: इन सड़कों के दोनों किनारों पर शीशम, नीम, पीपल, बरगद आदि के वृक्ष होते और जिन गांवों के करीब से ये गुजरते, वहां के लोगों को रोज़गार मिल जाता : नामी-गिरामी कंपनियों के फ़ूड जॉइंट्स हैं, जहाँ बेहूदा समोसा भी पचास और बेस्वाद चाय सौ रूपये :
शंभूनाथ शुक्ल
गाजियाबाद : सरकारें इस बात का क्रेडिट अक्सर लेती हैं कि उनने सड़क परिवहन का कायाकल्प कर दिया है। यकीनन यह बात उन लोगों को बहुत अच्छी लगती है, जिनके पास बड़ी-बड़ी कारें हैं, इफरात में पैसा है और जो हर वीकेंड पर लॉन्ग ड्राइव कर अपना आउटिंग का शौक़ पूरा करना चाहते हैं। लेकिन इसके उलट जो गरीब हैं और जो इस विकास की दौड़ में पिछड़ गए हैं, और जो मेट्रो टाउन में नहीं जाकर बस पाए, ऐसे लोगों के लिए ये एक्सप्रेस-वे अभिशाप हैं। इन एक्सप्रेस-वे ने उनके विकास की गति धीमी कर दी है। उनका बाज़ार खत्म हो गया, जिस वज़ह से छोटा-मोटा धंधा कर अपना और अपने परिवार का पेट पाल लेने वालों पर तो गाज ही गिरी है। इन सड़कों पर फर्राटा भरते वाहन इन गाँवों की तरफ देखते तक नहीं हैं। और उन गाँवों के ऊपर से निकले ये उच्च राजपथ देश के नागरिकों को परस्पर संवाद तक नहीं करने देते।
याद करिए, दो दशक पहले के जो नेशनल हाई-वे थे, उनकी देखभाल हर उस राज्य का लोक निर्माण विभाग करता था, जिस राज्य से वे निकलते थे। इन सड़कों के दोनों किनारों पर शीशम, नीम, पीपल, बरगद आदि के वृक्ष होते और जिन गांवों के करीब से ये गुजरते, वहां के लोगों को रोज़गार मिल जाता। कोई इनके किनारे चाय की गुमटी खोलता तो कोई ढाबा। ट्रक ड्राइवर्स और कार वाले भी यहीं रुकते, विश्राम करते और चाय-नाश्ता तथा भोजन करते। अगर ये लोकल बाज़ार न विकसित होता तो किसे पता चलता, खुर्जा की खुरचन का या मेरठ की रेवड़ियों का। कन्नौज के गट्टे तथा मुरथल के पराठे अनजाने ही रह जाते। एनएचएआई (राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण) ने तो ऐसे उच्च पथ बना दिए हैं, जिनके कारण उनके किनारे बसे गाँव अब अछूत-से होकर रह गए हैं। इन उच्च राजपथों के किनारे अब इतने ऊंचे होते हैं कि गाँव वाले इन्हें देख तक नहीं सकते। भयावह नीरवता इनके दोनों ही किनारों पर फैली होती है। बस बीच-बीच में कुछ नामी-गिरामी कंपनियों के फ़ूड जॉइंट्स बना दिए गए हैं, जहाँ पर एक समोसा भी पचास रूपये से कम का नहीं है। वहां दो लोगों के भरपेट भोजन का मतलब है कम से कम हज़ार रूपये का खर्च। बरिस्ता जैसे रेस्टोरेंट में चाय भी सौ रूपये की है, वह भी बेस्वाद। ज़ाहिर है ये सारी सड़कें सिर्फ उन लोगों के लिए बनी हैं, जिनके पास अथाह पैसा है। गाँव वाले अपने ट्रैक्टर लेकर इनमें चढ़ नहीं सकते, प्रति किमी सवा से ढाई रूपये तक टोल है। इनमें सबकी बन्दरबांट है।
तब फिर क्या लाभ है, ऐसे विकास का। इसमें रोज़गार नहीं है। संवाद- हीनता है और भागता हुआ विकास है, जो आस-पास से कटा हुआ है। अगर प्रधानमंत्री जी वाकई विकास को लेकर संवेदनशील हैं तो इस बात पर विचार करें। विकास सब का हो, तब ही वह सही मायनों में विकास है। अन्यथा वह भारत जैसे देश में तो विनाश को ही न्योतेगा। गाँवों को इस तरह अनदेखा कर देना, एक तरह-से पूरे एक समाज को विकास की दौड़ में आगे निकल चुके लोगों से काट देना है। जबकि सच यह कि यही लोग हैं जो मतदाता हैं। इन उच्च पथों पर कार दौडाने वाले तो वे अवसरवादी लोग हैं, जिन्हें वोट देने की फुर्सत नहीं है, अलबत्ता सब कुछ कंट्रोल में लेने की हवस जरूर है।
(शम्भूनाथ शुक्ल देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। आजकल निवाण नामक समाचार पत्र का संपादन कर रहे हैं।)