: नाम और जाति अब कोडवर्ड नहीं, सुविधाजनक माहौल बनाने का जुगाड़ बन गया : भिकारी लाल अभिशाप लगा, तो नाम भगवान सिंह रख लिया : बसपा, सपा और अब भाजपा में भी नामकरण राजनीतिक बन गया : ” कहत कबीर सुनो भाई साधो ” :
हरिकान्त त्रिपाठी
लखनऊ : जिलों के नाम परिवर्तन पर मेरे बड़े भाई विजय शंकर सिंह सर ने एक सुन्दर लेख पोस्ट किया। मैंने उस पर टिप्पणी लिखी तो वह थोड़ी लम्बी होने के कारण अपलोड ही न हो पाई। निराश होकर मैं अपनी टिप्पणी को खुद पोस्ट के रूप में डालने को विवश हो गया । जिन महानुभावों का मैंने पोस्ट में ज़िक्र किया है उन्हें यदि पोस्ट में कुछ नागवार गुज़रे तो मैं पहले ही बिना शर्त उनसे माफी मांग लेता हूँ। मेरा मकसद केवल घटनाक्रम के माध्यम से नाम परिवर्तन की ज़रूरत को रेखांकित करना है यह एक साहित्यक रचना है किसी को पीड़ा पहुँचाना या मखौल उड़ाना मेरी मंशा नहीं है।
वाह ! बक़ौल जावेद अख़्तर साहब नाम वाक़ई बहुत महत्वपूर्ण है । मेरे एक मित्र नायब तहसीलदार का नाम भिकारी लाल था । माँ बाप ने दिया था , बहुत दिनों तक वे उसे ढोते रहे । ढोते इसलिए रहे क्यों कि वे भिकारी तो थे नहीं , वे हाकिम थे । उन्होंने माँ बाप का बहुत दिनों तक लिहाज़ किया पर जब वे पदोन्नत होकर डिप्टी कलेक्टर हो गये तो उन्हें लगा कि अब पानी नाक से ऊपर जा रहा है और उन्होंने इश्तिहार वगै़रह निकलवा कर और दीगर फार्मैल्टीज़ को पूरी कर भिकारी न होते हुए भी भिकारी बुलाये जाने के अभिशाप से आखिर निज़ात पा ली और अपना नाम भगवान सिंह रख लिया ।
मेरे एक अन्य मित्र जो पी सी एस में मुझसे एक बैच कनिष्ठ थे , उनके बारे में एक किस्सा बहुत मशहूर था । वे जब बहन जी गद्दीनशीन होती थीं तो अपने नाम को सिकोड़ कर केवल महेन्द्र कर लेते थे । जब भाजपा की सरकार बनती थी तो सीना थोड़ा चौड़ा होकर ५०” का हो जाता था , क्योंकि उनके श्वसुर कभी जनसंघ के सांसद रह चुके थे । तब वे सीने की नाप के अनुकूल ही अपना नाम भी बढ़ा कर महेन्द्र सिंह कर देते थे । जब सपा की सरकार आती थी तो उनका सीना अधिकांश यादव अधिकारियों की तरह पूरे ५६” का हो जाता था और वे फ़ुल फ़ार्म में आ जाते थे । तब वे लिखना शुरू कर देते थे फ़ुल नाम महेन्द्र सिंह यादव ।
मेरे एक और मित्र जोर सिंह जी थे (“थे” इसलिए कि वे ज़िन्दा तो अब भी हैं पर अब वे जोर सिंह नहीं रह गये हैं ) जो मेरे साथ सेल टैक्स आफिसर की ट्रेनिंग में थे । जब मैं डिप्टी कलेक्टर हुआ तो कुछ दिनों बाद वे भी मेरी सेवा में आ गये । बहुत दिनों तक न मिलने से मैं उनका चेहरा भूलने लगा था कि तभी किसी मीटिंग में मुझे एक शख्स का चेहरा कुछ पहचाना सा लगा । मैंने दिमाग पर जोर दिया तो मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल गया – अरे तुम जोर सिंह तो नहीं हो ? उन्होंने गरदन घुमाकर अकड़ और रोष से मुझे देखा और सख़्त लहज़े में बोले- I have changed my name. Now I’m Jitendra Singh. मैं उनके पहले वाले नाम से ही घबराता था सो मेरी घिग्घी बंध गई और मैं धीरे से बोला- माफ़ करना भाई मुझे पता नहीं था सो गुस्ताखी हो गयी ।
एक और मेरे मित्र थे जो सम्भवतः अपने जनक के बच्चों के बार बार गुज़र जाने के बाद पैदा हुए रहे होंगे और उन्हें बचाने की ग़रज़ से माता पिता ने पैदा होते ही उन्हें तराजू में तौल दिया होगा और उनका नाम रख दिया तौलन प्रसाद । तौलन जी जब पी सी एस में आ गये तो पैदा होते ही उनको बचाने के लिए किए गये टोटके को सहज व्यक्त कर देने वाले अपने नाम से शर्मिन्दगी महसूस होने लगी और वे अपना नाम टी प्रसाद लिखने लगे । कुछ और परिस्थितियां उनके पक्ष में हुईं और ज़िन्दगी कुछ ज़्यादा ही हसीन होने लगी तो एक दिन उन्होंने अपने खुद से या जाने किसी से सलाह पाकर तराजू से फ़ाइनली गुडबाय कहने का फैसला कर लिया । उन्होंने अपना नया नाम तपेन्द्र प्रसाद धारण कर लिया । नाम में बहुत कुछ रक्खा है । नये नाम ने उनकी काया पलट कर दी तो मुझे फ़िल्मों के नाम के हिज्जे बिगाड़ने और हीरो हीरोइनों के नाम परिवर्तन की सार्थकता साफ साफ नज़र आने लगी । भाई तपेन्द्र , जो सेवा में मुझसे जूनियर हुआ करते थे , ने एक दिन नौकरी से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली और नेता जी ने उन्हें कैबिनेट मंत्री स्तर का पदाधिकारी बना दिया । मेरी मुलाकात मा० तपेन्द्र जी से तो नहीं हो पाई नहीं तो मुझे उन्हें सर कह कर सम्बोधित करना पड़ता ।
एक पुलिस अधिकारी मेरे साथ तब सी ओ सिटी हुआ करते थे जब मैं बहराइच का सिटी मैजिस्ट्रेट था । उनके माता पिता ही बेहद दूरदर्शी थे सो उन्होंने उनका नाम अशर्फ़ीलाल रख दिया । पट्ठे ने नाम बदलने के बजाय माँ बाप की दूरंदेशी का जम कर फ़ायदा उठाया । जब बहन जी की सरकार होती थी तो वह घूम कर कहते कि वे तो जन्मजात बसपाई हैं , जब सपा कि सरकार आती तो अपने को अशर्फ़ीलाल के साथ यादव बताने लगते थे । भाजपा की सरकार में उनका नाम और सटीक हो जाता था और वे खुद को अशर्फ़ीलाल सोनी यानि कि सुनार बताने लगते थे ।
हाल के दिनों में यू पी की बसपा , सपा , भाजपा की सरकारें ही नहीं दूसरे प्रदेशों की सरकारों ने भी वोट की खातिर शहरों और ज़िलों का नाम परिवर्तन किया है । गोसाईं जी तो पहिलेहिं लिख गये हैं –
कलियुग केवल नाम अधारा
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा ॥
( हरिकांत त्रिपाठी यूपी के वरिष्ठ आईएएस अफसर रह चुके हैं। फिलहाल लेखन और चिंतन में व्यस्त हैं। )