लसोढ़ा चखे पतंगबाजी क्‍या खाक समझोगे ?

बिटिया खबर

: रामपुर और बरेली में भी होती है पतंगबाजी, लेकिन जमघट सिर्फ लखनऊ में : मुझे तमीज की लीक पर लाने के लिए पापा ने लगाया था लसोढ़ा : झगड़े में भी सम्‍मान से बात करना भी लखनवी लसोढ़ा-पन ही तो है : लखनवी तमीज में जो लोग बचे हैं, लसोढ़ा का ही असल कमाल है : पतंगों का नियंत्रण उस्‍तादों के हाथों में सिमटते-फिसलते मंझा, सद्दी और चरखी पर :

कुमार सौवीर 

लखनऊ : आज जमघट है। जमघट का मतलब लोगों का जमावड़ा। बाकी जगहों पर किसी भी त्‍योहार के अगले दिन को परेवा कहा जाता है, लेकिन लखनऊ में यह दिन जमघट के तौर पहचाना जाता है। और खास कर कोई तीन-चार दशक पहले तो लखनऊ में जमघट का मतलब होता था पूरे आकाश पर पतंगों की भरमार, ठीक वैसे ही जैसे अरब से पाकिस्‍तान से होते हुए पूरे उत्‍तर भारत की फसल को किसी तूफान की तरह चट कर जाने वाली टिड्ढियों की फौज। एक दौर तो ऐसा हुआ करता था कि लोगों को अपनी पतंग उड़ाने के लिए जगह तक नहीं मिलती थी, अपनी पतंग का पहचाना तो दूर की बात।
खैर, चूंकि आज से 40-45 बरस पहले तक पूरा लखनऊ ही नवाबों का शहर माना जाता है, इसलिए उसके रवायत, उसकी रवानगी, उसका अंदाज, उसकी गालियां, उसके शौक और उसकी बोली-भाषा ही नहीं, बल्कि बातचीत का अंदाज निहायत अलहदा हुआ करता था। पहली पहचान हुआ करती थी लखनऊ के आसमान में उड़ते कबूतर और परस्‍पर कट्टम-कट्टा करने पर आमादा पतंगें या फिर कनकउव्‍वा । लेकिन कबूतरों का नियंत्रण कबूतरबाजों की सीटियां या उनकी खास आवाज हुआ करती थी, जबकि पतंगों का नियंत्रण उनके उस्‍ताद पतंगबाजों के दोनों हाथों में सिमटते-फिसलते मंझा, सद्दी और चरखी से जुड़ी उनकी नाल से जुड़ता था।
क्‍या छत, और क्‍या मैदान। वह क्‍या बेमिसाल नजारा हुआ करता था। सुबह से लेकर शाम तक पूरा आसमान सतरंगी पतंगों-कनकउव्‍वों से छाया रहता था। छुट्टियों के दिनों में तो मानो मेला लग जाता था पतंगबाजी का। खास कर इमामबाड़ा, हुसैनाबाद, गोमती नदी के दोनों ओर। नदवा और छतरमंजिल के दोनों हिस्‍सों पर तो जलसा जैसा माहौल हुआ करता था। झंडीवाला पार्क, नवाब गूंगा पार्क और आसपास का कोई भी ऐसा खुला इलाका नहीं हुआ करता था, जहां पतंगबाज अपना अड्डा न जमाये रहते हों। बेगम हजरत महल पार्क और सआदत अली का मकबरा के अलावा स्‍टेडियम और जीपीओ जैसे खुले पार्क नुमा इलाके भी रौनक हासिल रखते थे। अजायबघर यानी चिडि़याघर में ऐसा जमघट नहीं लगता था। वजह यह कि वहां इंट्री पर टिकट पैसा लगता था। ऐसी हालत में आसपास के खाली इलाकों में और खास कर गोल्‍फकोर्स के आसपास के खाली मैदानों पर अपने पैंतरे लगाया करते थे। हनुमान सेतु से निशातगंज वाले बंधे पर, जहां आज खाटू महराज मंदिर वाला धार्मिक-मार्केट बन गया है, वहां कोई जाता ही नहीं था। वहां दिन-दहाड़े अपराध होता था।
हम तो खैर बहुत नन्‍हे थे, लेकिन सीखने की ललक में बेमिसाल। वजह और सिर्फ वजह थी पतंग। बहुत हुआ तो कंचे। बहरहाल, पतंगबाजों के माहिर उस्‍तादों के हर लहजे, अंदाज को हम निहारने का कोई मौका नहीं चूकते थे। मसलन, कनकउव्‍वा को कन्‍ने से चेक करना, आसमान में उनके कन्‍ने को तानना या उसे ढील देना। उसे फड़फड़ा देना, एक खास अंदाज में उनका पीक थूकने का अंदाज सब का सब हम सब के लिए अलौकिक और आश्‍चर्यजनक हुआ करता था। बावजूद इसके कि हम यह कभी भी नहीं समझ पाये कि आखिरकार वे उस्‍ताद लोग ऐसे अंदाज क्‍यों दिखाया करते थे। वह तो बाद में पता चला कि यह उनकी सब उसका शोशा यानी दिखावा भर था। तबलची या हारमोनियमबाज लोग अपने सामान पर संगत देने के पहले कुछ देर तक टींटूं, पींपूं जैसा कुछ बेवजह धुन लगाते थे, ठीक वैसा ही। असल कमाल तो मैदान में दिखता है न ! फिर यह सारी नौटंकी काहे को ?
लेकिन जब तक यह समझ में आया, वक्‍त काफी निकल चुका था। हम सब अपने काम में फंस गये थे और इतना भी वक्‍त नहीं बचा था कि जाते, और उस उस्‍ताद को दो-चार कंटाप रसीद कर पूछते कि क्‍यों म्‍यां ! आपने हमारा टाइम क्‍यों खराब किया, जब आपको भी कुछ नहीं आता-जाता था ?
झगड़े में भी सम्‍मान से बात करना भी लखनवी लसोढ़ा-पन ही तो है ! झगड़ा भी होगा, तो आप से ही शुरू होकर खत्‍म तक निपटेगा।
उस वक्‍त भी मारपीट की बात तो अलग बात थी, लेकिन गाली-गलौज के बजाय हम हमेशा तमीज से ही पेश किया करते थे। मजाल था कि हम सब में किसी के मुंह से गुस्‍से में तुम शब्‍द तक निकल जाए। जब भी सम्‍बोधन से निकलता था, हमेशा आप ही सम्‍बोधन होता था। हां, दोस्‍ती की बात अलग है। लेकिन इसके बावजूद आज की भोंश्री-झोंपड़ीके या आदर-फादर जैसी गालियों को तो तब हमने कभी सुना ही नहीं था। पूरा मोहल्‍ला तो दूर, दूर-दूर तक ऐसी गालियों के बारे में कोई कल्‍पना ही नहीं कर सकता था। लाहौल बिला कूवत।
हां, एक बार मैंने मोहल्‍ले के एक हमउम्र लड़के को साला कह दिया। पापा ने सुना, तो करीब दो घंटे तक हमारी जबरियन मालिश आसपास की गली में दौड़ा-दौड़ा कर होती रही। हालत यह थी कि मा-बदौलत अगले करीब 10 दिनों तक बिस्‍तर पर उठने के पहले कांख-कांख की आवाज ही निकाला करते थे। लेकिन जुबान और तमीज की कमीज को वापस तमीज की लीक पर लाने के लिए जो आक्रामक-लसोढ़ा का प्रयोग पापा ने इस्‍तेमाल किया, उसके बाद से ही मैं लखनवी तमीज और तमुद्दन ही नहीं, लहजा, अंदाज और खालिस नखलवी संस्‍कृति का एम्‍बेसडर ही बन गया। भूख से जूझने के लिए जब मैं जोधपुर के दैनिक भास्‍कर में पाली-मारवाड़ में नौकरी करने गया, तो बातचीत शुरू होते ही लोग बोल पड़ते थे कि क्‍या आप लखनऊ के रहने वाले हैं ? आजीवन क्रीत-दास, यानी गुलाम। आज भी तमीज और अदब के गुलामों की तादात लखनऊ में बाकायदा मौजूद है, लेकिन आंखों में आंसू निकल जाते हैं जब यह कहना मजबूरी हो जाए कि ऐसे लोगों की तादात काफी कम हो चुकी है। लेकिन जो भी बचे हैं, उन पर ऐसे लसोढ़ा-पन का ही असल कमाल है।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– चार )

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