: दायित्व-पत्रकारिता की इमारत में लसोढा हैं मृणाल पाण्डेय : ललई यादव ने पूरी गुंडई के साथ दो पत्रकारों का कैमरा पैरों से तोड़ा : निजी नहीं, पत्रकारिता के कुनबे को जोड़ने की अद्भुत शैली बनायी तडि़त कुमार और आनंदस्वरूप वर्मा ने :
कुमार सौवीर
लखनऊ : पत्रकारिता में अगर मैंने सबसे बेमिसाल अट्टालिका की तरह की व्यक्तित्व को देखा, तो वह हैं मृणाल पाण्डेय और आनंदस्वरूप वर्मा। लेकिन पहली बात मृणाल जी पर। मृणाल जी स्वयं में एक महान प्रतिभा हैं। विचार और लेखन में जो प्रवाह उनमें है, वह चमत्कृत कर देने वाला है। प्रतिभाओं को परस्पर चिपकाने में जो महारत उनमें है, वह अपने आप में अविश्वसनीय। दरअसल, वे उस कुशल पाक-शास्त्री की तरह हैं, जो बटलोई-हांडी में पके चावल को महज दो-एक दाने से ही अनुमान लगा सकती हैं, कि हांडी अब तैयार है। मृणाल पाण्डेय न होतीं तो न जाने कब की ढह चुकी होती पत्रकारिता।
सन-2003 वाली अगस्त का शुरुआती दिन था। मैं जोधपुर के पाली-मारवाड़ में दैनिक भास्कर का जिला प्रभारी था। दैनिक हिन्दुस्तान के वाराणसी में स्थानीय सम्पादक शशांक शेखर त्रिपाठी ने मुझे फोन किया। बोले कि तुम्हारे लायक एक बढि़या एसाइनमेंट है। वे चाहते थे कि मैं हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय सम्पादक सुश्री मृणाल पाण्डेय से मिल लूं। उन्हें यकीन था कि मृणाल जी मुझे सलेक्ट कर लेंगी और फिर मैं वाराणसी में फिट हो जाऊंगा। दरअसल, शशांक जी अपने जौनपुर कार्यालय की अराजकता से बहुत नाराज थे और चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति उन्हें मिल जाए, जो उस अराजकता को दूर कर पूरा मामला हैंडल कर ले।
मैं नौ तारीख की शाम को दिल्ली वाले दैनिक हिन्दुस्तान के मुख्यालय में पहुंचा। पता चला कि आज मृणाल जी कई लोगों का साक्षात्कार कर रही हैं। मैं भी लाइन में लग गया। हर पांच-सात मिनट में ही कोई अंदर जाता और फिर कोई दूसरे का बुलव्वा आ जाता। अगला पहले से ही तैयार हुआ था। कोई डेढ़ घंटे बाद मेरा नाम आया। मैं किसी खास तैयारी के साथ तो आया नहीं था, इसलिए कोई कागज-पत्तर ही लेकर आया था। केवल हाथ लटकाते हुए ही मृणाल जी के चैम्बर में घुस गया। पूरे सम्मान के साथ। बातचीत शुरू हुई। पता ही नहीं चला कि किस विषय से बात शुरू हुई और किन-किन मसलों पर होते हुए हमारी बातचीत पहुंचती रही। कहने की जरूरत नहीं कि मैं पहले से ही उनसे प्रभावित था, आज तो बाकायदा साक्षात चल रहा था। इस बीच मृणाल जी ने एक बार चाय भी पिलाई। करीब सवा घंटे बाद मैं उनके चैम्बर से निकला।
शशांक जी ने हाथोंहाथ हमें लिया और बिल्डिंग के बाहर के एक रेस्टोरेंट में ले गये। उन्हें हैरत लग रही थी कि बाकी लोगों से बातचीत तो केवल पांच-सात मिनट में निपट रही है, लेकिन कुमार सौवीर से ऐसा क्या बातचीत हो गयी कि मुझे सवा घंटे से ज्यादा वक्त लग गया। न मैं शशांक जी को संतुष्ट कर पाया और न वे खुद को। सिवाय इसके कि तय हो गया कि मुझे जल्द से जल्द वाराणसी पहुंच जाना है।
बहरहाल, 13 अगस्त-03 की शाम को मैं वाराणसी पहुंच गया। दफ्तर देखा, बातचीत सभी से हुई। शाम को एक होटल में मेरे रहने की व्यवस्था दैनिक हिन्दुस्तान की ओर से कर दी गयी। 14-अगस्त-03 को मैं जौनपुर भेजा गया। कामधाम अपने हाथ में लिया। जिले को समझने की कोशिश की, इसी में दिन बीत हो गया। 15 अगस्त-03 को अवकाश के बाद मैंने नियमित रूप से जौनपुर में डेरा डाल दिया। जाहिर है कि मैं मूलत: रिपोर्टर ही हूं, इसलिए 18 अगस्त-03 को सोंधी में बसपा सरकार के राज्यमंत्री ललई यादव की करतूतों से भिड़ गया। दरअसल, ललई ने पूरी गुंडई के साथ राजेश श्रीवास्तव और दीपू नाम के पत्रकारों का कैमरा पटक कर कर उसे पैरों से तोड़ डाला था। खबरों का ही असर था कि ललई जैसे अराजक नेता ने कुछ ही दिन बाद एक नया कैमरा उन पत्रकारों को पुलिसलाइन के गेस्टहाउस में एक बड़ी बैठक में सौंपा। उसके बाद से ही रिपोर्टिंग पर मैंने चौके-छक्के लगाने शुरू किये। ऐसी खबरें ब्रेक कीं, जिसके बारे में कभी स्थानीय अखबार या पत्रकार न तो समझते थे या फिर सहमते थे। शाहगंज उमाकांत यादव, ललई यादव, परशुराम यादव से लेकर जमालापुर में निर्भय पटेल ही नहीं, बल्कि पारसनाथ यादव, चिन्मयानन्द, मुख्तार अंसारी जैसों पर अभियान छेड़ा, जिस पर बोलना तक गुनाह माना जाता था। कई नराधम लोगों पर लिखा, तो कई ऐसे लोगों पर कलम चलायी, जो वाकई बेमिसाल थे। दिक्कत यह कि उसके पहले तक कोई उनका नाम लेना पसंद भी नहीं करता।
कोई सवा महीना बाद मेरा वेतन आया। मुझे वाराणसी बुलाया गया। कांट्रेक्ट आदि औपचारिकताओं को निपटाने के पहले ही शशांश शेखर जी ने मुझे बुलाया। वे शुरू से ही मित्र और भाई समान रहे थे। लेकिन आज उनका दिमाग घूमा हुआ था। शेखर लगातार अपनी जुल्फों को गोल-गोल करने की अपनी जन्मना आदत में जुटे थे। मानो, अपने दिमाग का स्क्रू टाइट कर रहे हों। वे जानना था कि मैंने मृणाल जी को ऐसा क्या घुट्टी पिला दी कि उन्होंने मुझे इतना उपकृत कर दिया। हालांकि उनकी जिज्ञासा मेरे प्रति स्नेह की ही थी। फिर उन्होंने मुझे बताया कि मैंने तो तुमको 12 हजार रूपयों का सीटीसी प्रपोज किया था, लेकिन मृणाल जी ने इंटरव्यू के बाद उसमें मेरे पैकेज में तीन हजार रुपये और जोड़ कर उसे 15 हजार का सीटीसी बना दिया। इसकी भनक तो शेखर को भी मिली, लेकिन जब वेतन मिला, तो शेखर बौखला गये।
मैं भी हैरत में था। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मृणाल जी ने मुझे यह व्यवहार मेरे ब्राह्मण होने के बजाय मेरे योग्यता, मेरी क्षमता और मेरी दक्षता के हिसाब से बताया। इसमें अगर कोई यह चिल्ल-पों करे कि मृणाल पाण्डेय जी ने पत्रकारिता में ब्राह्मण-वाद का वृक्ष विकसित किया, तो यह उसका दिमागी दिवालियापन ही है।
हां, सच यह जरूर है कि अपने कुनबे में सक्षम जोड़ने की एक अद्भुत शैली विकसित की। यह जानते हुए भी कि उन्हें भी परम्परा के हिसाब से एक न एक दिन हिन्दुस्तान समूह छोड़ना ही होगा, इसके बावजूद उनका मेरे जैसों को प्रश्रय देने का यह प्रयास उनके नैतिक-दायित्व का अनिवार्य पक्ष था। यह जानते हुए भी जिन लोगों को वे अपने साथ जोड़ रही हैं, वे हमेशा उनके साथ नहीं रह सकते। लेकिन उनका मकसद तो यही था कि वे पत्रकरिता के शिखर तक अपने जैसे लोगों की अट्टालिका मजबूत करें। उस इमारत पर नयी मजबूत ईंटें मजबूत करें, उन्हें और भी बेहतर सजोयें, सजायें और दीर्घजीवी बना सकें।
ठीक उसी तरह, जैसे लसोढ़ा-पन। मृणाल पाण्डेय जी ने जिस तरह खुद के बजाय पत्रकारिता में नये-नये लोगों को जोड़ कर उसे आकर्षक, मजबूत और दायित्वपूर्ण बनाया, ठीक उसी व्यवहार ही तो लसोढ़ा का होता है। इमारत बजबूत होती रहती है, लेकिन लसोढ़ा को लोग भूल जाते हैं। यह जानते हुए भी कि अगर लसोढा न होता, तो वे ऐसी अजीमुश्शान इमारत के एक नन्हें हिस्सा न बन पाते।
मुझे खूब याद है कि मुझे दो जून-1982 को साप्ताहिक शान-ए-सहारा में तडि़त कुमार जी ने ज्वाइन कराया था। पद था प्रूफ-रीडर। उसके कुछ ही महीनों बाद श्री आनंद स्वरूप वर्मा भी दिल्ली से संयुक्त संपादक बन कर लखनऊ आये। उस दौरान उन्होंने मेरी क्षमताओं को देखा, परखा और उसे विकसित का दायित्व उठाया। मुझे बच्चों के लिए एक पेज का प्रभारी बना दिया गया। कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर कई अनुवाद भी कराये वर्मा जी। मेरे कई कार्टून भी छापे। हालांकि वर्मा जी मूलत: कायस्थ थे, लेकिन वे कभी भी इस पर चिंता नहीं करते थे। अगर ऐसा करते तो कुमार सौवीर को कुमार सौवीर बनने का मौका कभी मिल ही नहीं पाता। उसी दौरान रामेश्वर पाण्डेय ने मुझे कई गम्भीर विषयों पर किताब पढ़ने के लिए प्रेरित किया। लेकिन तडि़त कुमार और आनंदस्वरूप ने जिस तरह साप्ताहिक सहारा में प्रतिभाओं को एकजुट किया, यही तो था तडि़त कुमार और आनंद स्वरूप वर्मा का लसोढ़ापन, जिसने अपनी अगली पीढ़ी को और समृद्ध करने के लिए कोई शर्त नहीं बुनी, न ही कोई साजिश।
सच बात तो यही है कि आज मैं जो भी हूं, ऐसे ही लसोढ़ा-पन की देन हूं।
( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्न समूहों के प्रतिनिधि-व्यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– सोलह )
आदरणीय भईया ,
सादर चरणस्पर्श 🙏🌹
सराहनीय के साथ-साथ अनुकरणीय पोस्ट के लिए आपका तहेदिल से धन्यवाद आभार…👌👌👌👌🤔🤔🤔 🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🎉🎉🌺🌺🌺🌺🌹🌹🌹
Very good