अरे उल्‍लू के पट्ठों ! स्‍त्री तुम्‍हारा शौचालय नहीं है रे

बिटिया खबर

: मानव के प्रजनन अंगों का वेद बुना है वात्‍सायन व कोका पंडित ने, उसकी भावुकता व संवेदनाओं की व्‍याख्‍या की है ओशो ने : ओशो यानी ओशनिक, अर्थात समुद्र की तरह गहरा, प्रशांत और रत्‍न-सागर : सहवास। अछूते सवालों पर चर्चा ओशो से पहले भगवान तक ने जरूरी नहीं समझा : स्‍त्री को नर्क का द्वार कहने वाले आजकल कारागार में द्वार के भीतर बंद : गंध ही नहीं होगी, तो वासना कैसे होगी। बिना वासना के तो लोग पत्‍थर ही होंगे : 

कुमार सौवीर

लखनऊ : एक महान व्याख्याकार रहा है रजनी‍श चंद्र मोहन यानी ओशो। ओशो यानी ओशनिक, अर्थात समुद्र की तरह गहरा, प्रशांत और रत्‍न-सागर। अमेरिकी प्रशासन ने भले ही उसके विशाल ओरेगन चिंतन-नगर को जब्‍त कर उसे जेल में बंद कर दिया, लेकिन वहां से कुछ दिनों बाद वापस आये ओशो ने पूना पर एक फिर नयी इमारत तामीर कर दी। उसकी सचिव मां शीला ने रजनीश को जमीन से आसमान तक पहुंचाने के बाद उसे फिर से जमीन पर धकेल दिया, लेकिन ओशो ने फिर एक नयी जिन्‍दगी खड़ी की, ताकि वह दूसरों की जिन्‍दगी को ठीक से समझने-समझाने लायक बन सके। उसने मानव विकास और उसकी संस्‍कृति को एक ऐसी डगर दिखाने की कोशिश की जिसमें उसके पहले किसी से उस पर चर्चा करने या उस पर चलने ही नहीं, बल्कि उस पर सोचने तक की हिम्‍मत नहीं पड़ती थी।
सहवास। एक अछूते क्षेत्र को उधेड़ कर उसे बीज से अंकुरित होकर उगने वाले सवालों को खोजना और उसका क्रमबद्ध जवाब देना ओशो से पहले विश्‍व के किसी भी समाज के किसी भी भगवान तक ने जरूरी नहीं समझा था। लेकिन उसके बाद मस्‍तराम की चौंसठ पेजी किताब और फिर आयी वाट्सएप-घुट्टी पीकर जन्मे बकलोल चेलों ने ओशो के विचारों की लंगोट की धज्जियां तक उधेड़ डालीं हैं। दो-टूक बात कही जाए तो मानव के प्रजनन अंगों और उसकी दैहिक प्रक्रिया की पहचान के वेद-वेदांगों को रच डाला है वात्‍सायन और कोका पंडित ने, तो समागम और सम्‍भोग को भावुकता और संवेदनाओं की व्‍याख्‍या करने का बेमिसाल तरीका बताया है ओशो ने।
ओशो उन संतों की तरह नहीं है, जो यह दावा करने से थकते नहीं कि स्‍त्री तो नर्क का द्वार है और जो भी वहां जाएगा, वहां सर्वांग ही नहीं, सपरिवार और स-समाज व स-राष्‍ट्र भी गर्त तक गिर जाएगा। लेकिन आज आसाराम और रामरहीम जैसे महान साधु-संत लोग उसी स्‍त्री के नर्क वाले द्वार में अपनी गर्दन फंसाये-अटके हुए जेल में बंद हैं। उनकी मनो-विक्षिप्‍तता को स्‍त्री की श्रेष्‍ठ प्रवृत्ति ने जबर्दस्‍त दोलत्‍ती जमा रखी है। वजह यह कि उन्‍होंने स्‍त्री को केवल शारीरिक आवेशों की निवृत्ति का द्वार समझ रखा है। अपनी मनो-आवेशों की शांति का माध्‍यम नहीं। आप अपने शारीरिक उद्वेगों को शांत करने का सहज मार्ग मानते हैं, और अगर कोई स्‍त्री इसका विरोध करे तो आप उस पर लांछन लगाते हैं। अक्‍सर महिलाएं उसका विरोध करती हैं, जबकि कुछ ऐसी भी होती हैं, जो आपके भावों को तौल कर आपको ब्‍लैकमेल करना शुरू कर देते हैं।
इस आकर्षक स्त्री की फोटो और उस पर लिखे स्लोगन को निहारिये।
अब ऐसे चेलों से पूछिए यह स्लोगन स्त्री-जगत से पूछा गया है, या फिर पुरुष-जगत से। यह भी दोनों से है। लिजिन असल सवाल तो यह पूछना चाहिए कि वासनायुक्त चित्त और प्रेमपूर्ण चित्त में क्या फर्क है।
होना भी चाहिए।
ऐसी बकलोली करने वाले यह भूल जाते हैं कि यह सब प्राकृतिक और अनिवार्य है, अगर हमें प्रेम तक पहुंचना हो तो।
जान-ए-मन ! प्यार का रास्ता देह-यष्टि से हुए गुजरता है। लेकिन पाखंडी सोच में पुरुष हमेशा स्‍त्री की देह-यष्टि के द्वार में घुसना चाहता है, लेकिन वह उसकी मनो-यष्टि के सारे द्वारों पर सैकड़ों तालों में बंद कर उसे हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर लेता है। रेत में अपनी मुंडी धंसाये शुतुरमुर्ग की तरह, कि न तो मैं देख रहा हूं, इसलिए कोई दूसरा भी मुझे नहीं देख रहा होगा।
यह तो समझ तो लो कि प्रेम और वासना क्‍या है। वासना यानी गंध के आधीन। जब गंध ही नहीं होगी, तो वासना कैसे होगी। बिना वासना के तो लोग पत्‍थर ही होंगे, और तब ऐसे लोगों से प्रेम कैसे किया जा सकता है। तो बिलकुल साफ है कि प्रेम के लिए वासना अनिवार्य है। लेकिन जिन्‍हें प्रेम और वासना को अपनी गंदी शौचालयीय सोच पर कूटना-पीटना हैं, वह अपने धंधे में जुटे हुए हैं। लेकिन पहले हम आपने अंतर्मन से तो पूछ लें कि दोस्‍त हम क्‍या हैं। वासना से प्रेरित हैं, या फिर वासना-हीन।
अरे उल्‍लू के पट्ठों ! स्‍त्री तुम्‍हारा शौचालय नहीं है रे

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