्रकारों पर सुब्रत राय की बदतमीजी और उत्पीड़क हरकतों पर मैने जबरदस्त जंग लड़ी। सुब्रत राय की बदतमीजी का जवाब मैंने देना शुरू कर दिया, तो एक दिन सुब्रत राय तो भाग गया। लेकिन जयब्रत राय, केके श्रीवास्तव व अब्दुल दबीर को पीएसी की सुरक्षा वाले घेरे में होने के बावजूद दफ्तर में घुस कर मैंने बाकायदा जमीन पर पटक कर पचीसों लातों से पीटा था। दैनिक जागरण के प्रबंधक रहे विनोद शुक्ला पर आँदोलन छेड़ा। हालांकि विनोद शुक्ला ने बाद में मुझसे जम कर बदला लिया। नतीजा कई बरसों तक मैं अपने परिवार के साथ निहायत बदहाली-कंगाली में जीने पर मजबूर रहा।
हिंदुस्तान बनारस के स्थानीय संपादक वीरेश्वर कुमार को सन-07 में उसके भरे दफ्तर में ही खेदा, गरियाया और दौड़ाया। सन-11 में एसटीवी के मालिक और हरियाणा के गृहमंत्री गोपाल कांडा को फोन पर मैंने साफ कर दिया कि, “अगर तुम गुंडा हो तो उसका जवाब देने के लिए मैं तुमसे बड़ा गुंडा बन जाऊंगा, इतना समझ लेना।” मारे गुस्से में मैंने एसटीवी का कैमरा और सब सामान जब्त कर लिया। जस का तस। बाद में नोटिस देने के बाद मैंने वह सारा सामान नीलाम कर डाला।

महुआ न्यूज में रामपुर के रिपोर्टर को बचाने में रामपुर गया, तो अदालती गड़बड़ से मुझे सीजेएम ने हवालात में बंद कर दिया। मैने भारी अदालत में हंगामा किया। तो सीजेएम ने अपनी गलती मानते हुए मुझे ससम्मान रिहा कर दिया। अपने चैम्बर में जलपान भी कराया। जौनपुर के सीजेएम ने राज्यमंत्री ललई यादव का पता कुख्यात अपराधी परसू यादव पर लिख दिया। मैने छापा, तो सीजेएम खिसिया गया। यह होती है पत्रकारिता। दलालों पर तत्काल हमला बोलो, सब भाग जाएंगे। जैसे दर्जनों डॉक्टर मेरा तेवर देखते ही भागे। एक डॉक्टर तो एक पत्रकार का काफी रुपया ले कर भागा है। दूसरा खून-चूस अपनी बड़प्पन में चूर है। पत्रकारों के बल पर डॉक्टरी चलाने की हेकड़ी करता है। एक लुटेरे चर्म रोग विशेषज्ञ बकलोल को उसके क्लिनिक में एक लफंगे गुंडे ने जूता फेंक कर मारा, कि डॉक्टर का सिर ही जमीन पर जा फटा। सरेआम पीटा गया, जबकि उसकी पैरवी करता डॉक्टर-नेता अपना मुंह ताकता ही रहा। झगड़ा, आईएएम कब्जाने का है, मकसद ब्लडबैंक के माध्यम से घर को बड़ा बैंक में तब्दील करने का है।
बनारस के हिंदुस्तान की नौकरी में मुझे जौनपुर का ब्यूरो चीफ बनाया गया था। जहां कुछ दबंग, बदतमीज, गुंडे और अराजक हो चुके करीब चार दर्जन बड़े मालदार डॉक्टर एक दो-कौड़ी के दुराचारी पत्रकार की आवाज में मेरे दफ्तर में धमकाने पहुंच गए। सन-05 को एक दिन था। गर्मागर्मी बढ़ी, तो मैने भी साफ ऐलान किया कि, “मैं पत्रकारिता करता हूँ, और तुम लोग हो लुटेरे, निर्लज्ज और हत्यारे डाक्टर। लेकिन जान लो कि तुम जैसे छिछोरे बेहूदा गुंडों से निपटने का मुझे पूरा अनुभव और दमखम है। बदतमीजी करोगे, तो सीधे जूतों से ही बात करूंगा।” कहने की जरूरत नहीं कि मेरा यह तेवर देख कर वे सारे गुंडे डॉक्टर फौरन वहां से नौ-दो-ग्यारह हो गए थे। जौनपुर के सफेदपोश लेकिन हत्यारे, लुटेरे व घटिया डॉक्टरों पर अब लिखूंगा जरूर। बलिया के पत्रकारों को भी मैने कस कर हौंका, सब अपनी पूंछ अपने पिछवाड़े में घुसा कर दुबक गए। वहीं के बसन्तपुर पर्यटन स्थल पर स्कूली बच्चियों से अभद्रता करते दो गुंडों को मैंने सारे आम जमकर पीटा। उस मौके पर डॉ जनार्दन यादव और यशवंत सिंह भी मौजूद थे।
42 बरस हो गए हैं मुझे पत्रकारिता के खुले आसमान के नीचे अन्न, हवा-पानी और सम्मान लेते हुए। लेकिन जूझता ही रहा। हालत यह है कि अपनी पूरी पत्रकारिता-जीवन में मैं केवल स्वीट साढ़े सोलह बरस ही नौकरी कर वेतन हासिल कर पाया। अब भी स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा हूँ। लेकिन अपनी शर्तों पर ही। न तो विज्ञापन लेता हूँ। न फीस जैसा मेहनताना लेता हूँ। न चंदा लेने की इच्छा पानी और न ही दक्षिणा लेने की ब्राह्मण-लालसा। बस, भिक्षा लेता हूँ, जिसे अधिकांश लोग देने में मुंह बिचकाते हैं। भारी संकटों में रहता हूँ, पर खरामा-खरामा जीवन निकल ही रहा है।
आज सिद्दीक कप्पन के मामले में मेरी कोशिश पर पूरी पत्रकार बिरादरी ही नहीं, बल्कि समाज का एक बड़ा हिस्सा मेरी तारीफ कर रहा है। हर ओर मेरी ही चर्चा दिख रही है। जाहिर है, कि मैं भी वाकई गदगद हूं। लेकिन सच तो यही है कि अपने को व्यक्त करने के लिए शब्द ही नहीं बचे हैं मेरे पास कुछ कहने को।
लेकिन इसके बावजूद मैं उन सभी लोगों के प्रति आभार जरूर व्यक्त करना चाहता हूं, जो मेरे साथ हैं और उन्हें भी, जिन्होंने मुझे ऐसा कुमार सौवीर बनने में साहस दिया। मसलन, रवीश कुमार, द वीक की पूजा अवस्थी, फिल्मकार-पत्रकार विनोद कापड़ी, अंशुमान त्रिपाठी, डॉ उपेंद्र, वीरेंद्र सेंगर, द वायर के याकूत, सत्यहिन्दी के कमर वहीद नकवी, शीतल पी सिंह, दिल्ली प्रेस क्लब के अध्यक्ष उमाकांत लखेडा, शरत प्रधान, रामदत्त त्रिपाठी, भारत समाचार चैनल के ब्रजेश मिश्र, मुदित माथुर, परवेज अहमद, तरुणमित्र दैनिक के योगेंद्र विश्वकर्मा, जनसंदेश टाइम्स के विनीत मौर्य, हैदराबाद के द साउथ फेस के श्रीरंग, वहीं रहने वाले और मूलतः जौनपुर निवासी अजय शुक्ल, लोकमत के आनंद वर्धन, बनारसी सुधीर दुबे, श्वसुर सुरेश सलिल, आनंद स्वरूप वर्मा, तड़ित कुमार, उप्र मान्यताप्राप्त पत्रकार समिति के चुनाव में पहली पहली खुलेआम समर्थक न्यूज़-18 की रंजना कुमारी, रूबी सिद्दीकी, इंडियन एक्सप्रेस के असद रहमान, पूर्व डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा, लखनऊ के दिग्गज वकील डॉ एलपी मिश्र, आईबी सिंह, आरडी शाही, जीएल यादव, एसबी मिश्र, पूर्व विधायक विनय शंकर तिवारी, डॉ अंजू सिंह, सीमा सिंह, विमला सिंह, जनार्दन यादव, शिक्षक पीएल टम्टा, पुत्रवत अर्चित परमार, दामाद प्रवीण मिश्र और उनके हमदम शारिब, बेटी बकुल और साशा, नाती भावार्थ उर्फ च्यवनप्राश और यथार्थ उर्फ जमालगोटा के साथ रंजीत-रजनी, शुभम, दीपक कबीर, सुशील दुबे, केके दुबे, पवन उपाध्याय के साथ ही सभी ने मुझे जितना साहस दिया, उसी का परिणाम है, कि मैं इतनी गम्भीर बीमारी के बावजूद सीना ताने खड़ा हूँ। आवाज, चेहरे और बाएं बदन पर आंशिक फालिज का असर तो मौजूद है, लेकिन दिल-दिमाग में जोश की बेहिसाब लहरें उमड़ रही हैं। बेहद उत्साहित और ऊर्जावान बना हुआ हूँ। प्रवीण, बकुल और साशा न होतीं, तो मैं उसी दिन मर चुका होता।

इन सभी का दिल से आभारी हूँ, और हमेशा भी रहूंगा।

1 thought on “दर्जनों लुटेरे डॉक्टरों को जूता से हड़काया, सब भाग निकले

  1. आपके साहस को प्रणाम सर, ईश्वर आपको जल्द से जल्द सेहतमंद करे-आमीन

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