तुम्‍हें न वकालत आती है, न मुंशीगिरी। जजी क्‍या करोगे: बोले वीरेंद्र भाटिया

बिटिया खबर

: वकालत की दुनिया में अद्भुत शख्सियत थे वीरेंद्र भाटिया, लेकिन आखिरी वक्‍त में सब साथ छोड़ गये : दूसरों को जोड़ने और उनकी जरूरतों के चक्‍कर अपने ही लसोढ़ापन का शिकार बन गये वीरेंद्र भाटिया : बड़ा जिगर था रमेश पांडेय का। वे अपनी जरूरतों को भी बौना बना सकते थे : रमेश की आत्‍महत्‍या की मिस्‍ट्री सुलझाने की कोशिश किसी ने नहीं की :

कुमार सौवीर

लखनऊ : यह दोनों ही लोग वाकई जी-दार कद्दावर शख्सियत थे। अपनों को बाल बरब्‍बर कोई भी दिक्‍कत का अहसास होता, तो चारपाई छोड़ कर मौके पर पहुंच जाते थे। जितना भी हो पाता, कर बैठते। कभी भी सोचा तक नहीं कि कौन उनके खेमा का है, और कौन उनके खिलाफ वाले खेमे का है। उनका मतलब अपने बिरादरी यानी वकालत से है। कोई जानकारी वाला हो, करीब हो, दूर का हो या फिर तनिक भी परिचय का न हो, यह दोनों ही अपना कामधाम छोड़ कर उसकी सहायता कर बैठते थे। ऐसा नहीं कि वे बाकी लोगों के प्रति ऐसा नहीं करते थे, लेकिन अपने बिरादरी का कोई निकला तो उसके प्रति उनकी प्रियॉरिटी बदल जाती थी। लेकिन एक का आखिरी दौर बहुत कष्‍ट पर बीता, जबकि दूसरे ने अपने दफ्तर से ही कूद कर आत्‍महत्‍या कर ली।
यह बात हो रही है यूपी के महाधिवक्‍ता और दिग्‍गज वकील रहे वीरेंद्र भाटिया और मुख्‍य स्‍थाई अधिवक्‍ता रहे रमेश पाण्‍डेय की। वीरेंद्र भाटिया ने पैसा भी खूब कमाया और नाम भी खूब कमाया। क्रिमिनल का वकील होने के बावजूद वीरेंद्र भाटिया पहली बार ऐसे महाधिवक्‍ता बन गये, जिस पर हमेशा से ही सिविल क्षेत्र का वकील ही बैठता था। हालांकि सभी राजनीतिक दलों में उनकी पैठ थी, लेकिन समाजवादी पार्टी के जमाने में वे महाधिवक्‍ता बन गये।
हमारे पड़ोसी रहे हैं वीरेंद्र भाटिया। मैंने उनको अपने घर, अदालत से लेकर पॉलिटिकल पार्टी और विधानसभा के गलियारों में अक्‍सर देखा है। वर्सिटाइल एटीट्यूट। दुबला-पतला, लेकिन बाज की तरह तीक्ष्‍ण। आत्‍मीयता तो उनकी रग-रग में जमी हुई थी। वाराणसी में दैनिक हिन्‍दुस्‍तान की पोस्टिंग के दौरान मैं कुछ दिन जौनपुर में रहा। उस दौर में वीरेंद्र भाटिया उत्‍तर प्रदेश के महाधिवक्‍ता थे।

उसी दिन एक दोपहर भाटिया जी का कार्यक्रम जौनपुर के बार एसोसियेशन में हुआ। रिपोर्टिंग के लिए मैं भी मौजूद था। पूरा प्रशासन और पुलिस का तामझाम पूरे दौरान चिपका हुआ था। मुझसे आंखें मिलीं, सम्‍मान में मैंने दूर से ही अपने हाथ जोड़ नमस्‍ते कर लिया। मुझे देखते ही उनका चेहरा चमक पड़ा। वे अपना कामधाम छोड़ कर मुझे सड़क पर ही काफी देर तक अलग बात करते रहे। झौवा सी बातें, ढेर सारी कैफियत। मेरी लम्‍बी गैरमौजूदगी, न फोन, न मुलाकात का सबब, पुरानी यादें, पूछताछ, वगैरह-वगैरह। मौजूद लोग भौंचक्‍का, कि जौनपुर में ऐसा कौन है, जिससे भाटिया जी अकेले में और लम्‍बी बात कर रहे हैं। सच बात तो यही है कि किसी भी रिपोर्ट में कानूनी पक्ष को जानने के लिए मेरी पहली पसंद केवल वीरेंद्र भाटिया ही हुआ करते थे।
लेकिन यह व्‍यवहार केवल मेरे प्रति ही नहीं, बल्कि पूरी न्‍यायपालिका को लेकर भी था। मुझे याद है कि एक जज साहब को शिवगढ़ रिजार्ट में कुछ महिलाओं के साथ पकड़ा गया था। पुलिस को रौब झाड़ने के लिए जज साहब ने खुद का परिचय जज के तौर पर दिया। इस पर पुलिसवालों ने उस जज को झंपडि़या दिया और बताया कि, “जो भी दुराचारी-अनाचारी मिलता है, वह अपने को जज ही बताता है। बंद करो साले को हवालात में।” मुझे खूब पता चला कि तब तक कई बड़े वकीलों के साथ मौके पर पहुंच गये और जज साहब को बचाया। मैंने तो हाईकोर्ट में कई लोगों को गिड़गिड़ाते हुए भाटिया जी से खुद को जज बनाने की रिफारिश करते देखा। एक बार तो भाटिया जी इतना भड़क गये कि सरेआम झिड़क दिया एक वकील को कि,  “यार ! जज बनाने की फैक्‍ट्री मैं अपनी चढ्ढी में नहीं रखता हूं। एक बार जब कह दिया है कि हो जाएगा, तो हो जाएगा। मेरा पिंड न पकड़ो, छोड़ दो। मुझे खूब पता है कि तुम्‍हें न तो वकालत आती है और न मुंशीगिरी। और मुझे तो हैरत ही इस बात पर है कि तुम जजी कैसे कर पाओगे।” हैरत की बात है कि बाद में उसके बाद के एक वक्‍त में उस वकील को मैंने बाकायदा जज बनते भी देख लिया।
यही हालत रमेश पाण्‍डेय की हुआ करती थी। वकालत में उन्‍होंने काफी कमाई की। उनका मकसद न्‍यायपालिका के बड़े ओहदे तक पहुंचना। इसके रास्‍ते के तौर पर उन्‍होंने मुख्‍य स्‍थाई अधिवक्‍ता तक का ओहदा कुबूल कर लिया। हालांकि वे पहले अवध बार एसोसियेशन के महामंत्री रह चुके थे, लेकिन आखिरी दौर में उन्‍हें अहसास हो गया कि उनका भ्रम केवल भ्रम ही था। इसके लिए उन्‍होंने आखिर में एसोसियेशन में अध्‍यक्ष पद पर लड़ने की तैयारी कर ली। इसके लिए सीएससी यानी मुख्‍य स्‍थाई अधिवक्‍ता पद से इस्‍तीफा तक दे दिया। एक साथी से उनकी काफी तल्‍खी तक हुई। बताया तो यह भी था कि एक बड़े दिग्‍गज ने जितनी भी गालियां दी सकती थीं, दे दीं। चर्चा तो यह भी हुई कि एक बड़े ओहदे के लिए उन्‍होंने एक बड़े चैम्‍बर के मालिक वकील को करीब पचास लाख रुपयों का दे दिया था। लेकिन वे गच्‍चा खा गये।
कुछ भी हो, अपनों के लिए उनका जिगर बहुत बड़ा था। इतना, कि वे अपनी जरूरतों को भी बौना बना सकते थे, बशर्ते उनसे मदद मांगने वाला उनके सामने आ जाए। भसोट, यानी औकात उस समय हो या न हो, लेकिन वे सामने वाले की जरूरत को पूरा करने के लिए जुट जाते थे। एक वरिष्‍ठ वकील बताते हैं कि एक बार तो उन्‍होंने यहां तक कह दिया कि मेरे पास सिर्फ इतना रुपया है, बाकी तुम दे दो तो उसका काम निकल जाए। ऐसे एक नहीं, सैकड़ों उदाहरण दर्ज हैं रमेश पाण्‍डेय को लेकर। याद आज भी लोगों के दिल-दिमाग में धड़क रही है। बावजूद इसके, कि आज भी उनकी आत्‍महत्‍या की मिस्‍ट्री को सुलझाने की कोशिश किसी ने भी नहीं की।
बस, यहीं से तो वह असल सवाल है कि उनके जीवन में जोड़ने के लिए क्‍या बचा। जब खुद में चिपकाने का लसोढ़ा-पन उनके पास मौजूद था, तो उन्‍होंने आत्‍महत्‍या क्‍यों की ? और दूसरी बात यह कि अपने आखिरी दौर में वीरेंद्र भाटिया क्‍यों अलग-थलग क्‍यों हो गये ? क्‍या वजह है कि वे किसी अनजान की मौत तक सिमट रह गये ?
जवाब है एक सा। रमेश पाठक की आत्‍महत्‍या के बाद से दूसरों के पास कोई भी ऐसी जरूरत नहीं बची, जो उनकी तनिक भी पूरी कर पाती। और उधर वीरेंद्र भाटिया अपनी जाति के पास इकलौते शख्‍स थे, जो न्‍यायपालिका में थे। उनके पास दूसरों को प्रश्रय-आश्रय देने के लिए विशाल तम्‍बू-टेंट था। बड़ा औरा या प्रभा-मण्‍डल था उनके पास। इतना कि, दूसरों को उर्जा देने की अपूर्व, पर्याप्‍त और अखण्‍ड क्षमता था कि किसी अक्षय-पात्र भी कम पड़ जाता। लेकिन उनके असाध्‍य बीमार होते ही उनके पास मंगतों की संख्‍या अचानक गिर गयी और अंतिम तक तो उनके पास ऐसे लोगों का जाना ही बंद हो गया था।
एक ऐसा लसोढ़ा जो जीवन दूसरों की दिक्‍कतों को जोड़ने, चिपकाने और उनकी जरूरतों को पूरा करता रहा हो, वह आखिरकार अपने ही लसोढ़ापन का शिकार बन गया और अपने ही लसोढ़ापन उनको सूखते हुए उन्‍हें ठूंठ बनाता रहा। आज तो उन दोनों का नाम ही कोई नहीं लेता हाईकोर्ट में।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– दस )

1 thought on “तुम्‍हें न वकालत आती है, न मुंशीगिरी। जजी क्‍या करोगे: बोले वीरेंद्र भाटिया

  1. गुरूवर ।सादर साष्टांग दंडवत् प्रणाम–असफल मनोगति की हार–को आपने लसोढ़ा मे समेटा लजीज सवाल है–आखिर खुबसूरत कुबेरी की गति कहां हार जाती है ।कौनसा इंद्रजाल है जहां आदमी फंस जाता है??समाज की लंगोट से आपकी लंगोट कितनी बेहतर है यहां ये जानना बहुत जरूरी हो जाता है –लंगोट के आप कितने पक्के है ??समाज की तीखी बाज नजरो के शिकंजो से बचने के आप कितने धनी है ये आत्मविवेचना पर निर्भर है ।आप नंग धडंग है तो नंगो के नौ गृह बलवान है दसवे आप खुद है तो कोई बात नहीं –संघर्ष के सौपान का स्वाद लेते रहेगे–लोग क्या कहेगे ??क्या मुंह दिखाऊंगा–दिल पर ले बैठी जिंदगी हार गयी—आत्महत्या अपराध नहीं विवेचना मे खुली सरकारी छूट है–क्या राष्ट्र को आपकी परवाह क्यो नहीं ??यदि आप कुछ ऐसा कुछ करना चाहते है तो सरकार के सामने अपनी मनव्यथा कहने का अवसर क्यों नहीं —??(हम आपकी हर कढ़ी की विवेचना मे गुरूवर के साथ दो शब्द रखेगे )

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