कानून-ची दुनिया: किसी में चुल्‍ल है, किसी का दायित्‍व, तो किसी का धर्म

बिटिया खबर

: जिन्‍दगी को आम आदमी से जोड़ने में बेमिसाल हैं हाईकोर्ट के तीन वकील : कानून-चीं धंधे से अलग भी एक अनोखा जीवन जीने के लिए जरूरी है लसोढ़ा : व्‍यवसाय के साथ लेखन से डंका बजा रहे हैं वकालत-सेनानी : बातचीत रविशंकर पांडेय, चंद्रभूषण पांडेय और आईबी सिंह पर :

कुमार सौवीर

लखनऊ : बनारस हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय का एक कुलगीत है। इस कुलगीत में वाराणसी को सर्वविद्या की राजधानी मान कर उसकी स्‍तुति की गयी है। वजह यह कि इस धर्म-नगरी में केवल विभिन्‍न विद्याओं के प्रकाण्‍ड पण्डित ही नहीं हैं, बल्कि यहां ठगों, हत्‍यारों और बटमारों का भी खूब डंका बजता रहा है। लेकिन वाराणसी का नाम हमेशा धर्म और आध्‍यात्‍म की सर्वोच्‍च अध्‍ययनशाला के तौर पर पहचाना गया है।
किसी भी विशेषज्ञता से भरे क्षेत्र में उसका मूल्‍यांकन करते वक्‍त हर व्‍यक्ति अपने अनुभवों के हिसाब से उसकी व्‍याख्‍या करता है। ठीक यही हालत है न्‍यायपालिका की। कोर्ट की ख्‍याति वहां वकीलों का काला कोट, आपाधापी, उनकी लूटमार, लोगों को मूर्ख बनाने की कोशिश, तारीख पर तारीख, और वहां बात-बात पर चल रही रिश्‍वत के तौर पर पहचाना जाता है। लेकिन इसी न्‍यायपालिका में बेमिसाल बहस, तर्क और शालीन व्‍यवहार एक बड़ा चरित्र है। ऐसा, जिसके वकीलों ने कई बार देश की राजनीति को बदल दिया, इतिहास बदल दिया। यहां के वकील केवल गुंडे, मवाली, अपराधी और अपने बेहाल मुअक्किलों के लिए केवल सार्थक कोशिश में जुटे न्‍याय-सारथी ही नहीं, बल्कि अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुरूप अद्भुत योद्धा की तरह भी हैं। हां, उनका तरीका अलग-अलग हो सकता है। लेकिन अपने दायित्‍वों के चलते कुछ वकीलों ने अपने इस पूरे पेशे को आम आदमी से जोड़ने का जो अभियान छेड़ा, वह किसी लसोढ़ा से कम नहीं है।
लखनऊ की हाईकोर्ट में कम से कम तीन वकील ऐसे हैं जो अपनी वकालत के साथ लेखन के क्षेत्र में अपनी धाक जमाये हैं और अपनी मेधा से पूरे समाज को चमत्‍कृत कर रहे हैं। एक का नाम है रविशंकर पाण्‍डेय, दूसरे का नाम है चंद्रभूष्‍ण पाण्‍डेय और तीसरे हैं आईबी सिंह। इन तीनों का मूल परिचय वकील होना है, लेकिन लेखन में भी उनकी वैशिष्‍ट्यता साथ दिखायी पड़ती है। बावजूद इसके इन लोगों के लेखन का क्षेत्र भी अलग-अलग शैली और क्षेत्र में हैं। और इन तीनों का पाठक-क्षेत्र भी अलग-अलग है।
तो पहले बात रविशंकर पाण्‍डेय पर। यूपी में बिहार से सटा एक जिला है गाजीपुर। वहां कुछ बड़ी पहचान हैं। मसलन गाजीपुर वालन के एक ही घमंड बा, के लाट-साहब के कब्र बा। लॉर्ड कार्नवालिक का स्‍मारक, मुहम्‍मदाबाद का सामूहिक हत्‍याकांड, मुख्‍तार अंसारी का इलाका, मोटे-मोटे कद्दावर मच्‍छर, अफीम फैक्‍ट्री के बाहर नशे में टुन्‍न बंदरों का भारी जमावड़ा, गहमरी जैसा विशाल गांव और विशाल हृदय वाले रविशंकर पांडेय। ग्रामीण जीवन को रग-रग में बसा लेने के बाद इलाहाबाद में पढ़ाई के बाद लखनऊ हाईकोर्ट में आशियाना बना लिया पांडेय ने। लेकिन वकालत के साथ दर्शन-शास्‍त्र के झुकाव ने उनमें लेखन के माध्‍यम से खुद को व्‍यक्‍त करना शुरू किया। विषय है जीवन, सृष्टि और समाजिक समग्रता में व्‍यक्त्वि-विकास। आपको पहली नजर में रविशंकर के अक्षर बोझिल लग सकते हैं, लेकिन सच बात यह है कि एक बार पढ़ने के बाद आप उनके मुरीद हो जाएंगे। वर्तनी की गड़बडि़यां भी हैं, लेकिन सबसे महत्‍वपूर्ण है उनका व्‍यक्त्वि, उनका व्‍यवहार, सरलता, उनका विषय, शैली और लेखन के प्रति समर्पण। किसी भी विषय पर शब्‍द गढ़ने के दौरान वे खुद ही उसमें अक्षर की तरह समाहित हो जाते हैं पांडेय। व्‍यक्ति नहीं, महा-पंडित। अमृत-विचार अखबार तो उनको स्‍थाई पर अपना संपादकीय पन्‍ने पर शीर्ष स्‍थान दे चुका है। रविशंकर पाण्‍डेय की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे अक्‍सर अपने परिचितों को फोन ही सही, लेकिन अपनी खनकती आवाज के साथ जोड़े रखते हैं।
उसके बाद हैं चंद्रभूषण पाण्‍डेय। देवरिया मूल के रहने वाले पांडेय जी का उप्र न्‍यायिक अधिकारी सेवा में बेदाग इतिहास रहा है। चाहे वह जीवन रहा हो, नौकरी रही हो, यूनियन-कर्म रहा हो, वकालत का इलाका हो या फिर उनके सामाजिक दायित्‍व। सरकारी नौकरी में शीर्ष पद तक चुके हैं पांडेय जी, यानी यूपी में राज्‍यपाल के न्‍यायिक सलाहकार। बात, तर्क और जुझारूपन पर मजबूत। उनको सलाहकार के पद से राजनीतिक वजहों से हटाया जाने लगा तो खुद्दार पांडेय जी ने सीधे इस्‍तीफा ही दे दिया। कूद पड़े वकालत में। राजनीतिक दल बनाया, जन जागरूकता अभियान छेड़ा, जनता को तरंगित करने के लिए शब्‍दों की स्‍वर-लहरियां निकालीं किताबों के माध्‍यम से। अब तक दस से ज्‍यादा किताबें लिख चुके हैं चंद्रभूषण पांडेय। किसी वकील की इतनी हैसियत नहीं हो सकती, कि प्रदेश के दूर-किनारे वाले अछूते इलाकों में भी लोगों के पास पहुंचें और सामाजिक व राजनीतिक बातचीत की शुरूआत करें। पांडेय जी का नाम उन लोगों में है जो हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना डालते हैं, भले ही हर क्षेत्र में वह न भी सफल हो पाये हों। दरअसल, वे साक्षात योद्धा हैं और युद्ध करने वालों को सम्‍मान देते है, उनकी मदद करते हैं। कई बार तो उन्‍होंने जनहित याचिका के माध्‍यम से सभी जायज मसलों पर हस्‍तक्षेप किया। दैदीप्‍यमान चेहरा, मुस्कुराहट की सजावट, सब्‍जेक्‍ट पर सेंट्रलाइज, झुंझलाहट से दूर। लेकिन मेरे पिछले तीन फोन उन्‍होंने नहीं उठाये, और न ही उसका जवाब ही दिया। यह उनकी शोखी है।
देवरिया के ही रहने वाले हैं आईबी सिंह। लाठी-तलवार चलाने वाले पुश्‍तैनी धंधे को छोड़ कर कानूनी अस्‍त्रों को सीखने के लिए सन-73 में लखनऊ विश्‍वविद्यालय में एडमीशन ले लिया। उसके तत्काल हाईकोर्ट पहुंच गये। कई बरस खटराग में निकल गये, और उसके बाद जिन्‍दगी में यश का सूरज दमकने लगा। बातचीत में अक्‍खड़ लहजा है, लेकिन बाकी व्‍यवहार एक सफल वकील जैसा ही है। लखनऊ के अपने फार्म हाउस में आजकल वे तकनॉजी से अनभिज्ञ ग्रामीण बच्चियों और महिलाओं को कम्‍प्‍यूटर शिक्षा समेत अनेक संसाधन मुहैया कर रहे हैं। लेकिन आईबी सिंह का नाम वकालत से इतर एक नया पहचान हासिल करने लगा है। वह है लेखन। वे अब अपने जीवन में हुईं घटनाओं को क्रमबद्ध कर रहे हैं। उनके पास एक ब्‍लॉग भी है, जिस पर वे नियमित रूप से ऐसी रिपोर्ट शाया करते रहते हैं। सेना, आबकारी और बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी हत्‍याकांड पर जिस तरह आईबी सिंह ने श्रंखलाबद्ध कलम चलायी है, उससे उस मसलों के कई अनसुलझे सवालों-मसलों को एक नयी रौशनी दी है। खास कर वकालत से जुड़े लोगों और पत्रकारों के लिए।
हमने इन तीनों के व्‍यवसाय के साथ चल रहे उनके लाजवाब लेखन की जड़ परखने की दोलत्‍ती लगाने की कोशिश की। दोलत्‍ती डॉट कॉम ने पाया कि वकालत में व्‍यस्‍ततम होने के बावजूद आईबी सिंह का लेखन उनकी चुल्‍ल का प्रमाण है। उनकी चुल्‍ल उस आचार्य की तरह है, जो अपना कामधाम निपटाने के साथ ही अपना तनिक भी समय अपने जिज्ञासु मित्रों, परिचितों और शिष्‍यों तक पहुंचाना चाहती है। वह यह सब न करें, तो क्‍या करें ? चंद्रभूषण पाण्‍डेय का यह दायित्‍व उनके वृहद सामाजिक दायित्‍वों को लेकर है, जिसका मूल राजनीति है। दरअसल उन्‍होंने जीवन में जिस तरह अपने जीवन, नौकरी और राजनीतिक तिकड़मबाजी होते समाज में देखा और जिया है, उससे नकारात्‍मक तथ्‍यों से वे समाज तक जागरूक करना चाहते हैं, इसलिए वे अपनी जेब से पैसा खर्च करते हैं। जबकि रविशंकर पाण्‍डेय का लेखन उनके जीवन को ही नहीं, बल्कि समग्र मानव जीवन के शाश्‍वत अर्थ तक को व्‍याख्‍यायित करने के लिए समर्पित है। और यही समर्पण ही तो रविशंकर के जीवन का मूल अर्थ और दायित्‍व हैं। वकालत के साथ ही साथ वे उस सवाल का जवाब लोगों तक पहुंचाने की मदद करने की कोशिश करते हैं कि मानव को उसके जड़ से कैसे जोड़ कर उसे निर्मल बनाया जाए।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– तेरह )

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