कूड़ेदान में डम्‍प हो गये राजधानी में पांच लाख अखबार

बिटिया खबर

: अखबारों की कीमत बढ़ाने पर बवाल। लखनऊ में सन्‍नाटा, बाराबंकी में बिक गये समाचारपत्र : अखबारवाले नागनाथ, हॉकर सांपनाथ। सबको चाहिए था मुनाफा, भाड़ में जाए पाठक : सबसे ज्‍यादा नुकसान दैनिक जागरण को, अंग्रेजीवालों को कौन पूछता है : 

कुमार सौवीर

लखनऊ : अखबार मालिकों को अपनी तिजोरियों को भरने की फिराक में थी, इसके लिए उन्‍होंने अखबारों की कीमतों को बढ़ाने का फैसला कर लिया। तय किया कि अब किसी भी अखबार में उसकी औकात के हिसाब से उसकी कीमत बढ़ा ली जाए। लेकिन इस पर बवाल हो गया। घर-घर तक अखबार पहुंचाने वाले हॉकर समुदाय के लोगों ने इस पर ऐतराज किया। और आज नतीजा यह निकला है कि लखनऊ में एक भी अखबार की एक भी प्रति किसी भी हॉकर के हाथ नहीं पहुंच पायी है। अनुमान है कि लखनऊ में करीब पांच लाख अखबार आज छप तो गये, लेकिन बिक नहीं पाये। नतीजा यह निकला कि सारे के सारे अखबार अपने प्रेस तक ही सिमटे रहे। हालांकि बाराबंकी में इस हड़ताल का कोई भी फर्क नहीं पड़ा है।
दरअसल, कई महीनों से कई अखबारों के मालिकों ने अपने अखबारों की कीमतें बढ़ाने की जुगत खोजना शुरू किया था। रविवार समेत कुछ दिनों में बाकी दिनों के मुताबिक प्रतियों की कीमतें बढ़ा ली गयीं। लेकिन इस बढ़ोत्‍तरी को सभी दिनों में लागू करने की जैसे ही कोई कोशिश की जाने लगी, अखबारों के हॉकर नाराज हो गये। उनका कहना था कि यह उनके साथ और बाकी पाठकों के साथ भी धोखा है। उनकी चेतावनी है कि अगर इस तरह की बढ़ोत्‍तरी तत्‍काल वापस नहीं ली गयी, तो वे अखबारों का बहिष्‍कार करेंगे।
लेकिन सच बात तो यह है कि यह दोनों ही समुदाय अपनी रोटियों के झगड़े में पाठक के नुकसान की कहानी सुना रहे हैं। एक अखबार के प्रबंधक ने बताया कि कागजों की कीमतें अब आसमान में है। सादे कागज 90 रुपये प्रतिकिलो की कीमत तक पहुंच चुका है। उससे राहत पाने के लिए अखबारों की कीमतें बढ़ाने की मजबूरी आ चुकी है। अपने पाठकों को उनका सुझाव है कि बढ़ती कीमतों के चलते कागज की कीमत तो बढ़ी है, ऐसे में पाठकों को सहयोग बनाये रखना चाहिए। इतना ही नहीं, पाठकों को चाहिए कि वे रद्दी बन चुके अखबारों को कम से कम 25 रुपया प्रतिकिलो की दर से ही बेचें। लेकिन अखबारवालों ने यह तक खुलासा नहीं किया है कि वे अपने अधिकांश पन्‍नों पर बेहिसाब विज्ञापन लेकर मोटी कमाई कर रहे हैं लेकिन इसके बावजूद पाठकों को लगातार चूसने पर आमादा है।
जबकि हॉकरों का भी गुस्‍सा समझ में नहीं आ रहा है कि वे अखबारों के वितरण का बहिष्‍कार क्‍यों कर रहे हैं। सच बात तो यही है कि अखबारों की कीमतों में से हॉकर को 30 फीसदी का कमीशन मिलता है। ऐसे में यह अखबार एक रुपयों का है या फिर आठ रुपयों का, इसका हॉकरों की सेहत पर क्‍या फर्क पड़ सकता है, इसका खुलासा कोई भी हॉकर नहीं कर रहा है। लेकिन एक अखबार के प्रबंधक का आरोप अगर सुना जाए, तो दूध और पानी अलग-अलग हो जाता है। प्रबंधक का कहना है कि यह हॉकर इस बढ़ोत्‍तरी में अपना मोटी बोनस झटकना चाहता हैं।
बहरहाल, इस हड़ताल ने अखबारों की प्रतियों का खुलासा तो कर ही दिया है। हालांकि हॉकरों का कहना है कि आज करीब 70 लाख अखबार नहीं बिके हैं, जबकि अखबारवालों का दावा है कि इस हड़ताल से पांच लाख अखबार रद्दी हो गये और लखनऊ में एक भी अखबार नहीं बिक पाया है। एक अन्‍य अखबार के प्रबंधक ने दावा किया है कि हड़ताल से प्रभावित होने वाले ऐसे अखबारों में सबसे ज्‍यादा प्रतियां दैनिक जागरण की है, जिसमें एक लाख साठ हजार प्रतियां छपती हैं। अमर उजाला का एक लाख, हिन्‍दुस्‍तान का चालीस हजार और नवभारत टाइम्‍स में केवल बीस हजार अखबार ही बिक पाता है। टाइम्‍स ऑफ इंडिया और हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स भी बीस-पचास हजार प्रति तक ही सिमटा रहा है। कई अखबारों के प्रबंधकों से बातचीत करने की कोशिश की गयी, लेकिन उनसे सम्‍पर्क नहीं हो पाया।

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