: सरयू में सामंजस्य, गोमती में उठापटक : फैजाबाद ने शरीफ को आंखों में बिठाया, जौनपुर ने कैलाशनाथ को पहचाना तक नहीं : कहीं जन-समर्थन के सामने साष्टांग किया प्रशासन ने, तो कहीं परस्पर झंझट का लाभ उठाया अफसरों ने : फैजाबाद अर्श तक पहुंच रहा, मिला पद्मश्री। जौनपुर फर्श से भी नीचे गहरे, मिला केवल पिछड़ापन :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह मामला श्मशान में पहुंचने वाली लाशों का, जिसको देखते ही लोगों में अवसाद, नैराश्य और हताशा फैलने लगती है। सिसकियां के साथ आंसू बहने लगते हैं। जहां ईश्वर की सत्ता ही इकलौती दिखायी पड़ती है और जीवन में नश्वरता भी शून्य में विलीन हो जाती है। इसके बावजूद कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो उस माहौल में भी अपना आजीविका और जीवन खोज लेते हैं। वे खोज लेते हैं यहां होने वाले कर्मकांड की तैयारी में शोकाकुल लोगों की मदद कर अपनी पेट की ज्वाला धधकाने की समिधा। लेकिन इनके बीच गिनेचुने या इक्का-दुक्का लोग हमारे समाज में दिखायी पड़ते हैं, जो वहां पहुंचने वाली लावारिस लाशों को ठिकाने का नि:स्वार्थ-दायित्व निभा लेते हैं। उन्हें न तो वहां मौजूद लोगों के शोक से कोई लेनादेना होता है और न ही वहां चल रही व्यावसायिक गतिविधियों से कोई लाभ। उनका दायित्व केवल इतना होता है कि मानव होने के चलते वह मानव की लाश को पूरी संवेदना के साथ उनको पर्याप्त सम्मान दें और इस तरह पूरे समाज में खुद के मानवीय और संवेदनशील होने का अर्थ साबित करें।
अभी चंद दिनों पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविद ने फैजाबाद के मोहम्मद शरीफ को पद्मश्री का सम्मान दिया, तो पूरे देश को मोहम्मद शरीफ को सिरआंखों पर बिठा लिया। लेकिन इसी वाह-वाही से इतर जौनपुर के एक अप्रतिम व्यक्तित्व को दबा दिया, जिसने अपना पूरा जीवन न केवल पत्रकारिता को अर्पित कर दिया, बल्कि समाज के ऐसे पहलुओं पर केंद्रित कर दिया जिसे दमित, दलित और वंचित लोगों पर केंद्रित कर दिया। जी हां, यह कहानी है सन-37 में जन्मे कैलाशनाथ विश्वकर्मा की। अपने लोहारी में धौंकनी धौंकने वाले पुश्तैनी धंधे से प्रेस कंपोजिंग से शुरू किया उनका जीवन सन-79 में दैनिक तरुणमित्र की स्थापना के तौर पर अखबार मालिक के स्तर तक पहुंचा। आज यह अखबार जौनपुर के अलावा लखनऊ, फैजाबाद, थाणे, पटना के अलावा मध्यप्रदेश और उत्तराखंड से भी छप रहा है।
अपनी सफलताओं को उन्होंने केवल अपने घर, परिवार तक ही सीमित नहीं किया। अपने अखबार के साथ ही साथ कैलाशनाथ ने समाज के विभिन्न जरूरतमंद वर्गों के साथ जुड़ना शुरू किया। असहाय सहायता समिति नामक एक संगठन को तैयार कर उन्होंने कई ऐसे-ऐसे काम शुरू किये, जिसे देख कर लोग ओठों के तले दांतों दबाने लगे। लेकिन सबसे कमाल तो तब हुआ, जब इसी समिति के तहत कैलाशनाथ ने जिले में उन लाशों को अपनाना शुरू कर दिया, जिनको अपनाने के लिए कोई सामने ही नहीं आता था। यानी लावारिस लाशें। शुरू में तो लोगों ने उनके इस दायित्व को खारिज करना शुरू कर दिया, लेकिन बाद में लोगों की समझ में आने लगा कि कैलाशनाथ का यह प्रयास समाज को संवेदना, भावुकता के साथ ही साथ एक-दूसरे के प्रति एकजुटता के संकल्प में ठीक उसी तरह जुड़ता-जोड़ता है, जैसे लसोढ़ा का गोंद। लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कराने वाले कैलाशनाथ के काम में सहायक रहीं और असहाय सहायता समिति की उपाध्यक्ष सुश्री विमला सिंह बताती हैं कि सन-96 से लेकर समिति ने कुल 1965 लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार निपटाया है। इतना ही नहीं, कैलाशनाथ की इस समिति के प्रयास से चार हजार से ज्यादा मरीजों को इलाज मुहैया कराया, जो पूरी तरह असहाय थे। इनमें से करीब चार दर्जन लोगों का जीवन बचाया नहीं जा सका। अपने बहुआयामी सार्वजनिक दायित्वों के चलते पूरे पूर्वांचल में अपनी अनूठी छाप बना चुके ख्यातिप्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता संजय सेठ बताते हैं कि कैलाशनाथ जी का पूरा जीवन ही अनुकरणीय रहा है।
लेकिन विरोधाभास तो संस्कार, पर्यावरण और शिक्षा की जमीन में ही उगते हैं। जो लोग समर्पित होते हैं, उन्हें अपने उस दायित्व पर कोई गर्वोक्ति नहीं होती है। मगर उनका समाज ऐसे लोगों के प्रति मानवीय, संवेदनशील और भावुक होने के बजाय उसमें भी अपने लाभ, दम्भ, लालच, राजनीति, रणनीति और एक-दूसरे के प्रति उठा-पटक जैसा दांव-पेंच शुरू कर देता है। कहीं पर तो ऐसा समाज ऐसे संवेदनशील लोगों का हाथोंहाथ स्वागत कर बैठते हैं, तो कहीं पर ऐसे लोगों को तो बुरी तरह अपमानित और तुच्छ मान बैठते हैं। कहीं समुदाय, समाज और प्रशासन ऐसे लोगों की वाहवाही करता दिखायी पड़ता है, जबकि दूसरी ओर ऐसा ही सम्प्रदाय,समाज और प्रशासनिक अमला ऐसे ही कर्मठ, समर्पित और निष्ठावान लोगों को लांछित, अपमानित और लज्जित कर बैठता है। फैजाबाद लेकिन दुर्भाग्य उनके साथ-साथ चलता रहा।
कैलाशनाथ विश्वकर्मा के साथ भी यही दुर्भाग्य आगे-आगे और पीछे-पीछे भी चलता ही रहा। बड़े अखबारों के स्थानीय दिग्गजों ने उनको तवज्जो ही नहीं दी, बल्कि अक्सर तो उनकी धमकियां और अपमान तक पहुंचाया। दरअसल, उनको लगता था कि एक गरीब परिवार से ऊपर पहुंचा व्यक्ति कैसे बैठ सकता है। ब्राह्म्ण और क्षत्रिय समाज के प्रमुख लोगों ने तो उन्हें पहचानने तक की जरूरत नहीं समझी। जबकि फैजाबाद के मोहम्मद शरीफ को पूरे फैजाबाद और आसपास के लोगों ने सिर-आंखों पर रखा, बिठाया और सजाया भी। इसका असर प्रशासन पर भी पड़ा। प्रशासन को साफ लगा कि समाज में सम्मानित किये गये मोहम्मद शरीफ को सम्मान देकर वे संप्रदाय और समाज में अपनी विश्वसनीयता प्रगाढ़ कर सकते हैं। इसलिए मोहम्मद शरीफ को भरसक मदद भी मिली। इतनी कि आखिरकार पद्मश्री सम्मान भी उनकी झोली में आ गया।
लेकिन कैलाशनाथ सिंह को अपने ही घर में लोगों ने ठेंगे पर रखना शुरू कर दिया। वजह सिर्फ यह कि वे लोग न तो कुछ सोचने की क्षमता रखते थे, और न ही कुछ कर पाना उनकी हैसियत में था। पीठपीछे भी कैलाशनाथ को वह सम्मान नहीं मिल पाया, जो जिसके लिए वह इस पूरे जिले, अवध, प्रदेश या देश-विदेश में हकदार थे। ऐसे में प्रशासन से जुड़े लोग भी कैलाशनाथ विश्वकर्मा के प्रति एक उपेक्षा भाव रखते थे। यह जानते हुए भी कि कैलाशनाथ विश्वकर्मा जैसी शख्सियत लाखों में एक है। बताते हैं कि एक निहायत बदतमीज जिलाधिकारी रहे एक व्यक्ति ने कैलाशनाथ को अपने दफ्तर बुला कर उन्हें बेहद बेइज्जत किया, लेकिन पूरा जिला और समाज यह घटना को जानते-समझते हुए भी खामोश रहा।
और ऐसे ही दुर्भाय के बीच कैलाशनाथ दो मई-2021 को ब्रह्मांड-व्यापी हो गये। और इसी के साथ लसोढ़ा का प्रभावी असर खत्म हो गया। फैजाबाद अर्श तक पहुंच रहा है, जबकि जौनपुर फर्श से भी नीचे गहरे।
( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्न समूहों के प्रतिनिधि-व्यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा–अट्ठारह )