: दैनिक भास्कर के नेशनल-एडीटर हैं ओमगौड़ : मैंने एक इवेंट विकसित शुरू किया, लखनऊ से दिल्ली राष्ट्रपति भवन तक स्केटिंग पर बच्चों को सड़क पर ले जाना : बातचीत हुई, ओम गौड़ कार खुद चला कर पाली-मारवाड़ ले गये : भास्कर डिजीटल की रीडरशिप अकेले नौ लाख हो चुकी है, वह भी अकेले यूपी में :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह किस्सा शुरू होता है सन-92 की 28 जून से। मैं लखनऊ दैनिक जागरण में वरिष्ठ संवाददाता हुआ करता था। रात को पता चला कि स्थानीय संपादक विनोद शुक्ला ने मुझे लखनऊ से बरेली तबादले पर भेज दिया है। यह वह वक्त था, जब किंग जार्ज मेडिकल कालेज में भर्ती अपनी सवा दो बरस की बेटी बकुल यहां के पीडियाट्रिक वार्ड में भर्ती थी। जबर्दस्त बुखार में तपती बकुल को टॉयफॉयड हो गया था। जाहिर है कि मैं अपना कामधाम छोड़ कर दिनरात मेडिकल कालेज में बिटिया की देखभाल में व्यस्त था। इसी बीच मुझे तबादले का यह फरमान मिला। वह तो बाद में पता चला कि मेरे खिलाफ मेरे ही सहयोगी मेरी अन्त्येष्टि का समिधा आदि सरअंजाम जुटा रहे थे।
बहरहाल, मैंने इस तबादले के आदेश को खारिज कर दिया और न लखनऊ दफ्तर में गया और न ही बरेली गया। बरेली जाने का कोई मतलब भी नहीं था। यह यूनिट का नियंत्रण विनोद शुक्ला के हाथों में था। बरेली में मैं अगर जाता तो वहां मुझे प्रताड़ना या उपेक्षा ही मिलती। इसीलिए मैंने जागरण ही छोड़ दिया। इतना ही नहीं, मैंने तय कर लिया कि आइंदा कभी किसी स्थानीय संपादक के तहत काम नहीं ही करूंगा। लेकिन इसके साथ ही साथ मैंने विनोद शुक्ला के घर जाकर यह जरूर बता दिया कि इसके पहले यानी 27 मई-84 में सुब्रत राय के भाई और साप्ताहिक सहारा के प्रबंध संपादक जयब्रत को जूतों से कूट-पीट चुका था। और संकल्प ले चुका था कि संपादक के नाम पर अगर किसी संपादक ने मुझसे गुंडागर्दी करने की जुर्रत की, तो मैं उसको सरेआम जुतियाने का अभियान चलाऊंगा जरूर। लेकिन चूंकि आप ने मुझे काफी सिखाया है और प्रश्रय दिया है, इसलिए कम से कम इस बार मैं आप पर कोई भी हाथ नहीं उठाऊंगा।
इसके बाद मैंने पत्रकारिता का ही दामन छोड़ दिया। बुक, ब्रोशर, बुकलेट व पर्चा वगैरह को डेवलप करने का काम शुरू किया। लेकिन चूंकि यह काम सरकारी ही होता था, और अधिकांश अधिकारी मुझे जानने-पहचानने के चलते मुझे काम ही नहीं देते थे। वजह मुझे पता चल जाता था कि वे मुझसे कमीशन ही नहीं ले सकते थे। इसलिए काम भी नहीं देते थे। लेकिन जो मेरे प्रति स्नेह रहते थे, वे मुझे इस दिशा में सहयोग कर लेते थे। जिन्दगी जरूर चल रही थी, लेकिन संकट ताड़का-पूतना की तरह बेहिसाब पसरे रहते थे।
इसीलिए बीच मैंने एक इवेंट विकसित शुरू कर दिया। लखनऊ से दिल्ली राष्ट्रपति भवन तक स्केटिंग पर बच्चों को सड़क पर ले जाना। शुरुआत की अपनी बेटियों और एक भांजा दाऊ मिश्र से। लेकिन जुलाई-02 को एक कार ने मुझे टक्कर मार दी। पैर पर मल्टीपल फ्रैक्चर आये। जब तक ठीक हो पाया, भुखमरी की हालत तक पहुंच चुका था परिवार। मैंने फैसला किया कि पत्रकारिता में फिर लौटूंगा। जागरण का साथी सुदेश गौड़ उस वक्त दैनिक भास्कर में कोटा संस्करण के संपादक था। उसने मुझे जोधपुर में दैनिक भास्कर में रिपोर्टर की नौकरी दिला दी। मैं जोधपुर पहुंचा, तो एक ऐसे शख्स से मुलाकात हो गयी, जो खबरों का जादूगर है। खबर को सूंघना और अपने सामने वाले व्यक्ति को पहचानने का दिव्यता हासिल किये है। नाम है ओम गौड़। वे भास्कर में तब जोधपुर के स्थानीय संपादक थे।
मैं अपना सामान लादे भास्कर के दफ्तर पर पहुंचा। मुझे चाय-नाश्ता हुआ, बातचीत हुई और उसी वक्त ओम गौड़ ने अपनी कार निकाली और मुझे बिठा कर सीधे पाली-मारवाड़ ले गये। करीब 60 किलोमीटर दूर। मुझे एक होटल में टिकाया और कहा कि अगले 15 दिन तक मैं वहां रह सकता हूं लेकिन उसके बाद मुझे अपनी अलग व्यवस्था करनी होगी। सभी स्टाफ से मेरी मुलाकात करायी और तकीद की कि कुमार सौवीर की वे सभी मदद करेंगे। और इसके बाद मैं यहां ब्यूरो चीफ की कुर्सी पर आसीन हो गया।
उसके बाद तो मैंने पाली में खबरों की दुनिया में छक्के-चौके लगाने शुरू कर दिये। चाहे वह तब की राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजा व्यास, भाजपा की राज्य अध्यक्ष वसुंधराराजे सिंधिया और डॉ प्रवीण तोगडि़या का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू रहा हो, जिसे दैनिक भास्कर ने ऑल-एडीशन ही नहीं, बल्कि बॉटम-प्लेस पर छापा था। चाहे वह बच्चों का मामला हो, बुजुर्गों की गतिविधियां रही हों, महिलाओं की पहलकदमियां रहीं हो, या फिर समाज में आते बदलावों का मामला रहा हो, मैं रोजाना और नियमित रूप से खुद लिखना शुरू किया। मैंने कहने की जरूरत नहीं कि मेरे इन सारे प्रयासों पर ओम जी ने दिल खोल कर मोहर लगायी, शाबासी दी और प्रोत्साहित किया।
पाली के सुदूर रेगिस्तान जैतारण नगर से एक एक्सक्लूसिव स्टोरी करने के लिए जब मैं और मेरा लाजवाब फोटोग्राफर सुरेश हेमनानी रेत के थपेड़ों से जूझ कर शाम को जोधपुर होते लौटे, तो जोधपुर में मैं भास्कर के दफ्तर पहुंचा। ओम जी ने मेरा और मेरे प्रयासों का वाकई इस्तकबाल ही नहीं किया, बल्कि मुझे बियर पीने के लिए पैसे भी दिये। आदेश और साग्रह।
उसके बाद मैं हिन्दुस्तान अखबार में वाराणसी और जौनपुर भी रहा, और फिर महुआ न्यूज और एसटीवी में भी यूपी हेड रहा, लेकिन ओम गौड़ के अलावा केवल एक ही व्यक्ति मुझे और मिला, वह थे आनंद स्वरूप वर्मा और अंशुमान त्रिपाठी। वर्मा जी साप्ताहिक सहारा में कार्यकारी संपादक थे, जबकि अंशुमान जी महुआ न्यूज में संपादक थे। लेकिन वर्मा जी और अंशुमान जी की बात बाद में होगी। आज तो केवल ओम गौड़ ही।
पाली मारवाड़ के छोड़ने के बीस बरस बाद आज ओम जी से मुलाकात हुई। मिले तो उस वक्त उनके सहयोगी श्रवण भी मौजूद थे। आजकल ओम गौड़ दैनिक भास्कर में नेशनल एडीटर हैं और यूपी में भास्कर की जड़ें जमाने का धुआंधार अभियान छेड़े हुए हैं। उनकी कोशिश कितनी रंग लायी है, इसका अंदाज ओम गौड़ के चेहरे और शब्दों पर ही नहीं, बल्कि उनके इसी दावे से किया जा सकता है कि दैनिक भास्कर का डिजीटल संस्करण एक विशाल प्लेटफार्म बन चुका है। अकेले यूपी में ही इसकी नौ लाख पाठकों की विशालतम फौज है, जो भास्कर की खबरों को देश-दुनिया तक में पल-क्षणांश तक में पहुंचा सकते हैं।
ओम गौड़ एक जीवंत व्यक्ति का नाम है। नाम है एक अद्भुत संपादक का। वह सूंघता है खबरों को। अपने अधीनस्थों को इशारा करता है कि खबरों का खजाना कहां और कैसे मिलेगा। कहता है कि भाजपा ही नहीं, बल्कि कांग्रेस और बाकी दलों का भविष्य क्या होगा। बताता है कि किस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है। वह जानता है कि किस शख्स से उसे कहां और कब मिलना है। वह उर्जा बटोरता है प्रभावकारी असर डाल सकने लोगों से। उसे पता है कि सफलता के लिए कौन सी दिशा उचित होगी। वह बर्दाश्त कर लेता है उन लोगों की साजिशों को, बशर्ते उनका सहयोग उनसे मिल पाये। वह आस्था और विश्वास रखता है लोगों के प्रति, जिनकी प्रवृत्ति उनके प्रति अगाध आस्था और विश्वास के साथ स्नेह और प्रेम से सिक्त होती होती है।
वरना ओम गौड़ ने अपना पूरा जीवन दैनिक भास्कर में ही यूं ही नहीं खपा डाला। वे केवल भास्कर सोचते हैं, भास्कर करते हैं, भास्कर के साथ सोते और उसके साथ ही सांस लेते और छोड़ते हैं। वैसे भी ओम शब्द तो अपने आप में ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापा रहता है।
और तब हम “दैनिक भास्कर” के साप्ताहिक फिल्म परिशिष्ट ‘नवरंग’ में छाए हुए थे… शायद कभी नज़र पड़ी हो !
धन्यवाद🙏💕
धर्मेन्द्र प्रताप सिंह
Good.. Very good.