कुमार सौवीर इक जिद्दी आशिक, उसे ठुकराती है माशूका

बिटिया खबर

: मेरे बारे में दूसरों की राय 75 फीसदी सच : पोएट्री के मामले में एक इल्‍लीट्रेट यानी निरक्षर-अनपढ़-जाहिल : मेरी कविता अभिजात्य भद्र-समाज के कवित्त-सभागारों में मुंह के बल धड़ाम : पोएटिकल एटीट्यूड है, लेकिन पोएट्री में पोलिटिकल एटीट्यूट नदारत : बेहतर समीक्षा तो करते हैं धनंजय शुक्‍ल, मैं उत्‍तीर्ण :

कुमार सौवीर

लखनऊ : लोग कहते हैं कि मुझ में पोएटिकल एटीट्यूड ( कवित्त का भाव और क्षमता ) तो खूब अटा-भरा है, लेकिन दिक्कत यह है कि मेरी पोएट्री में पोलिटिकल एटीट्यूट ही नहीं है। नतीजा यह कि मेरी कविता अभिजात्य अथवा भद्र-समाज के कवित्त-सभागारों में मुंह के बल धराशायी हो जाती है। अरे दूसरे की राय तो मैं खुद ही ठेंगे पर रखता हूं। लेकिन एक बात कहूं ? सच बात तो यह है, और मैं खुद भी मानता-जानता हूं कि कुमार सौवीर जब कविता सोचना या करना शुरू करते हैं तो भले ही उनके अपने निजी पैरामीटरों के अनुरूप वह श्रेष्ठ स्तर की हो, लेकिन सुनने वाले मानते हैं कि कुमार सौवीर अपशब्दों से भरी ओछी कवितानुमा विष्ठा उगल रहे हैं। मैं यह भी जानता हूं कि मेरे बारे में दूसरों की राय 75 फीसदी तक सच ही है। यह भी सच ही है कि पोएट्री के मामले में एक इल्‍लीट्रेट यानी निरक्षर-अनपढ़-जाहिल हूं।
इसे इस तथ्य के साथ समझने की कोशिश कीजिये कि भोजपुरी एक समृद्ध रससिक्त बोली है। मगर भले ही बलिया, भोजपुर या छपरा के लोग अपनी बोली में किसी को गालियां देना शुरू कर दें, तो सुनने वाले को वह बोली कर्णप्रिय लगती है और उसे लगता है कि जैसे उसे गाली नहीं, बल्कि घनघोर प्रशंसा की जा रही हो। जाहिर है कि वहां बोली का प्रवाह महत्वपूर्ण हो जाता है और बोली में इस्तेमाल “शब्द-अर्थ” गौण हो जाता है। सच बात यह है कि सुनने वाले को ऐसे शब्‍दों का अर्थ ही पता नहीं चलता, लेकिन वह व्‍यक्ति उस बोली की रस-भीनी खुशबू में ही गोते ही लगाता रहता है।
खैर, मेरे मानने या न मानने से क्या मोदी सरकार गिर सकती है ? लेकिन फिर भी हमारे “बिचारक” धनंजय सुकुल अपना मन्तव्य व्यक्त करने से परहेज नहीं करते। उनका कहना है कि भाषा और भाव के साथ ही तारम्यता भी अनिवार्य होती है कविता और कविता-प्रवाह के लिए भी। वे समझाते हैं कि हर शख्स में अपने गुणों की क्षमता का एक वर्तुल यानी सर्कल होता है। यह ऊपरी वर्तुल ऊपरी वर्तुल अति-चेतन से समृद्ध होता है। यह क्षेत्र कवित्त-भाषा का होता है और जब वह समृद्ध होता है तो वह व्यक्ति गालिब, गेटे, फिराक, कलिदास, रहीम, कबीर, निराला, टैगोर और तुलसीदास जैसा हो जाता है।
दूसरी ओर इस सर्कल का निचला वर्तुल अवचेतन यानी गाली से परिपूर्ण होता है। इसमें व्यक्ति का दमन होता है, फिर वह कुंठा से ग्रसित होने लगता है, और फिर गालियां देकर अपने आप को मुक्त और झटकने के प्रयास करता है। उसकी यह क्रिया दमनकारी ताकतों के खिलाफ एक अचूक और प्रभावी अस्त्र बन जाती है। अब यह कुमार सौवीर का दुर्भाग्य ही तो है कि उस वर्तुल के गुण कुमार सौवीर में सिरे से ही गैर-हाजिर है। एब्सेंट। ऐसी हालात में कुमार सौवीर में कविता का विकास हो तो भला कैसे?
अब इसी सन्दर्भ में कुमार सौवीर के काव्य-चरित्र के मूल कारणों का विवेचन कर लिया जाए। मैं खूब जानता हूं कि कुमार सौवीर में ऐसी हालत के दो कारण हैं। एक तो उनका खिलंदड़ स्वभाव, और दूसरा कारण है दमित, शोषित और बेसहारा समाज के साथ उनका अति संवेदनात्मक जुड़ाव। यही जुड़ाव कुमार सौवीर के वर्तुल में आम आदमी के गुणों को अभिन्न रूप से जोड़ लेती है। नतीजा यह कि कुमार सौवीर की डिलीवरी भी आभिजात्य-भद्र समाज के प्रतिकूल आम आदमी का प्रतिनिधित्व करना शुरू कर देती है।
तो चलो पंचों ! उपसंहार कर लिया जाए।
मेरा सवाल था कि क्या उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह साबित मान लिया जाए कि कुमार सौवीर और कविता के बीच घोड़ा-भैंसे जैसी दुश्मनी है?
जवाब दिया धनंजय शुक्ल ने। बोले कि कविता का प्रादुर्भाव दो रूपों में होता है। एक रूप का साधन-मार्ग तो भाव, शब्द और प्रस्तुतिकरण के साथ होता है, जबकि दूसरा रूप का साधन-मार्ग भाव और प्रस्तुतिकरण के साथ ही वह शब्दावली जिसे अभिजात्य-भद्र समाज में अपुष्ट अथवा अभद्र माना जाता है। लेकिन अक्सर मामलों में ऐसे व्यक्ति को कवि और उसकी कृति को कविता मानने से लोग इनकार कर देते हैं
लेकिन ऐसा शख्स जिस भी मूल कर्म, धर्म अथवा व्यवसाय में संलिप्त होता है, वह अक्सर बहुत ऊंचे स्थान का भाव रखता है। कुमार सौवीर का जीवन और उनकी मस्ती ही नहीं, उनका पत्रकारीय धर्म भी समग्र रूप से गंभीर और संवेदनशीलता के साथ मौजूद है, जिसमें उनके दायित्व संबंधी निजी आग्रह अक्सर कठोर भी होते हैं। ऐसे में उनका पूरे जीवन कविता बन जाता है। बस, अभिव्यक्ति की शैली में कविता का अक्स धुंधला दीखने लगता है।
तो दोस्‍तों ! कुछ भी हो, मैं अपने जीवन के लाइन ऑफ एक्‍शन का ट्रैक कैसे बदल सकता हूं ? मेरे पास जन-अपेक्षाओं से जुड़े दायित्‍वों का एक बड़ा समूह मौजूद है, जिसके साथ मुझे जीना, जूझना और मरना है। ऐसे हालत मेरा फैसला है कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपने ट्रैक को नहीं छोडूंगा। रही बात कविता की, तो वह मुझसे बने या न बने, मैं उसके पीछे पड़ा ही रहूंगा। एक जिद्दी आशिक की तरह, भले ही वह माशूका मुझे हर क्षण ठुकराती ही रहे।

1 thought on “कुमार सौवीर इक जिद्दी आशिक, उसे ठुकराती है माशूका

  1. बहुत ही बढ़िया। गंभीर और पठनीय भी। बधाई सर।

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