विधानसभा अध्‍यक्ष थे वासुदेव सिंह। कुइंचा भर थे। ताई ने घर से भगाया

बिटिया खबर

: कुछ की फितरत होती है। क्‍या ब्राह्मण और क्‍या ठाकुर : ठीक से ब्राह्मण तो न बन पाये, लेकिन नौकरी और जिन्‍दगी में ठाकुर-धर्म ठसक के साथ निभाया : वाईपी सिंह जैसी बेहद आत्‍मीयतापूर्ण हंसी मैंने जीवन में बहुत कम ही देखी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : प्रतापगढ़ में एक गांव है किलाइन। वाराणसी रोड के ढकवा के पास उनकी ताई का मायका था। चुनाव का मौका था, पता चला कि वासुदेव सिंह आने वाले हैं। वासुदेव ने तब न जाने किस प्रविधि से नाम के पहले प्रोफेसर पैबन्‍द चिपका लिया। पिता जी की मृत्‍यु के बाद मकान का जो लफड़ा हुआ था, ताई प्रोफेसर वासुदेव से बहुत खफा थीं। लेकिन घरवालों ने ताई से कहा कि तुम बोलना मत। दो-कौड़ी का नेता है, किसी बला की तरह आ जाए तो मुंह फेर लेना। लेकिन बदकिस्‍मती तो देखो कि वासुदेव सिंह आये तो सीधे ताई के मुंह लग गये। बोले:- भौजी जी नमस्‍ते।
तुम कौन ?
अरे हम वासुदेव। हमका नहीं पहचानेओ ? अरे पहिले हम आपके यहां आयत रहेन, कई-कई दिन रहत रहेन।
जानेन तुमका, जानेन। बहुत मुटाय गये हौ। पहिले कुइंचा भर रहेओ। लेकिन कैसे आयौ आज ?
अरे इलेक्‍शन का मामला है, वोट मांगै आयेन हइ।
बस, गरज पड़ी, तौ आय गयौ। चल भाग जाऔ। फिर दिखायी न पडेऔ। वरना बहुत बुरा होई। देवर के मौत हुई, मकान के दिक्‍कत भई, तौ नाय दिखायी पडेओ। अब कौन मुंह से आये हौ। चलो भागौ। इंटर कालेज में मास्‍टर कब से प्रोफेसर होने लगा रे ? जिनगी भर झूट्ठै रहैयो। भाग यहां से। ताई जी ने वासुदेव सिंह को कस कर गरियाआ और भगा दिया।
यह किस्‍सा सुनाया है वाईपी सिंह ने। प्रतापगढ़ के पल्‍टन बाजार में रहने वाले वाईपी सिंह लखनऊ विश्‍वविद्यालय से रिटायर होने के बाद अब लखनऊ के गोमती नगर में बसे हैं। उनके पिता पीसीएस अफसर थे। वाईपी सिंह बताते हैं कि जब उनके पिता इलाहाबाद में एडीएम थे, तो विधानसभा अध्‍यक्ष बनने के बाद पहली बार इलाहाबाद आये। कोने में ले जाकर पिता जी का पैर छूते हुए बोले कि कोई बड़ी गाड़ी दीजिएगा भाईसाहब।
पिता जी ने कहा कि काहे ?
अरे जलवा बनना चाहिए भाईसाहब।
तो आपकी मुलाकात कराता हूं वाईपी सिंह से। सन-50 में जन्‍मे वाईपी सिंह के पिता रामप्रताप सिंह पीसीएस अफसर थे। कुल चार भाई और दो बहनें। अब तो तीन बड़े भाइयों की मृत्‍यु हो चुकी थी, जिनमें से एक थे महेंद्र प्रताप सिंह जो लखनऊ हाईकोर्ट में जस्टिस भी रहे। अपने दौर के लोकप्रिय रहे हैं पिता जी, लेकिन हैरत की बात है कि 77 में मृत्‍यु मरने के छह महीने बाद उनको आईएएस का तमगा मिला। यह ऐतिहासिक घटना थी।
पिता जी जहां-जहां भी रहे, उनके साथ कूद-कूद कर पढाई की वाईपी सिंह ने। हाईस्‍कूल फैजाबाद से, लखनऊ से डीपीए किया और लाइब्रेरी साइंस इलाहाबाद से। यानी ठीक से ब्राह्मण तो नहीं बन पाये, लेकिन नौकरी और जिन्‍दगी में ठाकुर-धर्म पूरी ठसक के साथ निभाया। सभी तीनों भाइयों की मृत्‍यु हो गयी। दो बहनें हैं। एक बेटी शालिनी बंगलुरु में है, जबकि दूसरी यामिनी दिल्‍ली में।
वाईपी सिंह ने जिन्‍दगी की शुरूआत टी-गॉर्डेन में मैनेजरी से शुरू नौकरी की। वहां की नौटंकी न समझी, तो नौकरी छोड़ आये। फिर लखनऊ विश्‍वविद्यालय में ही नौकरी मिल गयी। वहां डीपीए के निदेशक डीपी सिंह की करतूतों से जब सारे लोग आहत होने लगे तो वाईपी सिंह सामने आ गये। और डीपी सिंह के मुंह में लोहे के चने घुसेड़ आये।
आपको सबसे ज्‍यादा किस जाति और धर्म के लोगों से दिक्‍कत हुई ? वाईपी सिंह कहते हैं कि डीपीए में तो क्‍या ब्राह्मण, लाला, मुसलमान भी थे। ठाकुर तो अकेला मैं ही था। निदेशक तो ठाकुर ही था, जिसकी पुंगी मैं ही बजाता रहा। धर्म या जाति का झंझट किसी के साथ कभी भी नहीं होता है। बस कुछ लोगों की फितरत होती है। मसलन एक पीसीएस अफसर थे पीएन मिश्र। बड़ा बेईमान और अविश्‍वसनीय। पापा बटलर पैलेस में रहते थे। पीएन मिश्र पापा से मिलने मेरे घर अक्‍सर आया करते थे, लेकिन पापा की मृत्‍यु जब हुई, तो उन्‍होंने नोटिस पर नोटिस देनी शुरू कर दी। मुख्‍य सचिव आये थे मृत्‍यु पर, बोले कि एक साल तक कोई नहीं बोलेगा। लेकिन पीएन मिश्र नरक करने लगे। अम्‍मार रिजवी के एक मित्र थे मजहर। मेरे भी दोस्‍त थे। उन्‍होंने अम्‍मार रिजवी से कहा कि यह मेरी करीबी हैं। बस मकान न खाली हो। अम्‍मार रिजवी ने सचिवालय बुला कर पीएन मिश्र को कस कर डांटा।
आरबी दास थे लखनऊ विश्‍वविद्यालय के डीपीए यानी डिपार्टमेंट आफ पब्लिक एडमिस्‍ट्रेशन में निदेशक। उन्‍होंने लाइब्रेरियन की नौकरी दे दी। उसके बाद डीपी सिंह बने निदेशक। उसका रवैया बड़ा झंझटी था। मनमानी तरीका था। गुस्‍सा हुआ, तो नौकरी निकाल देने की धमकी। पूरा डिपार्टमेंट त्रस्‍त था। हमने जूता निकाला और उसकी मेज पर रख दिया। बोला, ज्‍यादा बोले तो सीधे मुंह पर रसीद कर दूंगा। घर में घुस कर मारूंगा, पूरे घरवालों को। डीपी सिंह ने अपने एक पूर्व मित्र गृह सचिव बनर्जी से कह कर चौक के सीओ मुखर्जी को दिन भर हमारे दफ्तर में बिठाया। हमने सीओ के सामने ही कहा दिया कि मारूंगा जरूर। सीओ बोला कि मेरे सामने कुछ हरकत किया तो सीधे जेल में भेज दूंगा। मैं सीधे एसएसपी तिलक काक के पास गया। पूरी बात बतायी। मुखर्जी ने तत्‍काल बुलाया और कह दिया कि विश्‍वविद्यालय तुम्‍हारे क्षेत्र में नहीं है। आइंदा अगर एलयू में पहुंचे तो तुम्‍हारा सस्‍पेंशन हो जाएगा।
वाईपी सिंह का जलवा हुआ करता था डीपीए में। एक सर्दियों की आधी रात को सड़क पर एक अधेड़ व्‍यक्ति बुरी तरह घायल और रक्‍त-रंजित बेहोश पड़ा था। सन्‍नाटे की सड़क। बहुत मुश्किल के साथ एक रिक्‍शाचालक को मैंने तैयार किया और मैं उनको तत्‍काल अस्‍पताल ले गया। बाद में पता चला कि वह व्‍यक्ति लखनऊ विश्‍वविद्यालय के डीपीए में उनका ही एक साथी जगदीश गौड़ थे। उसके बाद से ही गौड़ जी का पूरा परिवार और डीपीए के हर एक व्‍यक्ति का मैं एक अजीज दोस्‍त और उन सब के घरों का छोटा भाई जैसा सदस्‍य बन गया। सन-86 की बात थी, मैंने दैनिक जागरण कुछ महीना पहले ही ज्‍वाइन किया था। घर में मंझले भाई आदियोग और उनके कई मित्र जनांदोलन करने की रणनीति दिन-रात बनाया करते थे। रात दस बजे घर पहुंचा, तो घर में कुछ भी नहीं था खाने को। समझ ही नहीं आया कि क्‍या करुं ? इस वक्‍त तो कोई दूकान भी नहीं खुल होगी। न जाने क्‍या सोचा कि मैं सीधे वाईपी सिंह के घर चला गया। अचरज में उन्‍होंने दरवाजा खोला, बैठाया। मैंने बताया कि दूकानें बंद हो गयी हैं, थोड़ा चावल या आटा हो तो काम चल जाए। बस थोड़ा सा।
हां, हां। बिलकुल। यह कह कर वाईपी सिंह दूसरे कमरे में गये और करीब पांच-सात मिनट बाद एक बोरी ले आये। उसमें रहा होगा कि करीब दस किलो चावल, उतना ही आटा, दाल, आलू, मसाला, नमक और तेल के साथ अचार और गुड़ वगैरह कुछ और भी।
इतना काहे दे रहे हैं ? कल मैं खुद ही खरीद ले आऊंगा।
अरे यार। कुछ दिन बाद खिचड़ी त्‍योहार भी तो होने वाला है। काम आयेगा। घर में रखा था, तो तुमको दे दिया। किसी के काम तो आये। घर में ज्‍यादा सामान नहीं रखना चाहिए, जिसको जरूरत हो उसे दे देना चाहिए। कुछ भी चाहिए तो बता देना।
मेरी तब नौकरी थी महज सवा नौ सौ रुपये महीना। और खाने वाले मुंह की तादात ज्‍यादा हो जाती थी। सच बात यही थी कि उस समय मेरे पास इतना पैसा ही नहीं था कि मैं उस रात भोजन की व्‍यवस्‍था कर पाता। जबकि तनख्‍वाह मिलने में अभी सात दिन बाकी थे।
आज वाईपी सिंह जी की याद आयी, तो मैं सीधे उनके घर पहुंच गया। बीमार हैं भाईसाहब। हाथ बुरी तरह हिलता है उनका। चलने में भी काफी दिक्‍कत होती है। मैंने साफ कह दिया कि मेरे लायक कोई भी जरूरत किसी भी वक्‍त महसूस हो, बेहिचक बताइयेगा जरूर। मेरे इतना बोलते ही वाईपी सिंह जी अपने चिरपरिचित ठहाके के साथ हंस पड़े। ऐसी बेहद आत्‍मीयतापूर्ण हंसी मैंने अपने जीवन में बहुत कम ही देखी है। इतना ही नहीं, वाईपी सिंह जी की टोली में हर एक सदस्‍य मेरे प्रति बेहिसाब प्रेम, आस्‍था और आत्‍मीयता रखते थे।

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