गंभीर, चिंतित और प्रखर वक्ता भी करवा-चौथ पर पैर छुआने में गदगद

बिटिया खबर

: स्‍त्री बनी हवन-सामग्री और पुरुष अपनी मर्दानगी मूंछें मरोडने में जुटा : करवा-चौथ तो बीत गया, अब उसके अर्थ और मर्म को समझिये : चलता रहा है, तो कोई बात नहीं। लेकिन अब तो उसे तर्क पर तौलिये :

कुमार सौवीर

लखनऊ : स्त्री के सशक्तिकरण व उसके व्यक्तिगतता के साथ उसके स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर जितने भी लोग हमेशा बहुत गंभीर, चिंतित और प्रखर वक्ता हैं, वे सभी कल से ही सोशल मीडिया पर करवा-चौथ पर अपने पैर छुआते हुए बेहद मुदित, प्रफुल्लित और अगाध प्रसन्नता के साथ पत्नी के सामने दांत चियारने में व्यस्त हैं। वे अपनी को कुछ खाने-पानी की ऐसी औपचारिकता कर रहे हैं, मानो वे ही असली भरता है, पोषण-कर्ता हैं। वे न हों, तो उनकी पत्नियां कभी भी उनकी अर्धांगिनी नहीं बन सकतीं। उनका अस्तित्व केवल उनके पतियों की कृपा से है।
उनकी भी ऐसी पत्नियां भी गुड़िया जैसी छुई-मुई सजी-धजी गदगद हैं।
दरअसल, मैंने करवा-चौथ जैसे नये-नवेले और बाजार-प्रेरित अर्थ-उन्‍मुख कर्मकांड पर सवाल उठाया था, जिसे आस्‍था के साथ चटखारेदार और मसालेदार चाट की तरह स्त्रियों के लिए पुरुषों के झूठे अहं को तुष्‍ट कर एक नये सामाजिक हवन के तौर पर तैयार किया जा रहा है, जिसमें अन्‍तत: स्‍त्री की हवन-सामग्री की तरह प्रस्‍तुत कर रही है और पुरुष उसमें अपनी मर्दानगी की मजबूती की सफलता के लिए अपनी मूंछें मरोडने में जुट गया है। मेरा सवाल था कि :-
“तर्क-आस्‍था इसका न वेदों में कोई प्रकरण है,
न इसका दर्शन उपनिषद में है,
ब्राह्मण-सूक्त साहित्य में न इसकी चर्चा है
न श्रुतियों में इसको प्रश्न उठाने लायक समझ गया है
और न ही पुराणों ने इस पर कोई संकेत किया गया।
ऐसी हालत में यह करवा-चौथ क्या है?
साफ बात तो यह धर्म नहीं, बल्कि बाजार-प्रेरित धंधा है, जिसमें महिलाओं को पूरी तरह जकड़ लिया है।
हालात यह है कि करवा, पकवान, आडंबर और सजीधजी महिलाएं में रसोई से पूजाघर और छत तक सिमटी रहेंगी। शाम को सड़कें की भीड़ खुला मैदान बन जाएंगी, और स्वयं को देवता मान कर प्रफुल्लित पति लोग अपनी सुंदर पत्नियों से अपना पैर छुआते हुए दांत चियारते दिख जाएंगे।
आप किसी भी महिला पर करवा-चौथ के तार्किक पक्ष पर बातचीत करना शुरू कीजिए। मेरा यकीन है कि कोई भी चउथी-करवाइन लपक कर आपका मुंह नोंच डालेगी।”
इस बात पर अधिकांश लोगों ने मेरा समर्थन किया है, लेकिन कई लोग मेरी छीछालेदर के लिए अपनी आस्‍थाओं का सहारा ले रहे हैं। मैं बात अब उन्‍हीं पर करना चाहता हूं। तनिक मेरी बात छोड़ कर तनिक अपने बारे में बताने की कृपा कीजिए कि क्या आप में से किसी के पास करवा के उत्पत्ति, उसके कृषि, समाज अथवा परिवार के जुड़ाव, उसके पर्व संबंधी आवश्यकता, कर्मकांड, उसकी पुरातन जरूरत के अलावा आज करवा अथवा उसके चौथ जैसे किसी तिथि से जुड़ाव, परिवार से एकल-परिवार में भी नितांत दाम्पत्य सम्बन्ध और उसमें किसी एक लिंग-विशेष पक्ष द्वारा किसी विपरीत दाम्पत्य साथी के पैर छुआ कर या उसकी देवता के समान पूजा करने का कोई विधान, संबंध अथवा व्याख्या है ?
अगला सवाल पुरुषों से। वे इस अवसर का मर्म, विधान अथवा उसके आयोजन के मूल को समझने के बजाय अपनी पत्नी को अपनी सहचरी बनाने के बजाय उसे दासी बनाने की परोक्ष राजनीति पर सायास अथवा अनायास चेष्टा के अगुआ क्यों बन जाते हैं? क्या वे भूल जाते हैं कि उनका यह कुकृत्य मानव-समाज में आधे से भी लगातार कम होती जा रही हिस्सेदारी वाली स्त्री को ऐसी शिकंजे में जकड़ने जा रही है, जिससे वे दोबारा स्त्री को मध्य-युगीन अरब-संस्कृति को गहने-आभूषण जैसे आदिम और बर्बर शिकंजों में जकड़ने के सशक्त माध्यम बन चुके हैं।
अरे तुम दोनों करवा-चौथ के अर्थ को समझने की पहले जरूरत तो समझो ! आवश्यकता, दायित्व, अर्थ, प्रक्रिया, परम्परा और यथार्थ तो तार्किक पक्ष हैं। अब तुम बताओ न, कि जिस करवा-चौथ की परंपरा की ढोल बजा रहे हो, उसके औचित्य का अर्थ क्या है?
विश्वगुरु बनने के लिए पहले आपको तर्क और आस्था में फर्क करना ही पड़ेगा। वरना…

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