मेरे दुख-सुख का भागीदार था कमाल खान

बिटिया खबर

: दोस्‍त के रुखसत हो जाने पर उसके दुर्गुणों और गुणों का बखान करना जरूरी : चाहे मुस्लिम सभासदों को भड़काने की साजिशें या फिर बेटी का विवाह, कमाल खान हमेशा साथ रहा : पिता सियाराम शरण त्रिपाठी, रिचा, मित्र वीपी पांडेय, मां, चाची और अतुल पांडेय के बाद अब कमाल खान एक अपूरणीय क्षति :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मेरा साफ मानना है कि दोस्‍ती में कोई हिसाब-किताब नहीं होता। लेकिन दुनिया से किसी दोस्‍त के रुखसत हो जाने पर उसके दुर्गुणों और गुणों का बखान करना जरूरी होता है। मेरी जिन्‍दगी में कई अजीमुश्‍शान हैसियतें रही हैं, जो उनकी मृत्‍यु के बावजूद मेरे जेहन में आज तक ताजा हैं। सबसे पहले तो मेरे पिता स्‍वर्गीय सियाराम शरण त्रिपाठी, फिर मेरे मित्र और एसबीआई में एजीएम रहे स्‍वर्गीय वीपी पांडेय, चाची स्‍वर्गीय शिवानी त्रिपाठी, फिर मां स्‍वर्गीय सत्‍यप्रभा त्रिपाठी, फिर स्‍वर्गीय वीपी पांडेय का बेटा अतुल पांडेय के बाद अब कमाल खान। बाकी लोगों की ही तरह कमाल खान भी अब भले ही पार्थिव होकर हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो चुके हों, लेकिन उनकी खनकती पहचान मेरे दिलदिमाग में हमेशा-हमेशा गूंजती रहेगी।
सन-89 से कमाल खान के साथ मेरा परिचय हुआ। ऐसा नहीं था कि कमाल खान और मुझमें कभी कोई विवाद नहीं हुआ, खूब हुआ। लेकिन उससे भी ज्‍यादा रही है हमारे के बीच बेबाक समझदारी। तब भी कमाल खान मुझसे बहुत जूनियर था, और तब भी जब कमाल खान पत्रकारिता जगत में चमकता सितारा बन चुका। चाहे संकटों के दौर में वह मेरे साथ कदमताल करता रहा, चाहे जब जब मैं हमेशा-हमेशा के लिए बेरोजगार हो चुका और मेरी बेटी का विवाह समारोह हो। कमाल खान अपनी पत्‍नी रुचि कुमार के साथ बिटिया की शादी में काफी देर तक मौजूद रहा।
बात करीब 30-32 बरस पहले की है। मैं लखनऊ के दैनिक जागरण में वरिष्‍ठ संवाददाता था, जबकि कमाल खान अमृत प्रभात में काम करता था। यहां केवल औपचारिक पहचान भर ही थी हममें। लेकिन इसी बीच कमाल का सलेक्‍शन नवभारत टाइम्‍स में रिपोर्टर के तौर पर हो गया। कई दीगर बीट रिपोर्ट के अलावा मैं नगर महापालिका ( बाद में यह नगर निगम बन गया ) और एलडीए की भी रिपोर्टिंग करता था, जहां कमाल भी कवरेज करता था। जाहिर है कि हम एक-दूसरे से बहुत तेजी के साथ करीब होने लगे। खबर के अलावा कोई दीगर इंटरेस्‍ट न तो मुझ में था, और न ही कमाल को। खबर और सिर्फ खबर। एक-दूसरे को समझने की कोशिशें लगातार बढ़ती रहीं। रुटीन की खबरों का आदान-प्रदान भी हम लोगों के बीच होने लगा। यह परिचय प्रगाढ़ता के पायदानों तक बढ़ने लगा।
उस वक्‍त महापौर थे डॉक्‍टर दाऊजी गुप्‍ता। पढ़ेलिखे शख्‍स थे। तहजीब और व्‍यवहार में बेहतरीन। केसरी किमाम के नाम पर उनका एक प्रोडक्‍ट तब ब्रिटेन, अमेरिका और पाकिस्‍तान समेत कई देशों में फैला था। विदेश यात्राएं होती ही रहती थीं उनकी। तब कांग्रेस में थे, इसलिए कांग्रेस ने उनको महापौर का टिकट थमा दिया था। मगर वे मूलत: एक सम्‍पूर्ण आश्‍वासन-गुरू थे। बात-बात पर झूठ बोलने और डींग हांकने में माहिर। मैं खबरों पर काम करता था, जब कि डॉक्‍टर गुप्‍ता हवाई गुब्‍बारे फुलाने में चालाक। जाहिर है कि मुझसे उनकी ठन गयी।
इसी बीच बादशाह खान, आसिफ उल्‍ला, कमल सोढ़ी, काजिम हुसैन, यावर हुसैन रेशू वगैरह ने दाऊजी के खिलाफ अविश्‍वास प्रस्‍ताव रख दिया। उनके साथ मिर्जा अजहर बेग आदि भी शामिल थे। शुरूआत में तो बादशाह खान का मकसद था कि वे अपने आप को डिप्‍टी मेयर के तौर दावा ठोंकते। मुस्लिम सभासदों का एक गुट बन गया। हालांकि उसमें कई दीगर लोग भी जुटने। चेहरा तो कुल यही रहा कि यह अविश्‍वास प्रस्‍ताव के पक्ष में जो सभासद हैं, वे मूलत: कांग्रेस के लोग ही हैं। तय-तोड़ होने की खबरों में आने लगीं। बादशाह खान ने अपना दावा भी कमजोर किया।

यह सन-90 या सन-91 की बात है। नगर महापालिका परिषद की खबरों में हम और कमाल खान एक-दूसरे के मुकाबले नयी-नयी खबरों को खोजने-सूंघने लगे। मैंने इसी बीच एक खबर लिखी कि अविश्‍वास प्रस्‍ताव में जो मांगें हैं, उनमें मुस्लिम सभासदों की ख्‍वाहिशों के मुकाबले गैर-मुस्लिम सभासदों की चाहतों के काफी अलग ही हैं। दाऊ जी तेज दिमाग वाले नेता थे। इस खबर से उन्‍हें मौका मिल गया कि वे मुझ पर हमला कर मुझे नेस्‍तनाबूत कर अपना सिक्‍का जमा सकें।

उन्‍होंने इस मामले को हिन्‍दू मुस्लिम झगड़े के तौर पर प्रचारित किया और मुस्लिम सभासदों को एकजुट करने की कोशिश की। हालांकि इसमें सारे मुस्लिम सभासद एकजुट नहीं हुए थे, लेकिन नेशनल हेराल्‍ड, नवजीवन और कौमी आवाज नाम अखबार चलाने वाले संस्‍थान के कर्मचारी नेता काजिम हुसैन दाऊजी गुप्‍ता के खेमे में आ गये।

मेरे खिलाफ दाऊजी के नेतृत्‍व में इन सभासदों के साथ इन सभासदों ने एक जोरदार प्रदर्शन कर दिया। सम्‍पादक ने उन लोगों की बात सुनी और कहा कि कुमार सौवीर का पक्ष जानने के बाद ही वे इस मामले पर कोई फैसला करेंगे। कहने की जरूरत नहीं कि इस हमले से मेरे तोते उड़ने लगे थे। मैं परेशान हो गया। कमाल खान को इसका पता चल गया। कमाल मुझसे मिलने आया। बातचीत हुई, और तय हुआ तो अगली दोपहर हम दोनों काजिम हुसैन और दूसरे सभासदों के घर उनसे मिलने जाएंगे। लेकिन सबसे पहले काजिम हुसैन।

करीब 11 बजे हम दोनों काजिम के दफ्तर पहुंचे। एक तार्किक और कर्मचारी नेता थे काजिम हुसैन। हमें देखते ही काजिम सकपकाने लगे थे। बातचीत की शुरूआत कमाल ने ही की। कमाल ने पूरी बात बतायी। पूछा, कि कुमार सौवीर की रिपोर्ट में मुस्लिम विरोध कहां हैं। कमाल ने बताया कि जिसके पिता स्‍वर्गीय सियाराम शरण त्रिपाठी जिन्‍दगी भर पत्रकारों और कर्मचारियों के आंदोलन के अगुवा रहे, उनके बेटे पर ऐसी तोहमत लगाना अनौचित्‍यपूर्ण होगा।
काजिम हुसैन ने अपनी गलती मानी कि दाऊजी गुप्‍ता ने इस मसले पर सभासदों को भड़काया था। लेकिन साथ ही वायदा किया कि वे और उनके गुट के सभासद आइंदा सतर्क रहेंगे।

शाम को मैंने संपादक को पूरा मसला समझाया। वे संतुष्‍ट हुए। फिर हम लोगों ने जमकर रिपोर्टिंग शुरू कर दी। अब यह जरूर है कि सांप के बिल में हाथ डालने में मैं सतर्क रहने लगा। खुद को हमने यह सोच कर तसल्‍ली देना शुरू कर दिया कि हम खबरची होते हैं, तेजे-भाले वाले तलवारबाज नहीं।
21 जून-92 को मेरे जीवन का एक बड़ा भयावह हादसा हो गया। मेरी बड़ी बेटी अभी ढाई बरस की ही थी, कि उसे 107 डिग्री तक बुखार चढ़ गया। बेटी को मेडिकल कालेज के बच्‍चा वार्ड में एडमिट किया गया। पूरे घर डर के मारे थरथर कांपने लगा था। डॉक्‍टरों ने कहा था कि उसे नल के नीचे रख कर उसकी तपिश को दूर कीजिए, फिर पंखे में ले जाइये। यह दर्दनाक क्रिया था, बेटी के शरीर के लिए भी और हमारे घरवालों के मानसिक दशा के लिए भी। मेडिकल कालेज की प्रिंसिपल हुआ करती थीं डॉ पीके मिश्रा। मित्रों ने डॉ मिश्रा को मेरी दिक्‍कत बतायी। वे रात करीब साढ़े ग्‍यारह बजे वार्ड में आयीं। दवा समेत कई नयी व्‍यवस्‍थाएं ही नहीं, बल्कि हमें बड़े प्रेम के साथ तसल्‍ली भी दिया। अगले दिन उसका बुखार तो कम हुआ, लेकिन सलाह यही दी गयी कि अभी कुछ दिन वह अस्‍पताल में ही रहेगी। मैं भी दफ्तर से अवकाश में उसकी सेवा में जुटा रहा। अपने बच्‍चे से बड़ा कुछ हो भी नहीं सकता था।
28 जून-92 को मुझे खबर मिली कि स्‍थानीय संपादक विनोद शुक्‍ला ने मुझे लखनऊ के बजाय बरेली एडीशन के लिए ट्रांसफर कर दिया है। मैं सीधे दफ्तर पहुंचा, तो पता विनोद शुक्‍ला कहीं गये हैं और तीन दिन बाद ही लौटेंगे। मैं परेशान हो गया। एक ओर तो बेटी का स्‍वास्‍थ्‍य, तो दूसरी ओर मेरी नौकरी, जिस पर पूरा परिवार आश्रित था। राजनाथ सिंह मुझे मानते थे। मैं उनके पास गया। उन्‍होंने दैनिक जागरण के मालिक नरेंद्र गुप्‍ता को फोन किया और मेरे तबादले को खारिज करने की सिफारिश की। लेकिन नरेंद्र गुप्‍ता ने कोई वायदा करने के बजाय मुझे विनोद शुक्‍ला से ही बात करने की सलाह दी।
मैं चकरघिन्‍नी था। मैंने कमाल खान से पूरी बात की। कमाल भी चौंक पड़ा। नया दौर था, राजनीतिक रिपोर्टिंग के निचले पायदान पर थे हम। कमाल खान ने दाऊजी गुप्‍ता को फोन किया। उन्‍होंने हमें कार्लटन होटल के ओपन रेस्‍टोरेंट, जो अब सहारा गंज बन गया है, में बुलाया। दाऊजी आये, पूरी बात सुनी। संजीदा हुए। बोले कि जितना भी हो पायेगा, वे करेंगे जरूर। दाऊजी गुप्‍ता ने मुझे शराब पिलायी। करीब चार या पांच पैग मैं पी गया। भोजन करने लायक ही नहीं था। हम सब अलग-अलग हो गये। वह तो बाद में पता चला कि यह साजिश दाऊजी गुप्‍ता की ही थी। लेकिन उससे क्‍या होता ? कम से कम कमाल खान उस बुरे दौर में मेरे साथ तो रहा ही।
तबादले पर बरेली जाना मूर्खतापूर्ण था। बरेली यूनिट भी विनोद शुक्‍ला ही देखते थे। अगर मैं वहां जाता तो वहां मुझे उससे भी बदतर हालातों से जूझना पड़ता। चुनांचे, तय यह हुआ कि मैं अब नौकरी ही नहीं करूंगा। और फिर पूरे 11 बरस तक मैंने नौकरी को अपने फटहे जूते की नोंक पर ही रखा। हां, पत्रकारिता लगातार करता ही रहा। इस बीच कई मित्रों ने मुझे मदद की, कई काम दिलाये, लेकिन मैंने नौकरी नहीं की। सन-03 में मैं राजस्‍थान के जोधपुर के निकट पाली-मारवाड़ में दैनिक भास्‍कर ब्‍यूरो प्रभारी बन कर गया। वहां से मृणाल पांडेय और शेखर त्रिपाठी के सहारे दैनिक हिन्‍दुस्‍तान अखबार का वाराणसी व जौनपुर में प्रभारी बना। फिर महुआ न्‍यूज और महुआ चैनल में यूपी प्रभारी बन कर पांच बरस तक रहा।
23 दिसम्‍बर सन-11 को ब्रेन स्‍ट्रोक के चलते फिर नौकरी चली गयी। गले से जब स्‍पष्‍ट आवाज ही नहीं मिल रही हो, तो कौन मुझे नौकरी देता ? उसके बाद से ही मैंने हमेशा-हमेशा के लिए नौकरी की ख्‍वाहिश रौंद डाली और स्‍वतंत्र पत्रकार के तौर पर जुट गया। आय का स्रोत बनाने के लिए मैंने भिक्षा मांगने की आदर्श व्‍यवस्‍था अपना ली, जैसा महात्‍मा बुद्ध करते थे। उसके आसपास ही परिवार का टूटन, विघटन और उपेक्षा से आहत होकर जंगल की ओर चला जाना, मेरे जीवन का एक बड़ा साहसिक कदम तो था ही। मेरे अनुभवों ने मुझे बहुत कुछ वसूला, लेकिन काफी कुछ दिया भी है। हां, मैं कई बार निराश्रित तो रहा, लेकिन कभी भी अवसाद से ग्रसित नहीं हो पाया। इसी दौरान मैंने अपनी दोनों बेटियों का विवाह भी अपनी औकात से ही आयोजित किया। शायद औकात से भी ज्‍यादा बढ़ कर। वजह कि मेरे साथ मेरे कई मित्र पूरे साहस के साथ खड़े थे।
साशा की शादी के वक्‍त तो कमाल खान कहीं बाहर गये थे, लेकिन बकुल की शादी में कमाल खान आये। साथ में रुचि कुमार भी थीं। यह दोनों पति-पत्‍नी करीब एक घंटे तक उस मौके पर मौजूद रहे।
ऐसा नहीं है कि कमाल खान के किसी प्रतिकूल माहौल में मैं उसके साथ नहीं रहा। लेकिन आज बात तो उसके प्रति उसकी किसी प्रतिकूल घटना की नहीं, बल्कि मेरी परेशानी, बदहाली और मेरी खुशियां की हो रही हैं न? खास कर उसी बेहतरीन यादों की भी। तो, सच बात तो यही है कि जीवन में दुख और सुख का भागीदार होना सबसे बड़ी बात होती है। और मैं गर्व के साथ कहता हूं कि मेरे साथ कमाल खान ने दुख ने भी और मेरे सुख में भी बाकायदा कदमताल की है।

कमाल खान ! अलविदा नहीं मेरे दोस्‍त। तुम हमेशा मेरे और सबके दिल में जिन्‍दा बने रहोगे। 

1 thought on “मेरे दुख-सुख का भागीदार था कमाल खान

  1. कमाल जी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है

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