: आसमान से जमीन तक टपकने का किस्सा हैं प्रिंस लेनिन : ख्वाहिशों के आसमान से जमीनी हकीकत का सफरनामा हैं प्रिंस लेनिन : बाप ने जातिवादी जहर धोने के लिए बेटे का नाम लेनिन कर दिया : एनआरएचएम महा-लूट के बड़े मगरमच्छ अभी तक अज्ञात, धेला नहीं मिला : जज नहीं बन पाये तो वकालत में उड़ान भरने लगे :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह ठगी, लूट और खूनी मकड़जाल में प्रत्यक्ष रूप से सात लोगों की मौत हुई, जबकि इस में एक सौ के आसपास लाशें बिखरी थीं। कोई जेल में मारा गया, एक की सुबह सैर के वक्त गोली मार कर हत्या हुई, जबकि कोई अवसाद में मारा गया। एक के तो पूरे बदन में ब्लेड लगे थे, लेकिन उसकी मौत को आत्महत्या के तौर परोसा गया। इसमें बाबू सिंह कुशवाहा समेत कई मंत्री और एक आईएएस भी जेल में बरसों बंद रहे। यह मामला है एनआरएचएम का, यानी ग्रामीण भारत को सेहतमंद रखने और स्वास्थ्य व्यवस्था मुहैया कराने के लिए बनायी गयी योजना का यूपी में हुईछीछालेदर का। इस मामले की छानबीन करने वाले कैग ने जांच के बाद पाया कि इस योजना में मिली इस हैरत की बात है कि 8657 करोड़ रुपयों में से 5000 हजार रुपयों का खर्चा बिना किसी नियम के कर डकार लिया गया था। लेकिन इस खुलासा करने के बावजूद जांच करने वाली एजेंसी एक धेला भी बरामद नहीं कर पायी है।
लेकिन बहुत कम ही लोग इस सचाई को जानते हैं कि इस मामले को उभार कर उसे जन-मानस के बीच चर्चा पहुंचाने का जिम्मा किसने उठाया। उसका नाम है प्रिंस लेनिन। हाईकोर्ट में वकील हैं और लखनऊ में आशियाना है। जातिवाद से बेहाल पिता ने अपने बेटे प्रिंस की जाति कायस्थ के बजाय सोवियत के श्रेष्ठ पुरुष ब्लादीमीर लेनिन के नाम पर चस्पां कर दी, तो बेटा आसमान नापने के लिए उचक पड़ा। दरअसल, प्रिंस की ख्वाहिश थी पायलेट बनने की। वह भी सेना में। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उनका चयन भी हो गया। शरीरिक दक्षता में भी अव्वल निकले। अब आखिरी दौर में बचा आंखों की जांच। लेकिन वहां गच्चा खा गये। पता चला कि उन्हें देखने में तनिक ही सही, लेकिन रंग-दोष है। इतना ही नहीं, उन्हें खारिज करते वक्त जो लिखत-पढ़त दी गयी, उसमें साफ लिखा था कि वे किसी भी पायलेट बनने की योग्यता नहीं रहते। यानी अब हवा में गोते लगाने का सपना हमेशा के लिए खत्म। ख्वाहिशें चारोंखाने चित्त। इसके बावजूद उन्होंने खुद को सम्भाला और एलएलबी पास कर न्यायिक क्षेत्र में उड़ान करने की तैयारी की। अपने दोस्तों के साथ जजी की तैयारी शुरू कर दी। लेकिन परीक्षा के लिए इलाहाबाद जाते वक्त एक दोस्त ने दगाबाजी कर दी। नतीजा यह हुआ कि बनने में केवल दो नम्बर से पिछड़ गये। वाराणसी में तैनात जिला जज स्तर के लिए के अधिकारी खुलेआम कहते हैं कि प्रिंस लेनिन के साथ हुई तैयारी ही उनको जज बना पायी।
चीनी मिल नहीं बन पाये, तो कोई बात नहीं। गन्ना ही सही। बड़ी दूकान की मिठाई छोड़ कर आम आदमी का गुड़ बन गये। आ गये वकालत की दुनिया में। न्याय हासिल करने के लिए तरस रहे लोगों के लिए कमर कस ली। नाम ही महानतम वामपंथी लेनिन पर था। यानी जूझने को तैयार इंसान में इंसानियत का लसोढ़ा। नाम ही पर्याप्त लसोढ़ा साबित हो गया। यह दीगर बात है कि बेहाल आदमी के पास उम्मीदों का तो विशाल पहाड़ होता है, लेकिन इसके लिए पर्याप्त पारिश्रमिक देने के लिए क्षमता नहीं होती। जीवन पर्वत-श्रेणी के बजाय खाई में था, लेकिन अदम्यता सतह से भी गूंजने लगा। कई बरस तो इसी में बीत गये। कहीं कष्ट, कहीं असहायता, कहीं तनाव, कहीं पराजय तो कहीं उत्कर्ष।
इसी बीच सन-05 से लेकर सन-11 तक एनआरएचएम के हादसों का दौर शुरू हो गया। प्रिंस ने पाया कि यह बड़ा मामला है, जिसे पर्याप्त स्थान नहीं मिल रहा है। न सरकार की ओर से, न प्रशासन की ओर से, न पुलिस की ओर से और न ही समाचार-माध्यमों की ओर से। बस यूं ही एक छोटे से किस्से की तरह निपटाया जा रहा है। प्रत्यक्ष रूप से जिस मामले में सात लोगों की जान चली गयी हो, उसमें हल्कापन नागवार लगा प्रिंस को। इसीलिए लगा कि उनको इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए। उन्होंने इन हत्याओं को लेकर हाईकोर्ट में पीआईएल दाखिल कर दी। सुनवाई शुरू हो गयी और अदालत ने इस मामले को सीबीआई को सौंप दिया। यानी जो मामला दबा-छिपा निपटाया जा रहा था, उसने तूल पकड़ लिया और देखते ही देखते हल्ला-गुल्ला शुरू हो गया। सरकार भी चुंधिया गयी। एक प्रमुख सचिव प्रदीप शुक्ला समेत कई अफसर और बड़े-बड़े डॉक्टर जेल में सींखचों में घसीट दिये गये।
सुर्खियों में आने के बाद ज्यों-ज्यों जांच और कार्रवाई आगे बढ़ रही थी मौत की खबर भी साथ ला रही थी। सबसे पहली मौत सीएमओ रहे डॉक्टर विनोद आर्या की उनके आवास के पास ही हुई। डा आर्या के पास इस घोटाले से जुड़े तमाम रसूखदारों का कच्चाचिट्ठा मिल सकता था कि इसी बीच दूसरे सीएमओ वीपी सिंह की हत्या हो गयी। अभी यह चल ही रहा था कि गाजियाबाद के डासना जेल में एनआरएचएम घोटाला के एक आरोपी आशुतोष अस्थाना की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। फिर इसी यूपीपीसीएल के प्रोजेक्ट मैनेजर सुनील वर्मा की भी खुद को गोलीमार आत्महत्या की खबरें आईं। इसके पहले डिप्टी सीएमओ वाईएस सचान की मौत की भी खबरें आई थी। डा सचान ने आत्महत्या की या उनकी हत्या हुई थी यह तक किसी को पता नहीं चल सका। इसी घोटाले के एक और आरोपी डिप्टी सीएमओ शैलेश यादव, लिपिक महेंद्र शर्मा की भी जान रहस्यमय परिस्थितियों में जा चुकी है। लखनऊ के एक सीएमओ रहे डॉ एके शुक्ला भी जेल में बंद किये गये। बाद में उनके जेल जाते वक्त उनके जेल में एक पावडर की पुडि़या मिला। कहा गया कि उसमें आत्महत्या की साजिश थी। लेकिन बाद में वह टेलकम पाउडर मिला। सवाल अब तक नहीं सुलझ पाया है।
दोलत्ती ने प्रिंस लेनिन से इस बारे में पूछा कि जो लोग पकड़े या मारे गये, उसमें उन लोगों की क्या भूमिका रही है। प्रिंस लेनिन का कहना है कि सब के सब उस लूटमारी के इस महा-योजना से संलिप्त थे। लेकिन यह मामला अचानक ही दब गया। प्रिंस कहते हैं कि एक व्यक्ति अकेले में सारा काम कैसे निपटा सकता है। यही कम है कि मैंने इस मामले को जग-जाहिर किया। उस दौरान भी मुझ पर बहुत दबाव पड़े, लेकिन मैं जूझता ही रहा। अब मेरे भी लगातार कई पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ने लगीं हैं। समाज को भी आगे आना चाहिए।
वकीलों की हैसियत कैसी है। सुप्रीम कोर्ट के एक दिग्गज वकील लखनऊ हाईकोर्ट के एक वकील के माध्यम से मिले तो सबसे पहले साढ़े छह लाख रुपयों की फीस जमायी गयी। मुलाकात के दौरान उंगलियों में एक पेंसिल को नचाते हुए उस दिग्गज ने पूछा कि यह लखनऊ हाईकोर्ट कहां है। मैं ऐसी जगहों पर मुकदमे नहीं देखता। यह कह कर दिग्गज ने पेंसिल तोड़ दी और चैम्बर से बाहर निकल गये। हालांकि बाद में करीब चार लाख रुपयों की वापसी काफी दौड़भाग के बाद हो पायी। लखनऊ हाईकोर्ट की हालत देख लीजिए। जब डेढ़ सौ से ज्यादा मुकदमे लगे हों और सुनवाई दस-पांच ही हो रही हो, तो ऐसी हालत में न्याय को कौन पूछेगा। तो वकील। एक रसूखदार या सीनियर वकील आये, तो 145 के एक मामले में अदालत ने दो घंटे तक सुनवाई की, जबकि ऐसे मामले मैजिस्ट्रेट के स्तर के हैं। ऐसे में दूसरे बेहद अहम मामलों पर सुनवाई कौन करेगा। आम आदमी को न्याय-जगत से वाकई राहत मिल पाती हैं, इस सवाल पर लेनिन अपना सिर इनकार की मुद्रा में हिलाते हैं। अदालतों में खर्चा और टाइम बेहिसाब है, फिर मुअक्किल अदालतों के बजाय सीधे दूसरे रास्ते क्यों नहीं अपना लें। लेनिन का जवाब है कि दूसरे रास्ते में तो केवल गुंडागर्दी और अपराध ही है। न्याय तो केवल अदालतों में ही मिल सकता है। काला कोट और गाउन पहन कर हम में एक गर्व की अनुभूति होती है।
करीब डेढ़ घंटे की यात्रा के बाद जब मैं प्रिंस लेनिन के घर पहुंचा, तो उनके तेवर स्वागत वाले नहीं थे। न जाने क्या बात थी, कि जब तक मैंने उनको समझने की कोशिश की, प्रिंस लगातार अक्खड़ ही बने रहे। चैम्बर में आधा घंटा के कंसलटैंसी की फीस 11 हजार रुपयों का बोर्ड लगा था। सवाल कुछ, जवाब कुछ। कई वकील भी इस बात पर सहमत हैं कि प्रिंस का अंदाज दूसरों से अलग, और अक्खड़ है। लेकिन प्रिंस का तर्क है कि वरिष्ठों के प्रति उचित सम्मान और अपने कामधाम पर केंद्रित रहना ही चाहिए। गहरे सवाल तो उनके पीआईएल याचिकाओं और उसके ठण्डे बस्ते तक में सिमट जाने को लेकर भी हैं लेकिन ऐसे मसलों को उठाया है लेनिन ने, इस बात पर कौन इनकार कर पायेगा। न्यायपालिका के प्रति आस्था का एक प्रमाण यह भी है कि यह बाप-बेटे अधिकांश पीआईएल मुकदमे दायर करते रहते हैं।
( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्न समूहों के प्रतिनिधि-व्यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– पंद्रह )