आइये, शलभमणि त्रिपाठी को शहद लगा कर चाटा जाए

बिटिया खबर
: ऐसी दोस्‍ती ! मेरे अल्‍लाह मौला तौबा-तौबा : हालांकि मित्रता के मामले में यह कहावत बेकार है कि न काम के न काज के, मन भर अनाज के : जान देने का तैयार हैं, मगर भित्‍तर-खाने वाली खबर देने में कांच निकल जाती है शलभमणि त्रिपाठी की :

कुमार सौवीर
लखनऊ : अब क्या कहा जाए ! पत्रकार की जात ही ऐसी होती है, तो कोई क्या करे।
जब कोई शख्स पत्रकारिता में रहता है, तो कभी भी खबर को लेकर अपने किसी भी पत्रकार साथी से शेयर नहीं करता। वह हर खबर को खुद करने में जान-लड़ाए रखता है। ऐसी हालत में किसी को खबर की भनक किसी और को देने का सवाल ही नहीं उठता।
मगर जब वह पत्रकारिता छोड़ कर राजनीति में आ जाता है, फिर तो खबर की बात ही नहीं करता। केवल बयान देता है, भाषण देता है, प्रवचन देता है। कुल-मिला कर अगर कुछ देता भी है तो सिर्फ बाबाजी का ठिल्लू।
शलभमणि त्रिपाठी हमारे पुराने पत्रकार साथी रह चुके हैं। मैं तो अपने पत्रकारीय-मायका को नहीं छोड़ पाया, लेकिन डेढ़ साल पहले शलभमणि त्रिपाठी ने अपना संबंध भाजपा से स्थापित कर लिया, तो वे ससुराल हो गए। पहले कद्दावर पत्रकार थे, बेईमानों-राजनीतिज्ञों को सरेआम हड़काया करते थे। मगर आजकल समाज में मचे किसी भी हड़बोंग पर भाजपा की बड़की-बुआ बन कर ससुराल का पक्ष मीडिया में दिया करते रहते हैं।
आज मैं उनके घर जा धमका। सब कुछ खिलाने पर आमादा थे शलभ, सिर्फ खबर को छोड़ कर।
कुछ भी हो, बकुल को आशीर्वाद देने में शलभमणि और उनकी माता जी तथा उनकी पत्नी ने कोई भी कसर नहीं छोड़ी। बहुत सीधी और बेहद शालीन हैं शलभ की पत्‍नी। मुझे अंकल कह कर बोलती रहीं। गनीमत थी कि शलभ की माता जी ने मुझे बेटा कह कर दुलराया। खुदा-न-ख्‍वास्‍ता मुझे दादा जी पुकार देती थीं, तो फिर मैं कहां जाता। आप कितने भी तनाव में हों, किसी नैसर्गिक तोहफा की तरह शलभ की बिटिया और बेटा को देखते ही तनाव-मुक्‍त हो जाएंगे।
घर में दो कुत्‍ते हैं। वॉच-डॉग नहीं, ओरीजिनल कुत्‍ते। वॉच-डॉग तो केवल एक ही था, जब अब भाजपा में शामिल हो गया है। बहरहाल, दोनों ही जर्मन-शेफर्ड हैं। बड़ा यानी एक बरस की उम्र वालेका काम केवल भौंकना है, जबकि ढाई महीने वाला जितनी बार भी भौंकने की प्रैक्टिस करता है, पांच से सात ग्राम सूसू निकाल देता है।

खैर, शलभ एक ऐसा शख्स है जो वाकई जिंदादिल है, सदाबहार। तत्‍काल तो कोई उपमा नहीं सूझ पा रही है, लेकिन इतना जरूर है कि अगर आप इंटरनेशनल वन-डे क्रिकेट देख रहे हों, और वहां शलभ भी दर्शक-दीर्घा में हों तो फिर आप केवल शलभ को ही देखेंगे, मिलेंगे, बतियाएंगे। चियर-गर्ल्‍स की ओर तो झांकेंगे भी नहीं। चार्मिंग पर्सनाल्‍टी नहीं, बाकायदा चार्मिंग-पर्सनाल्‍टा है शलभ के व्‍यक्तित्‍व में।
केवल मैं ही नहीं, शलभ के हर मित्र को शलभ पर गर्व रहता है। बाकी ज्यादातर बड़े पत्रकारों को पीठ-पीछे ही नहीं, कुछ को तो सरेआम और मुंह पर गाली-लानत मिलती है। भर-भर गालियां उचीलते रहते हैं पत्रकार, ऐसे पत्रकारों के नाम और उनके कृतित्‍व के नाम पर। पानी पी-पी कर।
कहो तो, कुछ-एक ही नहीं, दर्जनों का नाम भी गिना दूँ, जो पत्रकारिता के नाम पर बदबूदार नाम हैं। कोई पुलिसवालों का मुंहलगा साला बना घूमता है, तो हेली-कॉप्‍टर से सैर कराने से लेकर ठेका-पट्टा खींचने में कुख्‍यात। कुछ तो अक्‍सर दारू-पीकर दंगा-हल्‍ला करते हैं और अक्‍सर सरेआम पिट जाते हैं। कोई दलाली को लेकर कुख्‍यात है तो कोई चड्ढी को लेकर। अधिकांश तो साफ झूठ बोलते हैं, और सिर्फ झूठ ही बोलते हैं। बड़ी-बड़ी लन्‍तरानियां फेंकते हैं ससुरे। कोई पत्रकारों के बीमा निधि में घोटाला में लिप्‍त है, तो कोई नेताओं को तेल लगाने में माहिर। साबुत कलंक।
लेकिन शलभ एक नायाब नगीना है। निष्‍पाप, निष्‍कलंक और बेदाग।

1 thought on “आइये, शलभमणि त्रिपाठी को शहद लगा कर चाटा जाए

  1. प्रशंसा की शैली अत्यंत प्रशंसनीय है, आपके प्रेम पूर्ण हृदय को सादर प्रणाम…!
    भाई शलभ जी और आपकी मित्रता अनन्त काल तक चिरंजीवी रहे….!!

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