उत्‍सव तो समझ में आया। लेकिन गुडि़या क्‍यों पीटीं ?

बिटिया खबर

: गुडि़या घर की वही महिलाएं बनाती हैं, जो पुण्‍य-प्रसाद के तौर पर पति-देव द्वारा पीटी जाती हैं : बच्चियां तो गुडि़यों की खाल खिंचवाने के लिए लड़कों से गुजारिश और पिटती गुडि़यों को देख-देख कर किलकारियां मारती हैं : हिंसा शस्‍त्र स्‍वादिष्‍ट चिरौंजी, लेकिन उससे हिंसा, बाप रे बाप :

कुमार सौवीर

लखनऊ : अवध में नागपंचमी एक बड़ा त्‍योहार है। तैयारी कई दिनों पहले से शुरू हो जाती है। अरहर यानी तूर की मजबूत लेकिन सीधा-सपाट डाल को तोड़ा जाता है। फिर चाकू या हंसिया से उसकी चमड़ी एक सीधे से ही उकेली जाती है। फिर थोड़ा स्‍पेस देकर उस खाल को फिर से उसी डंडे पर लपेटा जाता है, कुछ इस तरह कि एक चमड़ी और डंडे के बीच थोड़ी खालीपन दिखायी पड़े। लेकिन काफी कस कर लपेटा जाता है उसे। इस के बाद उस डंडे को रंग-बिरंगे रंगों से आमूल रंगा जाता है। सूखने की थोड़ी प्रतीक्षा के खाल को उतार लिया जाता है। जाहिर है कि कसी चमड़ी के चलते उस छड़ी का खाली-रिक्‍त लेकिन आकर्षक बन जाता है। फिर उस छड़ी के एक छोर पर कई तरीकों के कागज-कपड़े से पफिंग कर दी जाती है। अब इस डंडी का नामकरण कर दिया जाता है:- चिरौंजी।
ग्रामीण लोगों का मानना है कि उनके देश में केवल दो ही सबसे बड़े त्‍योहार हैं। एक तो गुडि़या यानी नागपंचमी पर गुडि़या है, जबकि दूसरा है ढुंड़ेहरी यानी होली। घर से लेकर बाहर गांव-जवार में केवल यही दो उत्‍सव माने जाते हैं। भोजन से लेकर सार्वजनिक एकजुटता का भारी जमावड़ा। होली वाली चूल्‍हा-कड़ाही उसी तरह तैयार की जाती है जैसे गुडि़या। क्‍या बरिया-फुलौरीऔर क्‍या कचौड़ी-पूड़ी। क्‍या बालूशाही और क्‍या हलवा-सब्‍जी। बच्‍चों की धमा-चौकड़ी और चिल्‍ल-पों के बीच महिलाओं की इस कमरे से उस आंगन और सहन के बीच भागा-दौड़ी।
लेकिन यह उत्‍सव तो समझ में आता है। लेकिन आज तक समझ में नहीं आया कि आखिर इतने बड़े त्‍योहार में गुडि़या क्‍यों पीटी जाती है ?
हैरत की बात है कि एक तरफ तो उत्‍सव की गर्मी होती है, वहीं दूसरी ओर हर-घर में बनायी गयीं कपड़ों की गुडि़यों को चौराहे पर फेंक कर उन्‍हें उसी चिरौंजी से क्‍यों पीटने के लिए लड़कों प्रेरित और उत्‍साहित क्‍यों किया जाता है। हैरत की बात तो यह है कि यही गुडि़या घर की वही महिलाएं बनाती या बनवाती हैं, जो विवाह के बाद परम्‍परागत खुद ससुराल में पुण्‍य-प्रसाद के तौर पर पति-देव द्वारा पीटी जाती हैं। और फिर घर की बच्चियां उसी गुडि़या को लेकर चौराहों पर जमावड़ा लगाये लड़कों को सौंपी-समर्पित की जाती हैं, कि वे आयें और अपनी-अपनी चिरौंजियों से उन गुडि़यों की खाल खिंचवाने के लिए गुजारिश करती हैं और पिटती गुडि़यों को देख-देख कर किलकारियां मारती हैं।
लेकिन गुडि़या को बना कर उसे पीटने का रिवाज तो भारत और नेपाल समेत चंद देशों के अलावा पूरी दुनिया में नहीं है।क्रूरतम माने जाने वाले समुदाय और पंथों-धर्मों में भी नहीं। वह भी केवल हिन्‍दी भाषा-भाषी इलाकों में। समझ में नहीं आता है भारत के इस बड़े उत्‍सव में इस तरह की परपीड़क परम्‍परा का औचित्‍य। मेरा अनुरोध है कि, शायद महिलाएं इस बात को गम्‍भीरता के साथ देखें, समझें और उसका मर्म समझ कर उस पर यथोचित संशोधन कर सकें। क्‍योंकि गुडि़या पीटने की प्रचलित कथा तो ठीक उसी तरह है, जैसे सत्‍यनारायण कथा। न तो सिर और न ही पैर, ठीकरा केवल स्‍त्री के माथे पर ही फोड़ा जाता है।

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