हुसैनगंज का जिल्‍दसाज और पंसारी छंगा ही है लखनऊ का लसोढ़ा-पन

बिटिया खबर

: उस सामाजिक ताना-बाना में पूरा मोहल्‍ला अभिभावक था : अभी भी वक्‍त है म्‍यां। रिश्‍तों को जोड़ने के लिए लसोढ़ा उगाइये : जन्‍मजात होती है बच्‍चों में झूठ और चोरी की आदत, उन्‍हें सहजता से निपटाना जरूरी : पतंग लूटने या उसे दुरुस्‍त कराने की औकात होती, तो नयी कनकउव्‍वा न खरीद लेते :

कुमार सौवीर

लखनऊ : बहरहाल, लाखों की तादात में जब पतंगें आसमान को छाने पर आमादा होंगी, तो कोई कटेंगीं, कोई लूटी जाएंगी, तो कोई फटेंगी भी। बाकी तो ठीक है, लेकिन जो लूटी जाएंगी, उनमें से ज्‍यादातर तो फट ही जाएंगी। ऐसी हालत में दिक्‍कत यह होगी कि फटी पतंग के कागज को कैसे जोड़ा जाए, ताकि वह फिर से जान उमराव अदा की तरह आसमान पर अपना दिलकश नाच दिखाना शुरू कर दे। बस दो ही रास्‍ते थे। एक तो पतंगसाजों के पास जाया जाए, लेकिन वहां बड़ी दिक्‍कत यह पेश आती थी कि वे पतंग ठीक करने के लिए पैसा मांगते थे। अब उन अहमक-हरामखोरों से यह कौन पूछता कि अगर हम सब में से किसी के पास पतंग लूटने या उसे दुरुस्‍त कराने की औकात होती, तो वह नयी कनकउव्‍वा न खरीद लेता ? पतंग लूटने में अपनी पूरी ताकत काहे जाया कर देता ?
तो दूसरा तरीका था कि किसी जिल्‍दसाज के पास जा कर लेई मांग लिया जाए। लेकिन एक तो जिल्‍दसाजों के पास हम जैसे लौंडे-लफाडि़यों के लिए वक्‍त ही नहीं होता था। बल्कि वे हमें देखते ही बड़ी हिराकत से झिड़क देते थे। लेकिन कुछ जिल्‍दसाज ऐसे भी होते थे जो अपनी दूकान पर पतंग के लिए लेई मांगने वाले हर बच्‍चे को पूरी शांति के साथ समझाते थे। उनमें हुसैनगंज के जयनारायन रोड पर मशहूर टेलर रोब-मेकर्स की दूकान हुआ करती थी। उसी दूकान की दूसरी वाली पटरी पर शुरूआत में ही बायीं ओर बड़े जिल्‍दसाज मौलाना जी थे। बुर्राक सफेद पर मेंहदी से हल्‍की छींटदार दाढ़ी। जो भी बच्‍चा उनके पास लेई मांगने जाता था, वे सब को समझा देते थे कि, “बेटा ! हम जो लेई इस्‍तेमाल करते हैं, वह जहरीली होती है। वजह यह कि उसमें हम तूतिया मिलाते हैं। तूतिया एक तेज जहर होता है। लेकिन लेई में उसका इस्‍तेमाल करना हमारी मजबूरी होती है। वरना हमारी तैयार की गयी जिल्‍द को चूहे, कीड़े नुकसान कर देंगे। अब चूंकि यह खतरनाक जहर है, इसलिए हम तुमको नहीं दे सकते क्‍योंकि अगर गलती से भी तुम्‍हारी जुबान में, आंख में यह लग गया तो यह जानलेवा हो सकता है।”
आज हैं ऐसे कोई लोग, जो आसपास के बच्‍चों को इतनी संजीदगी के साथ इतना ज्ञान समझा सकें ? वह भी तब, जब कि हर परिवार के बच्‍चों में अराजक व्‍यवहार लगातार पनपता जा रहा है। पब्‍जी जैसे मोबाइल खेलों पर समय, उर्जा, मानसिकता, क्षमताएं और फूंकी जा रही रकम ही नहीं, बल्कि उनकी जिन्‍दगी तक भस्‍मीभूत होती जा रही है। कई बच्‍चों की पढ़ाई बर्बाद हो चुकी है, कुछ बच्‍चे पागलपन की हालत तक पहुंच चुके हैं। कई खबरों के मुताबिक बच्‍चों ने तो आत्‍महत्‍या तक कर डाली है। बच्‍चे हजारों का मोबाइल रिचार्ज करा लेते हैं, लेकिन कोई नहीं पूछने की जरूरत नहीं समझता। पहले ऐसा नहीं था।
एक घटना सुना दूं आपको। हुसैनगंज की जयनारायण लेन के अड़गड़ा हुसैनगंज में एक बड़े दूकानदार हुआ करते थे छंगा। बायें हाथ में एक अतिरिक्‍त संयुक्‍त उंगली के चलते ही उनका नाम छंगा पड़ गया। छंगा पूरे मोहल्‍ले में व्‍यवहार-कुशल थे। व्‍यवसाय के प्रति सजग। उधारी भी देते थे। हालांकि महीने की शुरुआत तक सारे लोग उनका हिसाब खुद ही आकर दे जाते थे। न कोई झंझट, न टंटा। लेकिन उनकी एक खास आदत गजब थी। वे अपने धंधे के साथ अपने आसपास के समाज के प्रति भी गहरी नजर रखते थे। मजाल है कि कोई बच्‍चा एकाध रुपये का नोट लेकर उनकी दूकान पर आये और टॉफी-कम्‍पट खरीद ले। सौदा तो वे बच्‍चे को दे देते थे, लेकिन वह नोट जब्‍त कर लिया करते थे। यह कहते हुए कि अपने बाबू-पिता जी को बुलाना, तब हिसाब होगा। यह जब्‍ती वे अपने रजिस्‍टर पर दर्ज कर लेते थे। बच्‍चा तो खैर शायद ही कभी लौटता था, लेकिन एकाध दिन में ही बच्‍चे के अभिभावक को गुजरते ही वे पूरा माजरा बता देते थे। साथ ही यह भी समझा देते थे कि ऐसी आदतें मारपीट से नहीं सुलझ पायेंगी। उन्‍हें प्‍यार से समझाइयेगा।
दरअसल, बच्‍चों में झूठ और चोरी की आदत सहज ही होती है। आप लाख उन्‍हें डांटें-फटकारें या पीटें, मनोवैज्ञानिक समझदारी अगर नहीं विकसित की जाएगी, उसका कोई असर ही नहीं पड़ेगा। बल्कि उल्‍टा असर यह भी हो सकता है कि बच्‍चा और ज्‍यादा ढीठ हो जाए। ऐसी हालत में जरूरत सिर्फ इतनी होती है कि हम बच्‍चों पर निगाह रखें और उन्‍हें हर बार नये प्रयोगशाली अंदाज में उनको समझायें। ऐसा करें कि उनका बाल-मन उद्वेलित हो जाए, और फिर गलत दिशा की ओर निगाह ही मोड़ ले। यह सतत प्रक्रिया होनी चाहिए। वजह यह कि यह सामाजिक चुनौती है और ऐसी चुनौतियां रोज-ब-रोज सामने आयेंगी। ऐसी हालत में उन्‍हें हर नयी चुनौती की तरह ही निपटना होगा।
मगर हम दावे तो यह खूब करते रहते हैं कि हम सामाजिक हैं। लेकिन आपकी-हमारी सामाजिक केवल अपने परिवार के बच्‍चों तक ही सीमित होती है। पड़ोसी का बच्‍चा क्‍या कर रहा है, यह हम न देखना चाहते हैं, न समझना चाहते हैं, न किसी से चर्चा करना चाहते हैं और न ही उस पर कोई हस्‍तक्षेप भी करना चाहते हैं। हम केवल अपने आपको एक घोंघा की तरह ही व्‍यवहार करना शुरू कर देते हैं। शुतुरमुर्ग की तरह। मूंदहु आंखि, कतउ कछु नाही।
अब अपने आसपास गहरी नजर डाल कर देखिये तो तनिक, क्‍या आपको एक भी ऐसा छंगा या मौलाना जिल्‍दसाज दिख रहा है जो बर्बादी की ओर छलांग-कुलांचे भरते बच्‍चों को सम्‍भालने के लिए अपना धंधा-व्‍यापार छोड़ कर उनको समझाने पर वक्‍त जाया करना ज्‍यादा मुफीद समझता हो ? और अगर ऐसा छंगा या जिल्‍दसाज आपको नहीं मिल पा रहा है तो क्‍या आपने खुद में एक नया आपके बच्‍चों के लिए छंगा या जिल्‍दसाज की भूमिका निभा सके।
अभी भी वक्‍त है म्‍यां। अब तो खोज लीजिए अपने आप में ऐसे किसी लसोढ़ा को, जो अगली पीढ़ी को नये तरीके से उनको जोड़ सके। लेकिन इसके पहले तो लसोढ़ा उगाने की कोशिश करनी ही जरूरी होगी। है कि नहीं ?
दिलों को जोड़ने के लिए लसोढ़ा की सख्‍त जरूरत है मेरी जान।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– छह )

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