स्‍तब्‍ध करने वाली पदचाप व भंगिमा थमी, बिरजू जी नहीं रहे

बिटिया खबर

: सबसे पहले मैंने साक्षात देखा था बिरजू महाराज जी का कथक नर्तन : गंगा महोत्‍सव का आयोजन था नदी पर बने विशाल मंच पर : कथक के लखनऊ घराने के मठाधीश थे महराज : दिल्‍ली में तड़के हुआ जर्बदस्‍त हार्ट अटैक, और फिर सब खत्‍म :

कुमार सौवीर

लखनऊ : यह सन-89 की बात है। दैनिक जागरण के स्‍थानीय संपादक विनोद शुक्‍ल ने गंगा महोत्‍सव को कवर करने के लिए मुझे चार दिनों के लिए वाराणसी भेजा था। यह महोत्‍सव यूपी के संस्‍कृति विभाग की ओर से आयोजित था, इसलिए आवभगत सरकार ही कर रही थी। अपर निदेशक आरपी शुक्‍ला पूरे आयोजन के केंद्र में थे। साहित्‍यकार शुक्‍ल जी इस आयोजन में एंकरिक भी कर रहे थे। बेहद चुटीले अंदाज में।
दूसरे या तीसरे दिन बिरजू महाराज का कार्यक्रम था। विशाल मंच दशाश्‍वमेध घाट के सामने गंगा जी की गोद में बनाया गया था। बिरजू ने अपनी कला का प्रदर्शन करना शुरू किया तो वाह-वाह का जबर्दस्‍त कोलाहल मच गया। मैंने कई उत्‍साहित और आनंदित दर्शकों से पूछा तो उनका कहना था कि आज तो बिरजू जी ने अपनी कला का सारा झोला ही खाली कर दिया। यह सच भी था। बिरजू महाराज जी ने कई लोगों और प्राणियों के पदचाप का जो सजीव प्रदर्शन किया, उसे देश कर मेरे रोंगटे खड़े हो गये। सबसे जबर्दस्‍त रहा घोड़े की शायद बारह चालें। बिरजू महराज अपने कदम रखते थे, तो घुंघरू के साथ लगता जैसे अश्‍व की मदवाली पदचाप निकल जाती थी। बाद में मैंने कई बार उनकी नकल करने की कोशिश की, लेकिन एक फीसदी भी सफलता नहीं मिल सकी।
लेकिन बिरजू महाराज का नाम कथक से है। कथक यानी कथाओं को अपनी भंगिमाओं के सहारे नृत्‍य के माध्‍यम से प्रदर्शन करना। इस नृत्य के तीन प्रमुख घराने हैं। कछवा के राजपूतों की राजसभा में जयपुर घराने का, अवध के नवाब के राजसभा में लखनऊ घराने का और वाराणसी के सभा में वाराणसी घराने का जन्म हुआ। एक प्रसिद्ध रायगढ़ घराना भी है। यह बहुत प्राचीन शैली है और महाभारत में भी कथक का वर्णन है। मध्य काल में इसका सम्बन्ध कृष्ण कथा और नृत्य से था। मुसलमानों के काल में यह दरबार में भी किया जाने लगा। प्राचीन काल मे कथक को कुशिलव कहा जाता था।
लखनऊ घराने के तौर पर अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में इसका जन्म हुआ। आगरा शैली के कथक नृत्य में सुंदरता, प्राकृतिक संतुलन होती है। कलात्मक रचनाएँ, ठुमरी आदि अभिनय के साथ साथ होरिस (शाब्दिक अभिनय) और आशु रचनाएँ जैसे भावपूर्ण शैली भी होती हैं। अच्छन महाराज के बेटे बृज मोहन नाथ मिश्र यानी पंडित बिरजू महाराज ने इस कला को आगे बढ़ाया और जल्‍दी ही वे इस घराने के मुख्य प्रतिनिधि बन गये। वे लखनऊ के कालका बिंदादीन घराने से जुड़े थे। आज तो करीब ढाई से ज्‍यादा कथक केंद्र बिरजू महाराज जी के नाम पर चल रहे हैं।
जन्‍म यानी 4 फरवरी 1937 से बिरजू महराज ने अपने पांवों से थाप देनी शुरू की थी, जिसने उसकी थाप को पूरी दुनिया को स्‍तब्‍ध कर दिया। लेकिन आज वही थाप आज हमेशा-हमेशा के लिए खत्‍म हो गयी। खबर है कि बिरजू महाराज की आज दिल्‍ली में एक जोरदार हृदयाघात में मृत्‍यु हो गयी है।

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