पुरातनपंथी प्रेत को कांग्रेस ने छद्म-श्वास दी, भाजपा ने प्राण

दोलत्ती

: केवल भूत-प्रेत, अंधविश्वास और संप्रदायिक, कभी छुआछूत और कन्या-भ्रूण पर बोला प्रेस? : दयानंद ने जिन सर्वनाशी ग्रंथों की सूची बनाई, गीताप्रेस ने उनको ही छापा : गीता में राजा की महिमा है, डेमोक्रेसी सोच हरगिज नहीं: अप्रासंगिक हैं बाइबिल, कुरान, वेद, पुराण, एक्सपायरी डेट चेक कर लें: गीताप्रेस और आर्ष-अनार्ष -2 :

त्रिभुवन

जयपुर: बाइबिल न होती तो आज गीताप्रेस भी न होता…। न होने की यह कड़ियां सिर्फ़ गीता या बाइबिल से या पश्चिम से पूर्व तक ही नहीं हैं। कुछ मित्रों का यह विचार भी हो सकता है कि गीता न होती तो बाइबिल भी न होती। लेकिन इस बहस को छोड़ भी दें तो यह सारा ज्ञान एक तरह से मानव समाज का ज्ञान है। प्रासंगिक ज्ञान और अप्रासंगिक ज्ञान।
बात धर्म की थी और बात गीता प्रेस गोरखपुर को पुरस्कृत करने की थी। लेकिन गीताप्रेस गोरखपुर क्या प्रकाशित कर रहा है? वह जो कुछ प्रकाशित कर रहा है, कितना भी कलात्मक और ऐतिहासिक हो, वह भारत के एक ख़ास तरह के एक प्राचीन धार्मिक साहित्य का लागत मूल्य से भी कम पर प्रसार कर रहा है।
हर भारतीय नागरिक, भले वह सनातन धर्म के प्रति आस्था रखता हो या न रखता हो; आस्तिक हो या नास्तिक; लेकिन वह थोड़ा-सा भी विवेकशील है तो भारत की प्राचीन समृद्ध परंपराओं और उसकी सांस्कृतिक थाती को अत्यंत सम्मान से देखता है। लेकिन आज कोई भी वैज्ञानिक और विवेकशील सोच वाला व्यक्ति वैदिक, सनातन या आज हिन्दू कहे जाने वाले धर्म को (ठीक इसी तरह ईसाई, इस्लाम, बौद्ध आदि धर्मों को भी) न तो अलौकिक मान सकता है और न ही इस युग में प्रासंगिक। वह प्रासंगिक नहीं है तो पुरस्करणीय कैसे है? ये धर्म किसी के भी अंतःकरण से संबंध रख सकते हैं; लेकिन इनसे इस युग की पीढ़ियों को शासित नहीं किया जा सकता!
दैवीय शक्तियों पर आधारित गणराज्य, वैसी राजनीति, वैसी शासन व्यवस्था, आखेट पर आधारित अर्थव्यवस्था, उन्मुक्त यौन संबंध, व्यभिचार, बहुपत्नी प्रथा, बहु पतिप्रथा, नारी को पिता, पति और पुरुष के अधीन रखने वाली व्यवस्था, वर्णाश्रम व्यवस्था, छुआछूत, पंथवादिता, शैवों-शाक्तों वाली व्यवस्था आदि क्या आज की आधुनिक व्यवस्था से अंश भर भी मेल खाती है?
आज हालात तो यह हैं कि धर्म का नाम लेकर राजनीति करने वालों ने ही धर्म के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले आदर्शों और मानदंडों को त्याग दिया है और वे पूरी तरह पश्चिमी जीवन मूल्यों को जी रहे हैं।
गीताप्रेस गोरखपुर कब से गोरक्षा की बातें कर रहा है; लेकिन कोई पूछे कि गौ माता के बछड़ों के अंडकोशों को यातनापूर्ण तरीकों से नष्ट करके खेती करने की ‘महान’ भारतीय परंपरा के दौरान गौपुत्रों की संवेदनाओं पर क्या कभी कोई पंक्ति प्रकाशित की गई? गोरक्षा का अभियान चलाने वालों ने क्या कभी यह देखा कि जिस तरह भारतीय बालिकाओं की भ्रूणहत्या में लिप्त रहे, उन्हीं लोगों ने किस तरह गौ माता के पुत्रों को नष्ट होने दिया। इसीलिए गौभक्तों के यहाँ सौ गाएं मिलेंगी तो गौपुत्र पांच भी नहीं। सबके सब बछड़े कहाँ चले जाते हैं? लेकिन गीताप्रेस ने कभी इस तरह की गोरक्षा के प्रति संवेदना वाली पुस्तकें प्रकाशित नहीं कीं।
ऐसी संवेदना मिलेगी, लेकिन वह जांभोजी के जी के यहाँ। वे पशुओं के प्रति इस तरह की संवेदनाओं को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाते हैं। आज भी बिश्नोई धर्मावलंबी इन मूल्यों का पालन करते हैं।
गीताप्रेस भारतीय संस्कारों और वर्णाश्रम व्यवस्था की महत्ता को रेखांकित करने वाले सैकड़ों ग्रंथ छापता है; लेकिन हम देखते हैं कि उन संस्कारों की वक़ालत करने और उनके नाम पर वोट लेने वाले भी क्या कभी उन मूल्यों को जीवन में उतारते हैं?
गीताप्रेस गोरखपुर भले आज के कुछ साहित्यकारों में नॉस्टेल्जिया पैदा करे; लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि गीताप्रेस गोरखपुर को आधुनिकतावादी तो क्या, सुधारवादी और पुनरुत्थानवादी कहलाने वाले आर्यसमाजी तक पसंद नहीं करते थे। मैंने अपने घर में कभी गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तकें नहीं देखीं।
एक बार मुझे हमारे घमूड़वाली के सरकारी स्कूल में गीताप्रेस से छपा रामचरित मानस का गुटका दिया गया था। स्कूल में ये गुटके बच्चों में अच्छे संस्कारों के प्रसार के नाम पर बांटे गए थे। मैं घर आया और रामचरित मानस की वह सुंदर पुस्तक पिता को सौंपी तो वे बोले, स्कूलों में अनार्ष साहित्य का वितरण चिंता की बात है। कोई आर्ष पुस्तक भी देते तो संतोष होता!
मैंने आर्ष और अनार्ष शब्दों को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की तो पिता बोले, जो ऋषिप्रणीत है, विवेकानुकूल है, जो मानवमुक्ति का माध्यम है, वह आर्ष और जो पुरातनपंथी, कुतर्कपूर्ण, अवैदिक, ऋषियों की भावनाओं के प्रतिकूल है, वह सब अनार्ष।
पिता दयानंद के विचारों से प्रभावित थे और बहस-मुबाहिसों में ख़ूब हिस्सा लेते थे। लेकिन वे यज्ञ और हवनवादी नहीं थे। भारतीय आर्ष परंपरा में वेद, उपनिषद और षड्दर्शन को ही माना गया है, ऐसा मुझे मेरे पिता और बाद में घर में आने वाले विद्वानों ने बताया था।
हालांकि आज आर्यसमाज पूरी तरह सिर के बल खड़ा हो गया है और वह अपने प्राचीन विवेकशीलता और तर्कवादिता के मूल्यों को तिरोहित कर संघ परिवार और हिंदुत्ववाद की राह पर बिछा हुआ है। इस परिदृश्य को आज अगर दयानंद सरस्वती देख लेते तो वे आज के आर्यसमाजियों के प्राण अपनी एक ललकार से निकाल देते।
दयानंद सरस्वती ने भारतीय विद्यार्थियों का सर्वनाश करने वाले जिन ग्रंथों की एक लंबी सूची बनाई और जिन्हें जालग्रंथ कहा था, गीताप्रेस उनको ही प्रमुखता से प्रकाशित करता है।
आज समूची दुनिया में जिस तरह गीता, कुरआन और बाइबिल के माध्यम से रूढ़िवाद फैलाया जा रहा है और जिस तरह इनके प्रकाशन के केंद्र कट्‌टरतावादियों के प्रश्रय पाते हैं, उसने मानव जाति के गतिशील और आत्मसंस्कृति को विकसित करने वाले मूल्यों का तिरोहण किया है। गीताप्रेस की पुस्तकें भाग्यवाद और कर्मसिद्धांत को बढ़ावा देती हैं, जो सनातन धर्म का मूल विश्वास है।
कर्म सिद्धांत दरअसल देखा जाए तो भारतीय संविधान के मूलभूत मूल्यों और मंतव्य का खुला उल्लंघन हैं। भारतीय संविधान विज्ञान की संस्कृति की राह दिखाता है, जो भारतीय नागरिक को अपने जीवन में हर चीज़ की जाँच-पड़ताल और शोध-अनुसंधान कर निर्णय लेने के लिए तैयार करता है।
इसके विपरीत कर्म सिद्धांत यथास्थितिवाद, निष्क्रियतावाद और भाग्यभरोसे बैठे रहने वाली मानसिकता तैयार करता है, जो आज की मनुष्य विरोधी राज्यव्यवस्था और उस पर पलने वाले लोगों को प्रश्रय देता है।
गीताप्रेस के ग्रंथ देश के आम नागरिक को यह संदेश देता है कि वह राजा को ईश्वर का दूत माने और अपने आपको उसके पुत्र-पुत्री समझें।
गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तकों और कल्याण के विभिन्न अंकों को पढ़ने से जो बोध होता है, वह साफ़ तौर पर छुआछूत, नारी उत्पीड़न, पुरुष वर्चस्ववाद, सतीप्रथा, भ्रूणहत्या, मानव दासता आदि के नकारात्मक मूल्यों का पोषण करता है।
शायद देश में सांप्रदायिकता, कन्या भ्रूणहत्या और जातिपांति का इतना उभार न होता अगर गीता प्रेस जैसे प्रकाशन पुरातनवादिता को इतना घर-घर न पहुंचाते। गीताप्रेस के मूल्य अगर इतने पवित्र होते तो गीता का हर सांस के साथ प्रचार करने वाले गांधी कदापि हनुमानप्रसाद पोद्दार से दूरी नहीं बनाते। छुआछूत का कट्‌टरसमर्थक होने के कारण ही गांधी उनसे दूर हुए। छुआछूत एक शब्द लगता है, लेकिन यह शब्द नहीं, भारतीय इतिहास के चेहरे और आत्मा पर अमानुषिकता का वह दाग है, जो शायद ही कभी मिट सके।
गांधी भारत आए तो सबसे अधिक प्रभावित किया था स्वामी श्रद्धानंद ने। श्रद्धानंद उस समय हिन्दू मुस्लिम एकता के सबसे बड़े प्रतीक थे। इतने बड़े कि उन्हें जामा मस्जिद से भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया। वे उन दिनों महात्मा मुंशीराम थे। लेकिन जैसे ही स्वामी जी ने शुद्धि आंदोलन शुरू किया तो गांधी ने उनसे तत्काल दूरी बना ली। गांधी ने ऐसा बहुत से लोगों के मामले में किया। लेकिन गांधीजी ने शायद ही कभी सिद्धांतों से समझौता किया हो
यह अलग बात है कि कालांतर में गांधीवादी कांग्रेस के लोगों ने हिन्दुत्ववादियों और मुस्लिम रूढ़िवादियों को खुश करने तथा पाकिस्तान के विरुद्ध युद्धोन्माद को भड़काए रखकर सांप्रदायिकता को मजबूत किया और देश में अपने विनाश और हिंदुत्ववादी शक्तियों के लिए पथप्रशस्त किया।
इस मामले में न लोहिया पीछे रहे और न अन्य राजनीतिज्ञ। कभी गणेश पूजा, कभी गीता के संदेश और कभी रामायण मेला आयोजित कर-करके भारतीय राजनीति में जिस तरह राम को स्थापित किया गया और रामराज्य की वकालत की गई, उसने हमारे समस्त आधुनिकता बोधों को तिरोहित कर दिया और हमारे नेताओं ने जैसा खाद-पानी और बीज इस भारतीय उर्वरा भूमि में डाला, उसमें आज वही फसल लहलहा रही है।
लेकिन विवेकशील साहित्य की विचार-यात्रा अपने भीतर एक विशेष विमर्श लिये हुए यह बताती है कि मानव समाज के वर्तमान का आधुनिकता बोध ही बचा सकता है, पुरातनजीविता नहीं।
वैचारिक सिद्धांतों का यह इतिहास साफ़ बताता है कि धर्म इस सभ्यता के शिशु की सबसे सुंदर किलकारी थी, लेकिन वह किलकारी अगर कोई युवा सभ्यता या प्रौढ़ सभ्यता लगाएगी तो लोग हँसेंगे! यहाँ तक कि हर वैचारिक इतिहास की एक कालखंड तक ही प्रासंगिकता है।
अप्रासंगिकता या एक्सपायरी डेट की दवा हो जाने का यह दर्द जितना धार्मिक रूढ़िवादियों को होता है, उतना ही राजनीतिक और आर्थिक रूढ़िवादियों को भी।
इतिहास आगे बढ़ता है, वह पीछे नहीं जाता। इसके बावजूद कि गीता कभी प्रासंगिक थी, फिर अप्रासंगिक हो गई। कभी कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो क्रांति का आह्वान था। लेकिन आज चीन, उत्तर कोरिया और कम्युनिस्ट देशों में इस घोषणा पत्र के क्या हाल किए गए हैं! सबसे निकटस्थ वैचारिक दर्शन आज अप्रासंगिकता का दबाव झेल रहे हैं तो गीता कहाँ से प्रासंगिक होगी!
यह वेद, पुराण, गीता, बाइबिल और कुरआन की अप्रासंगिकता का युग है। जो भी इनके साथ आज के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय तंत्र या राजनीतिक जीवन को चलाने की कोशिश करेगा, वह प्रतिगामी और आत्मविनाश के मार्ग को ग्रहण करेगा। इसके उदाहरण हर उस देश और समाज में जीवंत बिखरे पड़े हैं, जहाँ-जहाँ इनका प्रयोग किया गया।
आज जब भारतीय लोकतंत्र जिन परिस्थितियों का सामना कर रहा है और जब हिंदुत्व के धनुष की राजनीतिक प्रत्यंचा जब संपूर्ण भारतीय सांस्कृतिक अतीत से अर्जित गरिमा पर तनी हुई है, ऐसे समय में एक प्रतिगामी साहित्य का उत्पादन करने वाले संस्थान को भारत सरकार की ओर से पुरस्कृत करना हमारे संवैधानिक मूल्यों को आहत और तिरोहित करता है।
भारत सरकार अगर इस संस्थान की जगह किसी विज्ञान संस्थान, साहित्य, कला या संस्कृति का काम करने वाले किसी अनुसंधान आधारित संस्थान को पुरस्कृत करता तो शायद संतोषप्रद होता। देश की बौद्धिक चेतना को झकझोरने और ज्ञान की रक्तवाहिनियों में कंपन लाने वाली किसी संस्थान की तलाश की जानी थी। पुरस्कार तो ऐसे ही संस्थानों को दिए जा सकते हैं, जो हमारी मानसिक चेतना या हृदयों में कुछ उथलपुथल पैदा करे।
लेकिन गीताप्रेस से प्रकाशित साहित्य तो पूरी सोच को ही जड़वत बनाता है। यह पाप, पलायन और अतीतजीविता के साहित्य को अंधकार की तरह परोसता है। काश विवेक के कोनों को रौशन करने वाले किसी संस्थान की तलाश की होती या झिलमिलाती चेतना की रश्मियां बिखेरते किसी प्रकाशन की तलाश की जाती!
वाकई यह बहुत अंधियारा समय है। साहित्य के चाँद-सूरज और सितारे आज घुप अंधेरों के झींगुरों के सम्मान में झुक रहे हैं। हमारी संस्कृति शोक के क्षणों में हरजस गाने को अभिशप्त रही है और आज भी वही हो रहा है। यह शोक के उत्सव का समय है।
यह ओसभीगे दूर्वादल को बूटों से रौंदने की क्रिया को शौर्य समझने का विभ्रम काल है। यह दु:ख को सुख मान लेने और संताप में संतोष तलाशने का कालखंड है। अब जहाँ गोधूलि शुरू होती है, उसे पौ फटने की संज्ञा देने का समय है। यह शासन सत्ता के अलोकतांत्रिक रुख से नहीं, साहित्य के सबसे प्रमुख आशा निर्झरों के सूख जाने से चिंतित होने और डरने का समय है।

1 thought on “पुरातनपंथी प्रेत को कांग्रेस ने छद्म-श्वास दी, भाजपा ने प्राण

  1. मूर्खता पूर्ण लेख। पढकर अज्ञान से युक्त लेखक की अस्थिर मनोदशा का ज्ञान होता है।

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