: पतंग के चलते हर घर में झंझट, भाईचारा जैसा माहौल कहीं था ही नहीं : न्यू क्रियेटिविटी, आवश्यकता ही नूतनता का जननी : गोंदनुमा लसलसा और चिपचिपापन लसोढ़ा ही हम मुफलिस पतंग-भिखारियों का आखिरी सहारा था, जैसे अजमेर-शरीफ की मजार :
कुमार सौवीर
लखनऊ : हुसैनगंज में हमारा एक दोस्त हुआ करता था पप्पू, यानी संतोष कश्यप। पतंग का पागल-आशिक। उसको जिल्दसाज मौलाना का यह तर्क समझ में ही नहीं आता था कि जरूरत है लेई की, लेकिन खोपड़ी में ठूंसा जा रहा है ज्ञान। बात वाजिब भी थी। जब जरूरत हो, तो ज्ञान कौन सीखना चाहता है ? और फिर पप्पू ही क्यों, अधिकांश बच्चे भी इसी तरह सोचते और गुस्साते रहते थे। पतंगसाजों पर भी गुस्सा कि पैसा क्यों मांगते हो, जिल्दसाज पर भी गुस्सा कि वह बिना लेई के ज्ञान काहे ठेलता है। उस्तादों पर भी गुस्सा कि मुझे जल्द से जल्द इस लायक क्यों तैयार नहीं करते हो, कि मैं शर्त-बद कर अपना शौक पूरा कर सकूं। गुस्सा तो उन लोगों पर भी होता है कि कटी पतंग के पीछे भीड़ क्यों कटहे कुत्ते की तरह लग जाती है ? अरे, हमें भी तो पतंग लूटने का हक मिलना चाहिए। है कि नहीं ? लेकिन सबसे ज्यादा गुस्सा तो हर बच्चे को अपने बाप से हुआ करता था कि आखिर वे पतंग, सद्दी और चरखी-लेई लायक पैसा हमें क्यों नहीं देते हैं।
इन्हीं दिक्कतों ने हमारा पारिवारिक तानाबाना भी बैडली डैमेज कर रखा था। सच कहूं, तो भाईचारा जैसा माहौल तो किसी भी घर में कभी था ही नहीं। ज्यादातर बड़ा भाई ज्यादा पतंग लूटता था, जो छोटे भाई की ईर्ष्या का कारण हमेशा बना रहता था। नाका हिंडोला के आर्यनगर में हैदर कैनाल के छोर पर रहने वाले प्रवीण मिश्र आज भले ही सरकारी नौकरी में हों, लेकिन बचपन का किस्सा खूब चटखारे के साथ सुनाते हैं। दरअसल, छोटे भाई को बड़े भाई पर जो ईर्ष्या होती थी, उसका अहसास-अलहाम बड़े भाई को सबसे पहले रहता था। छोटा भाई हमेशा यही चाहता था कि बड़े भाई जो पतंग लूट कर लाया है, उसे छोटे भाई के हाथों तकसीम कर दे। अगर उसकी इस ख्वााहिश में तनिक भी ऐन-तैन हुआ, तो फिर मन करता था कि बड़े भाई की सारी लूटी हुई पतंगों को तार-तार कर दे, फाड़-फूड़ कर बरब्बर कर दे। तुर्रा यह कि इल्जाम भी न हो। सब का सब आसानी से ऐसा हो जाए, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
लेकिन बड़ा भाई अपने छोटे के भाई की साजिशों से बखूबी पहचानता था। इसीलिए घर के टांड़ यानी दो-छत्ती पर सारी लूटी पतंगें करीने से कुछ यूं लगा देता था, कि छुटके तक पहुंच न बन सके। छुटका भी मौका मिलते ही सारी जोर-आजमाइश कर देता था। सामान फेंक कर उसे तबाह-बर्बाद कर डाले की जुगत भिड़ायी जाती थी। इसके बावजूद लगातार असफल होने पर माता-पिता से शिकायतों का सिलसिला शुरू हो जाता था। दोनों ही पक्ष अपने तर्क पर डटे रहते थे। ऐसे मामलों में माता तो जन्मना मूक-बधिर बनी रहती थीं, जबकि मध्यस्थ की भूमिका निभाये पिता शुरुआत में बिलकुल निरुपाय ही बने रहते थे। असहाय। लेकिन मामले का समाधान करना भी था, इसलिए आजिज आकर वे सारी पतंग तोड़-मरोड़ कर उसे हैदर नाले के गंदे पानी में तिरोहित कर देते थे। पतंग का मामला तो निपट जाता था, लेकिन भाइयों में झगड़ा-टंटा का ग्राफ कुछ और बढ़ जाता था। दोनों ही पक्ष अगली बार नयी तकनीकें खोजने में जुट जाते थे। न्यू क्रियेटिविटी, आवश्यकता ही नूतनता का जननी होती है।
भेंड़ीमंडी में हमारा एक लंगोटिया दोस्त हुआ करता था मेराज आलम। आज भी उसी तरह है, जैसे बचपन में था। बिलकुल्लै लफण्डूस। फूंक मार दीजिए, तो अच्छा-खासा इंसान-नुमा मेराज आलम कट चुके कनकउव्वा की तरह आसमान-नशीन हो जाएं। यह गये, वह गये। हम पत्रकारिता की लुटिया डुबोने में अपनी जिन्दगी खपा गये, तो मेराज आलम नाटक, सरकारी नौकरी, कठपुतली के बाद बुढ़ापे में फिल्मों की गली में घुस गया। वह तो वह उसकी बिटिया ने उसकी दाढ़ी पर उगी झाड़ूऔर खोपड़ी पर मकड़जाल को साफ कर उसका चबूतरा आकर्षक बना दिया। वरना उसकी शक्ल-सूरत सनिच्चर बाबा के डीह पर मंडराते चील-चिलउव्वा की तरह ही दीखती थी, कि रात-बिरात लोग-बाग उसे देखते ही हनुमान-चालीसा पढ़ना शुरू देते। लेकिन कमाल निकला यह पट्ठा। गुलाबो-सिताबो फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ बगलगीर वाली भूमिका निभा गया। आज हालत यह है कि सड़क पर उसके दीखते ही उम्रदराज महिलाएं बोल पड़ती हैं कि हाय अल्लाह ! कितना जवान बुड्ढा है माशा अल्लाह ! और हम हैं कि खूसट के साथ लपड़-झपड़ कर रहे हैं।
लेकिन पहले लसोढ़ा का किस्सा सुनते तो जाइये।
हुआ यह कि पिछले कई दिनों से बेहाल लीवर खराब होने वाली मेरी सेहत की खबर सुन कर मेराज आलम मेरे घर आया। देर रात तक हम बतियाते रहे। जिन्दगी टूटन से लेकर जोड़ तक को लेकर किस्से हुए। कैसे, क्या, कितना, कब टूटा और कैसे जुड़ा। टूटन पर तो नहीं, लेकिन उसके जुड़ाव को लेकर लसोढ़ा बस यूं ही बीच में टपक पड़ा। मेराज ने याद दिलाया कि पतंगसाजों और जिल्दसाजों की क्रूर-व्यावसायिक उपेक्षा के बाद हम लोगों के पास सिर्फ इकलौता रास्ता हुआ करता था लसोढ़ा। गोंदनुमा लसलसा और चिपचिपापन ही हम मुफलिस खिलाडि़यों का आखिरी सहारा हुआ करता था। मेराज ने याद दिलाया कि अमीनाबाद के रानीगंज की तो एक गली का नाम ही था लसोढ़ा वाली गली। ऐसी ही एक गली लालकुआं में भी थी। लेकिन अब न वहां लसोढ़ा का पौधा-झाड़ बचा, और न ही गली का नाम।
अब तो गम, गोंद, फेवीक्विक जैसे कई ट्यूब या पॉली-पैक भी बाजार में आ गये हैं। लेकिन सच बात तो यह है कि दिलों को जोड़ने का जो कमाल हमारे दौर में हुआ करता था, वह कमाल था। बिलकुल लसोढा की ही तरह। बिलकुल सस्ता, किफायती और टिकाऊ भी। जवानी गारत होने के बाद जिन्दगी में जब भी कुछ नया जोड़ने की कोशिश की मैंने, हमेशा लसोढा ही याद आया।
आई लव यू लसोढ़ा।
( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्न समूहों के प्रतिनिधि-व्यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– पांच )