: न कोर्ट कमिश्नर ने अपनी गोपनीयता रखी, न जज ने अपने दायित्वों का निर्वहन निभाया : सर्वे-टीम के कोर्ट-कमिश्नर आरपी सिंह दायित्वहीनता के चलते बर्खास्त, जज अपनी कुर्सी पर मौजूद : फैसले तथ्यों पर होनी चाहिए, जज के निजी अनुभव, तथ्य या किसी घटनाओं पर नहीं :
कुमार सौवीर
लखनऊ : ज्ञानवापी सर्वे पर अदालती वाली जो कार्रवाई चल रही है और उससे जो भी फैसले सामने आ रहे हैं, वह अभूतपूर्व है। न भूतो, न भविष्यते। न कोर्ट कमिश्नर ने अपनी गरिमा और गोपनीयता को बरकरार रखा है और न ही मामले की सतत सुनवाई में जज ने अपने दायित्वों का निर्वहन निभाया है। हैरत की बात है कि अपने इसी मामले में एक मसले पर फैसला करते हुए सिविल जज सीनियर डिवीजन रवि कुमार दिवाकर ने एक साधारण प्रवृत्ति के सिविल वाद को असाधारण वाद बना कर डर का माहौल पैदा कर दिया।
आपको पता ही होगा कि विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी परिसर के एक मामले में अदालत ने सर्वे-टीम नियुक्त कर रखी है। लेकिन सारा ताजा विवाद जज के फैसले और कोर्ट-कमिश्नर की कवायदों को लेकर भड़क गया है। विधि-वेत्ताओं की राय में कोर्ट कमिश्नर को ज्ञानवापी का सर्वे करने के बजाय अपने काम की रिपोर्ट सीधे अदालत में पेश करनी चाहिए थी, लेकिन कोर्ट-कमिश्नर अपनी जांच-रिपोर्ट को ऐसे उचक-उचक कर मीडिया में कूद रहे थे मानो किसी स्टेडियम में कोई सूमो या फिर डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू के मंच पर चल रही नौटंकी। जबकि सिविल जज सीनियर डिवीजन रवि कुमार दिवाकर ज्ञानवापी के सर्वे के मामले के मसलों पर फैसले देने के बजाय तथ्यों के बजाय अपने घरेलू हॉरर-शो या निजी चंद्रकांता-संतति का माहौल बना रहे थे। कोर्ट-कमिश्नर ने अदालती गोपनीयता की धज्जियां उड़ा दीं, तो जज ने मामले के बजाय इस मामले को अपने घरेलू टेंशन, आफत और बवालों वाली रुदाली में तब्दील कर डाला। लेकिन अब हालत यह है कि ज्ञापवापी में सर्वे करने वाली टीम में शामिल रहे कोर्ट-कमिश्नर आरपी सिंह को उसकी दायित्वहीनता के चलते जज ने बर्खास्त कर दिया है, लेकिन जज अभी तक अपनी कुर्सी पर मौजूद हैं। बहरहाल, यह मामला अब काफी भड़कने लगा है, सर्वोच्च न्यायालय इस मामले पर सीधे ही निगहबानी रखे हुए है, जबकि सर्वे का काम आम आदमी के मंच पर केवल अफवाह, निजी लाभ और व्यक्तिगत व्यवहार तक ही फैलता या सिमटता दीखने लगा है।
सर्वे-टीम में शामिल रहे आरपी सिंह को हटा दिया गया है। फिलहाल जो खबरें मिली हैं, उससे साफ दिखने लगा है कि कोर्ट ने इस कोर्ट-कमिश्नर के व्यवहार से परे होकर काम किया है। सर्वे की जानकारियां जो सीधे अदालत तक सीधे पहुंचनी चाहिए, क्यों कि वह अदालत की कोर्ट-सामग्री होती है, उसे कोर्ट-कमिश्नर ने उसे मीडिया में खूब फैलाया है। अदालत तक का मानना है कि ऐसा करके कोर्ट कमिश्नर आरपी सिंह ने अदालत के काम में काफी गम्भीर खलल पहुंचायी है और जिसके चलते अदालती प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से बाधित किया गया। लेकिन हैरत की बात है कि इसके ठीक पहले तक जो भी जजमेंट इस मामले पर जज ने पारित किया, उसमें भी तो न्यायिक प्रक्रिया में अनावश्यक और बाधित कर दिया गया।
सर्वे-टीम में कोर्ट-कमिश्नरों के फेरबदल के मामले को लेकर अपना फैसला जो जज ने लिया है, वह वाकई हैरतनाक है।
विधि-वेत्ता बताते हैं कि किसी भी जज को अपने फैसले में वाद के तथ्यों पर ही सुनवाई करनी चाहिए। जाहिर है कि ऐसी किसी भी सुनवाई के दौरान जज को अपने निजी अनुभव, तथ्य अथवा किसी अन्य घटनाओं पर कोई भी चर्चा नहीं करनी चाहिए, जो जजमेंट का हिस्सा बन सके। हालांकि अपने इस फैसले में जज सिविल जज सीनियर डिवीजन रवि कुमार दिवाकर ने यह तो सही लिखा है कि सर्वे वाली यह कमीशन की कार्यवाही सामान्य है, जो कि अधिकतर सिविल वादों में सामान्यत: कराई जाती है। लेकिन कभी अधिवक्ता कमिश्नर पर सवाल नहीं उठाये गये।
विधि-जगत के सूत्रों को यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि जज रवि कुमार दिवाकर ने यह कैसे कह दिया कि एक साधारण सिविल वाद को बहुत असाधारण बनाकर डर का माहौल पैदा कर दिया गया। इतना ही नहीं, रवि दिवाकर ने यहां तक लिख डाला कि समाज में डर इतना है कि मेरे परिवार को बराबर मेरी और मुझे अपने परिवार के सुरक्षा की चिंता बनी रहती है। घर से बाहर होने पर बार-बार पत्नी द्वारा सुरक्षा को लेकर चिंता जतायी जाती है। बुधवार को लखनऊ से माताजी ने भी हालचाल लेने के दौरान मेरी सुरक्षा को लेकर चिंता व्यक्त की। मीडिया से जानकारी मिली है कि मैं खुद कोर्ट कमिश्नर की कार्यवाही करने जा रहा हूं, इस पर उन्होंने मुझे वहां जाने से मना किया। क्योंकि मेरी सुरक्षा को खतरा हो सकता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि जज रवि दिवाकर अपनी इस टिप्पणी को अपने इस फैसले में समेटते हुए आखिर क्या साबित करना चाहते थे। क्या इस तरह इस साधारण जैसे सिविल वाद को उन्होंने असाधारण बना कर डर का माहौल खुद ही खड़ा कर दिया?