मी टू अभियान से उसके मन में भी तूफान उमड़-घुमड़ रहा है

बिटिया खबर
: जनसंदेश टाइम्‍स के समूह सम्‍पादक मी-टू पर पिघल रहे हैं अपने बचपन की कहानियों पर : ६४-६५ में मौसम आज की तरह नहीं था। तब खूब आंधियां आतीं, खूब पानी बरसता : घर से झोले में टाट ले जाता और लड़कियों की पांत के सामने बिछा देता :

सुभाष राय

लखनऊ : जब से मी टू अभियान चला है, उसके मन में भी तूफान उमड़-घुमड़ रहा है। कहे, न कहेे। कहता है तो लोग कैसा महसूस करेंगे। जिन्हें यकीन‌ है कि वह केवल शुद्धतावादी ही नहीं शुद्ध भी है, उन पर क्या गुजरेगी, उन्हें कितना सदमा पहुंचेगा।

बहुत सोच-विचार के बाद वह मेरे भीतर उतर‌ गया और मुझसे बोला, अब मुझसे रहा नहीं जाता, सुनो मेरी कथा। मन करे तो लिख लेना और चौराहे पर खड़े होकर बांच देना। तो मैं पढ़ रहा हूँ ।
बचपन से ही वह प्रश्नों से घिरा रहता था। उसे लड़कियां बहुत अच्छी लगती थीं। तब उसे यह भी ठीक से पता नहीं था कि वे क्यों अच्छी लगती हैं। फ्रायड को उसने बाद में‌ पढ़ा। कक्षा दो में ही वह लड़कियों के सामने बैठने को लेकर सहपाठियों से झगडा कर लेता। पिटता और पीटता भी। घर से झोले में टाट ले जाता और लड़कियों की पांत के सामने बिछा देता और उस पर अकेले इस तरह बैठता कि सबसे एक साथ मुखातिब रहे। उन‌ सबमें जो सबसे अच्छी लगती, बहुत मेहनत करके कई महीने में उसके नाम उसने एक प्रेमपत्र लिखा। एक बड़े कवि की प्रेम कविता उठायी, ऊपर प्रियतमे लिखा, नीचे अपना नाम। रोज उसे लेकर स्कूल‌ जाता कि आज तो दे ही देगा पर उसे कभी दे नहीं सका। बार-बार मोडंने और थैली में रखने के कारण धीरे-धीरे उसकी चिंदी उड़ गयी।

जैसे-जैसे बड़ा होता गया, यह आकर्षण बढ़ता गया। ६४-६५ में मौसम आज की तरह नहीं था। तब खूब आंधियां आतीं, खूब पानी बरसता। आम के मौसम में जब आंधी-पानी आने को होता, आकाश पहले धूसर पड़ता, फिर भूरा-काला। वह भागकर बगीचे में पहुंच जाता। उसे विश्वास होता, वह भी जरूर आयेगी। वह पागल की तरह गरजते- बरसते मौसम में उसे ढूंढता। कभी घंटों की भाग-दौड़ के बाद भी वह नहीं दिखती, कभी दिख जाती। भीगी हुई, और भीगती हुई। एक पारदर्शी फूल की तरह। जब वह सामने होती तो वह उसे निहारता रह जाता। भीतर बिजली कौंधती पर पांव आगे नहीं बढ़ पाते। मन होता, बोल दे, कह दे कि उसे पाना चाहता है, पर कह नहीं पाता। तब उसे सच में यह भी पता नहीं था कि पाना क्या है। बस वह ऐसे ही भीगी हुई बैठी रहे सामने और समय ठहर जाय। पर ऐसा होता नहीं। वह ठिठका हुआ खड़ा रह जाता और वह सधे हुए कदमों से घर की ओर बढ़ती हुई घने बादलों में‌ खो जाती। उसके भीतर का बवंडर पूरे दिन उसे मंथता रहता।

(आगे की कथा जब मन होगा सुनाऊंगा)

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