: लेक्चरर बनना चाहता था, राग-दरबारी वाले खन्ना मास्टर ने सपनों को बिखेर दिया : मौक़ा मिलते ही टिप्पणी करता हूं, कोई भला माने या बुरा :
शेषनारायण सिंह
नई दिल्ली : मैं मूल रूप से पत्रकार बनने नहीं आया था .क्योंकि मुझे मालूम है कि कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता .इसलिए जो काम भी मिल जाए उसे मेहनत से करना चाहिए . यह भी सच है कि सबको अपनी पसंद का काम नहीं मिलता .मुझे तो मनपसंद काम मिल गया था लेकिन टिक नहीं सका . मुझे 1973 में वही काम मिला था जो मैं करना चाहता था. बी ए के आखिरी साल में था तभी मन बना लिया था कि पढाई पूरी करके किसी कालेज में लेक्चरर बनूंगा. एम ए का रिज़ल्ट आते ही लेक्चरर की नौकरी मिल गयी . लेकिन जब अन्दर जाकर देखा तो छक्के छूट गए . श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘ राग दरबारी ‘ के पात्र खन्ना मास्टर की तरह महसूस करने लगा. छोटे मोटे तिकड़म, कालेज के प्रिंसिपल के मुंहलगे क्लर्क की कमीनापंथी , कस्बे की सियासत में मौजूद कीचड़ से उठकर आते छीटे एक सच्चाई की तरह सामने आने लगे. दो साल के अन्दर ही काम छोड़ना पड़ा. डर लगा रहता था कि कोई बैद जी या कोई रामाधीन भीखमखेडवी आएगा और कंटाप मारकर चला जाएगा, या उसी शिवपाल गंज में कहीं दफ़न कर देगा .
उसके बाद तय कर लिया कि मनपंसद वनपसंद कुछ नहीं , जो भी काम मिलेगा कर लूंगा . 1975 में जब इलाहाबाद गया तो सपने में नहीं सोचा था कि पत्रकार बनूंगा . 1976 में जब दिल्ली आया तो कोई भी नौकरी करके पेट पालने के लिए ही आया था. कुछ कंपनी आदि में काम किया भी लेकिन कुछ शुभचिंतकों ,मित्रों ने समझाया कि किसी कंपनी आदि में नौकरी कर नहीं पाओगे . लिखने , पढ़ने , बहस करने का शौक़ है तो वही करो. उसी में रोटी पानी भर का कमा लोगे . ज़िंदगी एक ढर्रे से चल जायेगी . हमारे दोस्त स्व. दिलीप कुमार और स्व उदयन शर्मा ने बहुत उत्साहित किया. बहुत मदद की . दोनों ही कहते थे जो जो बोलते रहते हो ,वही लिख दिया करो . उदयन शर्मा ने तो लिखवाया भी खूब.इसलिए जब पत्रकारिता में नौकरी शुरू की तो देश के कई नामी पत्रकारों की नज़र में मैं ठीक ठाक पत्रकार के रूप में जाना जाता था . बाद में उसी पत्रकारिता के काम में मन लग गया . यहाँ भी तिकड़मबाजी कम नहीं थी लेकिन एक अखबार छूटते ही दूसरी नौकरी लगती रही और पत्रकार के रूप में पहचान बन गयी.
मुंशी प्रेमचंद , कबीर साहेब, संत तुलसीदास के साहित्य, भाषा और attitude से प्रभावित होकर पत्रकारिता करता हूँ. अपने गाँव के स्वर्गीय परमेस्सर पांडे की तरह अंजाम की परवाह किये बिना सच को सच कहने की कोशिश करता हूँ. किसी के फटे में टांग नहीं अड़ाता , ऐसा कोई काम नहीं करता जिससे किसी की नौकरी चली जाय, .टी डी कालेज जौनपुर के पूर्व प्राचार्य स्व हृदय नारायण सिंह की हिदायत थी कि जो भी काम करो, बस एक बात का ध्यान रखो कि अपने प्रति ईमानदार रहो ,किसी की राय की परवाह मत करो.उनकी बात को आजतक मानता हूँ .अपने दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर डॉ अरुण कुमार सिंह ( पूर्व प्राचार्य टी डी कालेज ) की नसीहत है कि पढ़ना लिखना जारी रखो और लिखने या बोलने में पढी हुई किताबों की खुशबू आनी चाहिए . उनकी बात को असल में लागू करने की कोशिश करता हूँ. और आज पत्रकार के रूप में पहचाना जाता हूँ. आज भी जो कुछ लिखता बोलता हूं , उसको डॉ अरुण कुमार सिंह की समालोचक दृष्टि की कसौटी पर जांच के लिए प्रस्तुत करता हूं. आज भी उनकी सलाह पर बहुत सारे लेख बदलने को तैयार रहता हूं.
इसलिए मुझसे बहुत कालजयी पत्रकारिता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . हां , जहां भी मौक़ा लगता है , टिप्पणी ज़रूर करता रहूँगा . कोई भला माने या बुरा.