जिनसे गलबहियां, उसी को गाली देते हो “बाबू” जी?

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: आईएएस अफसरों का कमाल, जिनसे काम लेना है उन्हें गाली मानते हैं : कलेक्ट्रेट में जितने भी बाबू होते हैं, वे सब मुंहलगे होते हैं डीएम के : सारा अण्डर-करण्ट बाबू से संचालित होता है, बाबू के बिना नामुमकिन : लो देख लो, बड़े बाबुओं की करतूतें- ग्यारह :

कुमार सौवीर

लखनऊ : हिन्दुस्तान अखबार के रिपोर्टर से अपनी एक एक्सक्लूसिव बातचीत में ऑल इंडिया आईएएस आफिसर्स एसोसियेशन और यूपी आईएएस आफीसर्स एसोसियेशन के वरिष्ठ  नेता संजय भुसरेड्डी और अमृत अजिताभ ने आईएएस अफसरों को बाबू के तौर पर पुकारे जाने पर सख्त ऐतराज जताया। उनका कहना है कि आईएएस अफसरों को बाबू के तौर पर पुकारना-देखना-मानना उनके लिए किसी भद्दी गाली की तरह है। इन आईएएस अफसरों के नेताओं को यह शब्द भले ही भद्दी गाली लगे, लेकिन हकीकत यह है कि अगर उनके पास  बाबू न हों तो उनका जीना हराम हो जाए। वजह यह कि आज किसी भी आईएएस अफसर की इतनी हैसियत नहीं है कि वह अपने अधीनस्थ बाबू के बिना काम चला सके।

फिर तो यह तय हो गया कि गाली बन चुके उनके बाबू अगर किसी गाली से कम नहीं हैं, तो फिर यह शर्त तो फिर उसके किसी भी आईएएस अफसर पर भी लागू होती है। और फिर अगर बाबू का कामधाम बहुत श्रेष्ठतम होता है, जिसके चलते आईएएस उनपर बहुत भरोसा करते हैं तो फिर खुद को बाबू कहलाने में आईएएस अफसरों को किस बात पर ऐतराज हो रहा है? आप किसी भी जिलाधिकारी कार्यालय में जाकर वहां चल रहे सरकारी कामधाम का जायजा ले लीजिए। आप पायेंगे कि कोई भी बाबू किसी भी आईएएस की रीढ़ बना होता है। चाहे वह असलहा बाबू होता हो, या नजारत बाबू, ड्यूटी बाबू, नगर पालिका बाबू, पंचायत बाबू, प्रेस बाबू या फिर नक्शा बाबू। किसी भी जिलाधिकारी का कामधाम एक मिनट भी नहीं चल सकता है अगर वह बाबू उसी वक्त मौजूद न हो।

अब पहले यह समझ लीजिए कि इन बाबुओं का कामधाम क्या होता है। नगर निगम बाबू के पास जिले की किसी भी नगर पंचायत, टाउन एरिया या फिर नगर पालिका से हिसाब-किताब की जिम्मेदारी होती है। आप पायेंगे कि जैसे ही किसी निकाय-निगम का कार्यकाल खत्म होता है या फिर उसे बर्खास्त कर डीएम को उसका जिम्मा दिया जाता है तो उसके अगले दिन से ही डीएम के घर का रंग-रोगन और रोगनजोश चकाचक हो जाता है। किसी भी एक अधिकारी के तौर पर सबसे ज्यादा खरीददारी केवल उसी वक्त होती है जब डीएम के पास उसका चार्ज होता है। इतना ही नहीं, बताते हैं कि एसडीएम, नगर मैजिस्ट्रेट और एडीएम से लेकर कमिश्नर तक के घर की सजावट उसी दौर में होती है। और यह काम करता-कराता है पालिका बाबू। इतना ही नहीं, किसी भी नागरिक निकाय से आने वाली कमीशन की रकम पालिका बाबू के पास आती है। पंचायत बाबू का काम ठीक वही होता है, बस वह केवल जिला पंचायत के काम की निगरानी करता है। प्रेस बाबू जिले भर के अखबारों के बारे में सारी जानकारियां जुटाता है, नजारत भी एक बड़ी अहम कौड़ी होती है डीएम की। यही हालत डयूटी बाबू की होती है।

लेकिन इसमें सबसे ज्यादा कीमत होती है असलहा बाबू की। यही बाबू जिले में दिये गये असलहों का ब्योरा रखता है और इस बात का भी जिम्मा सम्भाले रखता है कि किस को असलहा का लाइसेंस दिया जाएगा या नहीं दिया जाएगा। यही बाबू असलहों की दूकानों में शस्त्रों और गोलियों वगैरह की भी पूरी जानकारी हासिल करता है। जिले में रसूखदार लोगों की पहली पसंद होती है असलहा बाबू। कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी शस्त्र के लाइसेंस को हासिल करने के लिए एक मोटी रकम उगाही जाती है, जिसका जरिया केवल असलहा बाबू ही होता है। हासिल में मुझे विश्वस्त सूत्रों से मिली खबरों के मुताबित कई जिलाधिकारी तो प्रत्येक असलहे पर एक निश्चित रकम तक बांध रख लेते हैं। कई डीएम तो इसके लिए तो खासे कुख्या‍त हो चुके हैं। और यह आदान-प्रदान का जरिया केवल असलहा बाबू ही करता है। एक जिले के एक असलहा बाबू के पास खासी सम्पदा थी। उसने एक विशाल इंटर कालेज खोल रखा था। इतना ही नहीं, उसकी ख्वाहिशों के लगातार पंख मिलते गये और आखिरकार एक दिन उसने अपनी नौकरी को लात मार दी और चुनाव लड़ कर बाकायदा विधायक बन गया। वैसे भी, कोई भी डीएम रहा हो, वह अपने बाबुओं को पूरे सम्मान के साथ पुकारता है। वह अपनी एसडीएम या सीडीओ को भले ही नाम या तू-तकाड़ से पुकारे, लेकिन अपने बाबू को बाबू साहब ही पुकारता है।

फिर समझ में नहीं आ रहा है कि आईएएस अफसर अपने बाबू जैसे सम्मानित शब्द पर क्यों इतना भड़क गये हैं कि बाबू शब्द उन्हें किसी भद्दी गाली से ज्यादा लगता है?

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जिनसे गलबहियां, उसी को गाली देते हो बाबू जी?

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: आईएएस अफसरों का कमाल, जिनसे काम लेना है उन्हें गाली मानते हैं : कलेक्ट्रेट में जितने भी बाबू होते हैं, वे सब मुंहलगे होते हैं डीएम के : सारा अण्डर-करण्ट बाबू से संचालित होता है, बाबू के बिना नामुमकिन : लो देख लो, बड़े बाबुओं की करतूतें- ग्यारह :

कुमार सौवीर

लखनऊ : हिन्दुस्तान अखबार के रिपोर्टर से अपनी एक एक्सक्लूसिव बातचीत में ऑल इंडिया आईएएस आफिसर्स एसोसियेशन और यूपी आईएएस आफीसर्स एसोसियेशन के वरिष्ठ  नेता संजय भुसरेड्डी और अमृत अजिताभ ने आईएएस अफसरों को बाबू के तौर पर पुकारे जाने पर सख्त ऐतराज जताया। उनका कहना है कि आईएएस अफसरों को बाबू के तौर पर पुकारना-देखना-मानना उनके लिए किसी भद्दी गाली की तरह है। इन आईएएस अफसरों के नेताओं को यह शब्द भले ही भद्दी गाली लगे, लेकिन हकीकत यह है कि अगर उनके पास  बाबू न हों तो उनका जीना हराम हो जाए। वजह यह कि आज किसी भी आईएएस अफसर की इतनी हैसियत नहीं है कि वह अपने अधीनस्थ बाबू के बिना काम चला सके।

फिर तो यह तय हो गया कि गाली बन चुके उनके बाबू अगर किसी गाली से कम नहीं हैं, तो फिर यह शर्त तो फिर उसके किसी भी आईएएस अफसर पर भी लागू होती है। और फिर अगर बाबू का कामधाम बहुत श्रेष्ठतम होता है, जिसके चलते आईएएस उनपर बहुत भरोसा करते हैं तो फिर खुद को बाबू कहलाने में आईएएस अफसरों को किस बात पर ऐतराज हो रहा है? आप किसी भी जिलाधिकारी कार्यालय में जाकर वहां चल रहे सरकारी कामधाम का जायजा ले लीजिए। आप पायेंगे कि कोई भी बाबू किसी भी आईएएस की रीढ़ बना होता है। चाहे वह असलहा बाबू होता हो, या नजारत बाबू, ड्यूटी बाबू, नगर पालिका बाबू, पंचायत बाबू, प्रेस बाबू या फिर नक्शा बाबू। किसी भी जिलाधिकारी का कामधाम एक मिनट भी नहीं चल सकता है अगर वह बाबू उसी वक्त मौजूद न हो।

अब पहले यह समझ लीजिए कि इन बाबुओं का कामधाम क्या होता है। नगर निगम बाबू के पास जिले की किसी भी नगर पंचायत, टाउन एरिया या फिर नगर पालिका से हिसाब-किताब की जिम्मेदारी होती है। आप पायेंगे कि जैसे ही किसी निकाय-निगम का कार्यकाल खत्म होता है या फिर उसे बर्खास्त कर डीएम को उसका जिम्मा दिया जाता है तो उसके अगले दिन से ही डीएम के घर का रंग-रोगन और रोगनजोश चकाचक हो जाता है। किसी भी एक अधिकारी के तौर पर सबसे ज्यादा खरीददारी केवल उसी वक्त होती है जब डीएम के पास उसका चार्ज होता है। इतना ही नहीं, बताते हैं कि एसडीएम, नगर मैजिस्ट्रेट और एडीएम से लेकर कमिश्नर तक के घर की सजावट उसी दौर में होती है। और यह काम करता-कराता है पालिका बाबू। इतना ही नहीं, किसी भी नागरिक निकाय से आने वाली कमीशन की रकम पालिका बाबू के पास आती है। पंचायत बाबू का काम ठीक वही होता है, बस वह केवल जिला पंचायत के काम की निगरानी करता है। प्रेस बाबू जिले भर के अखबारों के बारे में सारी जानकारियां जुटाता है, नजारत भी एक बड़ी अहम कौड़ी होती है डीएम की। यही हालत डयूटी बाबू की होती है।

लेकिन इसमें सबसे ज्यादा कीमत होती है असलहा बाबू की। यही बाबू जिले में दिये गये असलहों का ब्योरा रखता है और इस बात का भी जिम्मा सम्भाले रखता है कि किस को असलहा का लाइसेंस दिया जाएगा या नहीं दिया जाएगा। यही बाबू असलहों की दूकानों में शस्त्रों और गोलियों वगैरह की भी पूरी जानकारी हासिल करता है। जिले में रसूखदार लोगों की पहली पसंद होती है असलहा बाबू। कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी शस्त्र के लाइसेंस को हासिल करने के लिए एक मोटी रकम उगाही जाती है, जिसका जरिया केवल असलहा बाबू ही होता है। हासिल में मुझे विश्वस्त सूत्रों से मिली खबरों के मुताबित कई जिलाधिकारी तो प्रत्येक असलहे पर एक निश्चित रकम तक बांध रख लेते हैं। कई डीएम तो इसके लिए तो खासे कुख्या‍त हो चुके हैं। और यह आदान-प्रदान का जरिया केवल असलहा बाबू ही करता है। एक जिले के एक असलहा बाबू के पास खासी सम्पदा थी। उसने एक विशाल इंटर कालेज खोल रखा था। इतना ही नहीं, उसकी ख्वाहिशों के लगातार पंख मिलते गये और आखिरकार एक दिन उसने अपनी नौकरी को लात मार दी और चुनाव लड़ कर बाकायदा विधायक बन गया। वैसे भी, कोई भी डीएम रहा हो, वह अपने बाबुओं को पूरे सम्मान के साथ पुकारता है। वह अपनी एसडीएम या सीडीओ को भले ही नाम या तू-तकाड़ से पुकारे, लेकिन अपने बाबू को बाबू साहब ही पुकारता है।

फिर समझ में नहीं आ रहा है कि आईएएस अफसर अपने बाबू जैसे सम्मानित शब्द पर क्यों इतना भड़क गये हैं कि बाबू शब्द उन्हें किसी भद्दी गाली से ज्यादा लगता है?

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