नहीं रहा बियावान मरुस्थल का जीवंत किताबघर

बिटिया खबर

: शंकर गोली यानी पत्रकार भी, प्रहरी भी : बाड़मेर में कुओं का खारा पानी होता है, लोग बहुत खरे :
नारायण बरेठ
बाड़मेर : अपनी यादों के उजाले साथ लिए इस जहां से चले गए शंकर गोली। एक जुझारू पत्रकार, हॉकी का गोलकीपर और जिंदादिल शख्स। जिंदगी ने उनकी जिंदगी को जतन से बिगाड़ने की साजिश की थी, लेकिन वे हमेशा गोली यानी हॉकी के गोलकीपर ही बने रहे। बीते इतवार को यकसां उनका फोन आया और इतना भर कहा, “बीमार हूँ। आपको बता देता हूँ।” गोया कह रहे हो अलविदा साथियो।
राजस्थान के सीमावर्ती बाड़मेर में उन्होंने शनिवार को आखिरी साँस ली । एक अफ़्रीकी कहावत है किसी बुजुर्ग का चला जाना एक पुस्तकालय का चला जाना है। कभी उस बियाबान मरुस्थल में उनकी हैसियत एक किताब घर जैसी ही थी।
उन दिनों वे नव भारत टाइम्स के लिए बाड़मेर से खबर भेजते थे। उनकी खबरों में प्रमाणिकता होती थी। बाड़मेर की पहली यात्रा की तो शंकर जी ही मार्गदर्शक थे। हम ठेठ भारत के आखिरी मकाम गडरा रोड तक गए। रात को रुके भी। तब न तो इतना सुगम आवागमन था, न ही फोन नेटवर्क।
थार मरुस्थल में बाड़मेर कोई 28 वर्ग किमी तक फैला है। इस एक हिस्से पर 240 लम्बी सरहद पाकिस्तान से लगती है। लेकिन शंकर जी को चप्पे चप्पे की जानकारी रहती थी। तब सीमा पर कोई तारबंदी नहीं होती थी। कुछ भी हलचल खबर बनती थी।
स्व भैरो सिंह शेखावत प्रतिपक्ष के नेता थे। वे शंकर जी की सूचनाओं पर बहुत भरोसा करते थे। विधान सभा चल रही थी। शंकर जी को कोई ऐसी सूचना मिली जो अहम थी। उन्होंने खबर में इस्तेमाल किया और भैरो सिंह जी को भी जानकारी दी। सदन में मामला उठा और प्रमुखता से छपा।
यह वो दौर था जब प्रेस और विपक्ष में अच्छे रिश्ते होते थे। इसे बुरा नहीं माना जाता था। उन्होंने मुश्किल हालात में पत्रकारिता की। वो एक ऐसे इलाके में रिपोर्टिंग करते थे जहां अक्सर रेत के बवंडर उठते थे। कभी वहां सूखा और कभी अकाल की पदचाप सुनाई देती थी। पानी की किल्लत थी। कुओ में खारा पानी होता था। लेकिन लोग बहुत खरे होते थे। कुए बहुत गहरे होते थे। पर लोग भी गहरे होते थे। बाड़मेर में पेट्रोल उत्पादन के बाद अब सब कुछ मयस्सर है। कुछ मिला है तो कुछ खोया भी है।
ग़मे जिंदगी के अफ़साने तो थे पर शंकर जी अपने पेशेगत काम से मुतमुईन थे। क्योंकि तब पेशे को पैसे नहीं तोला जाता था। इन्ही सब के बीच उनका जवान पुत्र चला गया। मगर वे दुःख सुख में अडिग रहे। उनके पौत्र ने बड़ी सेवा की। बीते इतवार को यकसां उनका फोन आया और इतना भर कहा, “बीमार हूँ। आपको बता देता हूँ।” गोया कह रहे हो अलविदा साथियो।
यूँ उनका नाम शंकर धारीवाल था। लेकिंन वे फुटबाल के अच्छे खिलाडी और गोलकीपर थे। इसलिए यही नाम मकबूल हो गया। उस सहरा में साय सांय हवाएं चलती है, मरू बालू के कण भी विचरते रहते है। लेकिन थार में रेत के टीलों पर लिखी इबारत जल्दी से मिटती नहीं है। मिटटी उनका नाम दर्ज जरूर रखेगी।
खिराजे अकीदत सादर

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