तोड़ लसोढ़ा, गोंद निकाल। मूंछ बना ले तुर्रेदार

बिटिया खबर

: मूंछ में ऐंठनदार अंदाज मर्दानगी का प्रमाण बना रहा : लाखों बरसों तक प्रकृति व मानव-जीवन ऋणी रहा गूलर, उसी की कृपा से हैं कुएं : लाखों बरस तक रसोई में सब्‍जी के बर्तनों में कमाल करता रहा गूलर का गुच्‍छा : मूंछ को मरोड़ कर बिच्‍छू की पूंछ की तरह आक्रामक और विषैला दिखाने का शौक :

कुमार सौवीर

लखनऊ : आज का दौर ही बदल चुका है। सच का मतलब अनर्थ और झूठ का मतलब सर्वोच्‍च पवित्र अर्थ तक पहुंच चुका है। क्‍या खेती, क्‍या दिशा, क्‍या पानी, क्‍या भोजन, ऐसे अधिकांश मामलों में मायने बदल चुके हैं। हालत यह हो गयी है कि गांव-जवांर तक में पेड़ का मतलब केवल उसके फल और उसकी जलौनी या इमारती लकड़ी तक ही उपयोग तक सीमित हो चुका है। लेकिन अभी चालीस-पचास बरस पहले तक किसी भी पेड़ का आयामी गुण परख कर ही लोग उसका मूल्‍यांकन किया करते थे।
लेकिन वक्‍त ने अर्थ का अनर्थ बना डाला। मसलन, यूपी के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने कोई चार बरस पहले एक आदेश जारी कर दिया कि कांवड़ लेकर निकलने वाले कांवरियों का मार्ग-निष्‍टंकट करने के लिए रास्‍ते में गूलर के पेड़ों को हटा दिया जाए। उनका मानना था कि गूलर एक अपवित्र पेड़ है, जिसका कोई भी प्रभाव किसी भी कांवरिया पर कांवड़-मार्ग पर नहीं पड़ना चाहिए। तर्क यह तक दिया गया कि गूलर पेड़ का नाम ही गू यानी विष्‍ठा से जुड़ा हुआ रहता है। ऐसी हालत में ऐसे गूलर पेड़ को समग्रता में कैसे पवित्र और सम्‍मानित माना जा सकता है। बेहतर निदान यह है कि उसका समूल नाश ही कर दिया जाए।
लेकिन लोग भूल जाते हैं कि गूलर का कुछ ऐसे इकलौते पेड़ों में से है जिसमें केवल प्रकृति ही नहीं, बल्कि मानव-जीवन लाखों बरसों तक ऋणी रहा। गूलर का गुच्‍छा रसोई में सब्‍जी बर्तनों में सब्‍जी के तौर पर आज भी कमाल करता है। गूलर के पके फल पर चिडि़या और बंदर, गिलहरी जैसे प्राणी जीवित हुआ करते हैं। इसको बोने-लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। पक्षी अपनी बीट से ही गूलर जैसे विशाल पेड़ों को पचासों मीलों तक बीज के तौर पर प्रसारित करते रहते हैं। सब कुछ प्रकृति के हिसाब से होता है। मावन और बाकी प्राणी केवल उसका उपभोग करते हैं।
अभी पचास बरस पहले तक पेय-जल का इकलौता स्रोत केवल गूलर ही हुआ करता था। आपको बता दें कि किसी भी कुएं का श्रीगणेश गूलर से ही होता था। इसके पेड़ के पटरे को एक खास अंदाज में धारदार बाण जैसे तिकोने अंदाज में कुएं की चौड़ाई के हिसाब से गाड़ा जाता था। इस बात का ध्‍यान रखा जाता था कि जमीन को इतनी गीली कींचड़दार बना दी जाए, जिसमें गूलर के तीखे पटरे उसमें लगातार धंसते रहें। इसके बाद उस पर ईंटों का रद्दा चढ़ाया जाता था। गूलर का तीखा पटरा दबाव पड़ने पर नीचे धंसने लगता था। उस पूरे दौरान कुआं निर्माण में जुटे लोग उसकी मिट्टी को लगातार निकालते रहते थे। इस पूरी प्रक्रिया को इंदारा या इनारा कहा जाता था। गूलर का यही इनारा चारों ओर की मिट्टी को धंसने में रोकती थी। यह न होता, तो गंगा के मैदान के लोग भूगर्भ जल-स्रोत को ठीक से पहचान न पाते।
साग से लेकर अचार, गोंद से लेकर इमारती लकड़ी देने वाले पेड़ों में अनोखा वृक्ष है लसोढ़ा। चिकनी और मजबूत लकड़ी मानी जाती है लसोढ़ा की, जबकि कफ-जनित रोगों में लसोढ़ा रामबाण की तरह असर डालता है। लसोढ़ा का पेड़ सामान्‍य तौर पर आठ से दस मीटर तक ऊंचा होता है। फल हाईब्रिड बेर से छोटा और झरबेरी से करीब दो-तीन गुना होता है। देसी गूलर और जामुन से थोड़ा छोटा। इसका अचार भी बनता है और साग भी। इसका रेशा तो डूबती नाव बचा सकता है। यह मूलत: लसलसा फल है। लेसदार, चिपचिपा। बिलकुल गोंद की मानिंद। लसोढ़ा का पटरा बहुत चिकना बनता है, पानी या दीमक कभी उस पर हमला ही नहीं करते। ठीक गूलर की लकड़ी की ही तरह।
सीमा सुरक्षा बल के पूर्व अधिकारी और दिल्‍ली में पत्रकारिता कर रहे डॉ जनार्दन यादव बताते हैं कि सैन्‍य बल ही नहीं, बल्कि पुलिस में भी जो बन्‍दूकें या रायफलें होती हैं, उसके कुन्‍दे लसोढ़ा की लकड़ी से ही तैयार की जाती हैं। तनिक राजपूताना की ओर खिसकने लगिये। राजस्‍थान से लेकर गुजरात के योद्धा-क्षेत्र तक में तुर्रादार मूंछ के बल पर अपने शौर्य, क्षमता, बल और मर्दानगी का प्रदर्शन करने वाले सैनिक पान की तरह लसोढ़ा को ही चुभलाते रहते हैं। पान की तरह उनकी छीटें भी उनकी मूंछों पर पड़ती रहती हैं। अनुमान लगाया जाता है कि बार-बार अपनी मूंछ को मरोड़-मरोड़ कर उसे बिच्‍छू की पूंछ की तरह आक्रामक और हमेशा विषैला-पन दिखाने के लिए उसे तुर्रादार बनाने रहते हैं इस क्षेत्र के योद्धा।
बहुत दूर जाने की जरूरत भी नहीं है। हमारे आसपास के ऐसे लोग जो अपनी मर्दानगी का खुला प्रदर्शन करना चाहते थे, उसका पहला प्रदर्शन होता था अपनी मूंछों को मरोड़ना। किसी बिगड़ैल बैल की सींग की तरह, जो किसी हमलावर मेढ़ा की तरह उसे बात-बात पर अपनी मूंछ को मरोड़ा करते हैं। आज तो इसके लिए वे अपनी मूंछों को बिलकुल टनाटन्‍न करने के लिए मूंछ-ओ-टन्‍न जैसी क्रीम लगाते हैं, लेकिन इसके पहले तो लसोढ़ा के रस को अपनी मूंछ पर बात-बात पर गीला करते वे लोग अपनी मूंछ को मरोड़ा करते थे।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– तीन )

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