: आधा दर्जन भाषाओं में निष्णात, मूडी, साहसी, स्पष्टवक्ता, कर्मण्य और निष्ठावान भी हैं दिव्यरंजन पाठक : कंडोम खरीदने में संकोच, तो कंडोम की जरूरत वाला काम ही क्यों : कुछ लोगों की आदत होती है उड़ता तीर लेना या सड़क पर पड़ी लकड़ी को आत्मसात करना :
कुमार सौवीर
लखनऊ : इस शख्स का नाम है दिव्यरंजन पाठक। मेरे मित्र ही नहीं, घनिष्ठ और पारिवारिक भाई भी हैं दिव्यरंजन। तकरीबन आधा दर्जन भाषाओं में निष्णात, मूडी, साहसी, स्पष्टवक्ता, कर्मण्य और निष्ठावान भी हैं दिव्यरंजन पाठक। ट्यूशन देते हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में वे पारिश्रमिक एक छदाम तक नहीं लेते। पढ़ना और पढ़ाना उनका धर्म है, ब्राह्मण वाला धर्म। इसलिए वे अपने इस धर्म में वणिक यानी बनिया-गिरी नहीं घुसेड़ते। भाषा, साहित्य और पत्रकारिता उनकी पारिवारिक थाती है। पिता जी बंशीधर पाठक उर्फ जिज्ञासु जी तो आकाशवाणी की एक मजबूत आधारशिला थे।
तो पहले तो यह समझ लीजिए कि दिव्यरंजन मूलत: क्या हैं। केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए बने सीजीएचएस संगठन का एक केंद्र डिस्पेंसरी लखनऊ में भी है। एक दिन अपने एक मित्र के साथ सीजीएचएस डिस्पेंसरी में गये। मकसद था वहां हाल ही तैनात हुई एक किसी नयी महिला डॉक्टर से मिलना-भेंट करना। महिला डॉक्टर मित्र ने उनसे वहां मौजूद मरीजों को देखने के लिए कुछ समय मांगा और वहां मौजूद एक मरीज युवक से पूछताछ करने लगी। युवा और महिला डॉक्टर देख कर मरीज एकदम से सिटपिटा सा हो गया। वह कुछ बता ही नहीं पा रहा था। यह देख कर दिव्यरंजन पाठक ने उस डॉक्टर से साफ कह दिया कि उसे कोई मर्दानी दिक्कत है, और इसीलिए वह आपसे अपनी परेशानी नहीं बता पा रहा है। बेहतर तो यह होगा कि तुम सीधे किसी पुरुष डॉक्टर से मिला दो। झंझट ही खत्म हो जाएगा। कहने की जरूरत नहीं कि यह मामला मिनटों में निपट गया।
दिव्यरंजन पाठक मांसाहार के अलावा पूरी तरह सात्विक व्यक्ति हैं। कोई भी नशा नहीं। लेकिन अगर आप को दारू की दुकान में जाने में दिक्कत है, तो दिव्यरंजन पाठक अपने मित्र-भाव का तत्काल प्रदर्शन कर देंगे। आप उनको दारू की मात्रा, रुपया और उसका नाम बताइये। साथ ही यह भी बता दीजिए कि अगर उस दुकान में वह नाम-ब्रांड नहीं मिला तो उसकी वैकल्पिक दारू कौन-कौन हो सकती है। दिव्यरंजन जी अपनी साइकिल पर पैडल मारेंगे और “यह गया वह गया” की तर्ज में आपकी ख्वाहिशों को चुटकियों में ही निपटा देंगे। वह भी नि:शुल्क। केवल शराब ही नहीं, वे आपके किसी भी मित्र के साथ यही व्यवहार कर सकते हैं, बशर्ते दिव्यरंजन पाठक के पास पर्याप्त समय हो, तो।
हां, पाठक जी में बोलने वाले कीड़े अचानक बिलबिला पड़ते हैं, जब वे किसी को संकट में देखते हैं। आप उसे उड़ता तीर लेने या सड़क पर पड़ी लकड़ी को आत्मसात करने के तौर पर समझ सकते हैं। एक किस्सा सुन लीजिए। पाठक दवा की एक दुकान में खड़े थे। लेकिन उनसे पहले ही एक युवक उनसे कुछ कहना चाहता था, लेकिन संकट तो जुबान लटपटाती हरकत से है, जो उसके अचकचा जाने यानी भय-मिश्रित के चलते आवश्यकता के अचानक सार्वजनिक हो जाने से गड़बड़ा गयी थी। वह युवक दुकानदार से कभी क्रोसिन तो कभी पैरासिटॉमॉल मांग रहा था। युवक घबराया हुआ, जबकि दूकानदार झुंझलाहट से बेहाल। लेकिन किसी मूसरचंद की तरह पाठक जी ने दूकानदार को हल्की सी झड़की दी, और बोले कि इस युवक की आवाज के बजाय उसके दिल की आवाज को सुनने की कोशिश कीजिए। दूकानदार और पाठक जी एक-दूसरे के मित्र हैं, इसलिए पाठक जी ने दूकानदार के कान में फुसफुसाया कि उस लड़के को क्रोसिन-प्रोसिन नहीं बल्कि कंडोम चाहिए, जो मेरी मौजूदगी के चलते नहीं कह पा रहा है। अब उससे सीधे पूछ लीजिए कि उसे कौन सा ब्रांड चाहिए। बात खत्तम।
दरअसल, दिव्यरंजन को सबसे बड़ी दिक्कत है दो लोगों के बीच टांग अड़ाने की।
पाठक जी को दिक्कत इस बात पर नहीं होती है कि उनसे किसी ने उनके साथ अभद्रता कर ली। बल्कि सबसे बड़ी दिक्कत तो पाठक जी को ऐसे लोगों पर होती है, जिनमें साहस नहीं होता, लेकिन उनकी आवश्यकताएं मुंह बाये होती हैं। अरे आपको अगर शराब की दूकान पर जाने में शर्मिंदगी होती है, तो शराब पीते ही क्यों हैं? अगर आपको कंडोम खरीदने में संकोच होता है, तो ऐसा काम ही क्यों करते हैं जिसमें कंडोम की जरूरत हो पड़े? पाठक जी ऐसे लोगों को दर-चूतिया मानते हैं, लेकिन अपनी आदत से मजबूर भी रहते हैं कि ऐसे लोगों की मदद करेंगे जरूर। सौ-सौ जूते खायं, चित्त पर एक न लेवैं।