एक संतान की मौत: भोला गुजर गया

बिटिया खबर

: राजपति गिरी तो अनोखे हैं, बेटे की मौत का दोष नहीं मानते : जिन्‍दगी को ही खत्‍म कर देती है संतान की मौत : पत्रकार सुरेद्र दुबे और सूचना विभाग के राजीव दीक्षित की जिन्‍दगी ने उनको निचोड़ डाला : सरल-सौम्‍य हैं, पर अन्‍याय पर त्रिशूल व डमरू के साथ ताण्‍डव नृत्‍य भी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : संतान की मौत ! बाप रे बाप ! किसी के भी जीवन में ऐसी घटना उसकी जिन्‍दगी को हमेशा-हमेशा के लिए तोड़-निचोड़ देती है। अंत तक पहुंचाने की डगर पर।
जीवन में मैंने ऐसे कई हादसे देखे हैं, जब पिता ने अपनी संतान को अपने हाथों से कब्र या श्‍मशानघाट तक पहुंचाया है। घरवालों और खास कर महिलाओं का आर्तनाद और करुण-क्रन्‍दन से पूरे कायनात करते ऐसे अंतिम विदाई का क्षण किसी में क्षण-भंगुरता भर कर उन्‍हें भारी अवसाद तक पहुंचा देता है। जरा कल्‍पना कीजिए उस महिला की, जिसने अपने गर्भ में उस शुरुआती भ्रूण को पूरे नौ महीने तक विकसित किया, उसकी एक-एक गतिविधियों को महसूस किया और उसे जन्‍म देने के बाद उसे पाल-पोस कर कद्दावर बना दिया। उसकी कलकारियां, उसकी जिद, उसका लाड़, उसकी अपेक्षाएं और उसके हर नखरे को सिरमाथे पर रखना किसी के भी जीवन का सर्वोच्‍च लाभ बनता है। इसमें पिता भी बराबर का भागीदार होता है। मकान की कोठरी से लेकर उसका सहन, दालान, आसपास का पूरा माहौल सूंघ कर उसके समाज में शामिल हो कर अपने आप में खोजने की कोशिश करता है तो उस प्रक्रिया में संतान को पूरा प्रश्रय मुहैया कराने का जिम्‍मा किसी पिता का ही होता है। यह उसकी बेमिसाल पूंजी होती है। उस पूरे दौरान मां-बाप अपने बच्‍चे पर लगातार गर्व कर अपनी पूर्णता के भाव से सराबोर बनते रहते हैं।
लेकिन अचानक मां-बाप के पैरों में अपना निर्जीव शरीर छोड़ कर कोई संतान उनको हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर चला जाए, उस मां-बाप के शोक की कल्‍पना कोई कर नहीं सकता। उसके बाद ऐसे मां-बाप के पास कोई चारा या आधार ही नहीं बन पता है, जिसके बल पर वे जी सकें। जीवन ही नश्‍वर हो जाता है उनका। पूरी तरह उल्‍लासहीन, अर्थहीन, दिशाहीन और उर्वर-हीन।
लखनऊ में दो घटनाएं मुझे दहला चुकी हैं। करीब पचीस बरस पहले यूएनआई यानी यूनाइटेड न्‍यूज ऑफ इंडिया के उप्र ब्‍यूरो के प्रमुख सुरेंद्र दुबे के पुत्र का अकाल निधन हो गया था। पगला गये थे सुरेंद्र दुबे। क्‍या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं, क्‍या करना है, किधर चलना है, जैसे सवाल उनके पास से शायद हमेशा के लिए सरक गये। दूसरी घटना हुई राजीव दीक्षित की। राजीव सूचना विभाग में संपादक के पद पर काम कर रहे थे। 12 बरस के आसपास अचानक उनके इकलौते बेटे की मृत्‍यु हो गये। डॉ एसडी सिंह के साथ हम सब ओसीओर बिल्डिंग पहुंचे। राजीव दीक्षित पूरे दौरान चैतन्‍य दिखायी पड़ रहे थे। जैसे वे अपने बच्‍चे को तैयार कर रहे हों। लेकिन भैंसाकुण्‍ड के विद्युत शवदाह गृह में जैसे ही उन्‍होंने अपने इकलौते बेटे का अंतिम दर्शन किया, वे बेसाख्‍ता रो पड़े। दहाड़ मार कर रोय। उसके बाद से राजीव दीक्षित कभी भी खुद को सम्‍भल नहीं पाये। अनिर्णित, अकारण और निरुद्देश्‍य हो गया उनका जीवन। कुछ ही बरस बाद उनकी लाश उनके कमरे में बिस्‍तर पर मिली। शराब की बोतलों के साथ। घर अराजक।
लेकिन राजपति गिरी उन संतानों के पिता नहीं हैं। राजपति में अपने बेटे की मौत का संताप और शोक तो अंतहीन है, लेकिन अपने बेटे कृष्‍ण गिरी उर्फ भोला की मृत्‍यु के लिए वह खुद को तनिक भी दोषी नहीं मानता। जौनपुर की वकालत में सबसे सरल वकीलों में से एक हैं राजपति गिरी। आप राजपति से मिलिये तो आप उनकी सरलता और सौम्‍यता का लोहा मान लेंगे। लेकिन अन्‍याय और अराजकता पर वे शिव की तरह अपना त्रिशूल उठा कर डमरू बजाना शुरू कर देते हैं। साथ में ताण्‍डव नृत्‍य। इसके चलते कई बार उनकी मारपीट भी हुई और मुकदमे भी चल रहे हैं। अदालतों और बार क्षेत्रों में राजपति का सम्‍मान बहुत है। जौनपुर में आने के बाद राजपति अचानक एक बार मुझसे मिलने आया। कोई कारण नहीं, कोई लाभ नहीं। बस, मेरे बारे में नाम सुना तो मिलने चला गया। उसकी सरलता का आलम यह कि मैं ही उसका मुरीद हो गया। वह हमेशा-हमेशा के लिए मेरा छोटा भाई बन गया। उसके बाद तो मेरी हर जरूरत और दिक्‍कत खुद राजपति गिरी की ही हो गयी। जौनपुर न आऊं और राजपति या भोला से न मिलूं, यह मुमकिन नहीं। 
26 बरस पहले राजपति को एक बेटा हुआ था। दिन था शिवरात्रि का, इसलिए नाम रख दिया गया भोले। उसके पहले भी राजपति के तीन बच्‍चे काल-कलवित हो चुके थे, जिनमें एक तो एक बेटी और एक बेटा जुड़वा थे। बाद में एक बेटी हुई, जिसकी मौत हो गयी। हालांकि उसकी एक बेटी बाद में हुई, जिसकी शादी चंदौली में हुई है। भोला से मेरी मुलाकात सन-04 में हुई, जब एक दिन राजपति जौनपुर वाले मकान में मुझसे मिलने गया। परिचय पहले से ही था। वकालत में बहुत चंद लोगों में एक है राजपति जो सायकिल पर पूरा भ्रमण करते हैं। रोजाना करीब 40 किमी। उस दिन भी बच्‍चे को अपनी सायकिल के कैरियर पर बिठाये राजपति आये। लेकिन लखनऊ वापस होने के बाद भोला अक्‍सर ही लखनऊ आने लगा। इंटर के बाद तो ज्‍यादा ही। भोला जब भी आता, कई दिनों तक पूरे घर पर धमाचौकड़ी मचाता था। मेरी बेटियों साशा और बकुल की शादी के दौरान तो वह कई-कई हफ्तों तक मेरे घर में डेरा डाले रहा। दौड़-दौड़ कर भागादौड़ी, कामधाम, यह लो, वह दो, इसे सम्‍भालो, इनका स्‍वागत करो, उसको फेंको। बिलकुल बेटे की तरह। आज्ञाकारी भी। 

उसके साथ कई बार कन्‍नौज, फर्रुखाबाद, सुल्‍तानपुर, फैजाबाद और बनारस गया। करीब चार साल वह भी एलएलबी पास हो गया और जौनपुर में ही बाप के साथ वकालत में जुट गया। पहले तो उसका मन नहीं लगा, और वह भाजपा में झंडा फहराने लगा, लेकिन बाद में उसने तय किया कि वह पिता का काम खुद सम्‍भालेगा। बाप ने उसे मोटरसायकिल दिला दी। जिन्‍दगी फर्राटे भरने लगी। हालांकि उसके कुछ महीने पहले लखनऊ में एक वकील से उसकी तेज झड़प हो गयी थी, उसके बाद वह कई हफ्तों तक अनमनस्‍क रहा। आखिरी मुलाकात हुई जौनपुर के खाना-खजाना होटल में। मुझसे मिलने गया था भोला, भोजन साथ किया। उसके बाद दिन भर हम लोग साथ रहे। मुझे वह पिता जी कहता था भोला। एक बार मैंने उसे डांट दिया था। साशा ने सुना, तो उसने कहा कि भइया अगर आपको पापा की बात बुरी लगी हो, तो आप मेरे पास आ जाया कीजिए। उनसे बात करने की क्‍या जरूरत? साशा बताती हैं कि उस पर भोला ने जवाब दिया कि:- वे मेरे बड़े पापा हैं। वह मेरा घर है। मैं उनको क्‍यों छोड़ दूं?बहुत सरल, बहुत संयमी, बहुत सामाजिक, बहुत परिश्रमी और बहुत कर्मठ।
बीती 11 नवम्‍बर की दोपहर करीब पौने दो बजे अपने मुअक्किलों के साथ अपनी तखत वाली कुर्सी पर मौजूद था। किसी काम से उसे निकलना था, वह उठा, लेकिन अचानक धड़ाम से ही तखत पर गिर पड़ा। आनन-फानन लोग दौड़े तो पाया कि उसकी धड़कन बंद हो चुकी है। जिला अस्‍पताल भी ले गये, लेकिन वहां भी पता चला कि भोला ने अपना जीवन समाप्‍त कर लिया है। कोई शक-शबहा न हो, इसके लिए राजपति ने भोला के शव का पोस्‍टमार्टम करा लिया। नतीजा या कि भोला की मृत्‍यु का कारण है हार्ट-अटैक। मैंने एक काम के लिए वकीलों के बड़े नेता जय प्रकाश को फोन किया, तो यह खबर मिली। जय प्रकाश खुद ही हतप्रभ था। मैं छटपटा पड़ा। बार-बार उसको फोन मिलाया, नहीं मिला। पता तो चल ही चुका था, लेकिन सवा दो सौ किलोमीटर दूर मैं क्‍या करता। आखिरकार छह बजे राजपति का वाट्सऐप पर मैसेज आया:- भोला गुजर गया।
मैं पहुंचा उसके घर। दिन भर मिलने वालों की भीड़ बनी रही। रात भर का थका था मैं। ज्‍यादा भीड़ बढ़ी तो मैं चारपाई में लेकर धूप में सो गया। काम भर का आस्तिक और नास्तिक है राजपति। जरूरत भर। एक-दूसरे में घालमेल नहीं करते। दिन भर राजपति के साथ ही रहा। बेटे का बस यूं ही अकारण चला जाना कष्‍टप्रद ही नहीं, मारक भी है। लेकिन…. जो होना था, हो गया। मैं उसके भरोसे दूसरे सामाजिक कामों में निपट जाता था। अब क्‍या और कैसे करुं? लेकिन मैं उसकी मृत्‍यु के लिए खुद को दोषी नहीं मानता। ऐसा तो है नहीं कि मैंने उसको बचाने की कोशिश नहीं की। उसके साथ जीवन भर यही तो करता रहा। आखिरी वक्‍त पर उसने मुझे मौका ही नहीं दिया, तो यह उसका फैसला है। मुझे दोष और कष्‍ट तो तब होता, जब मैं कोई असफल कोशिश करता। बहरहाल, अब वकीलों, समाज और गांव के इर्द-गिर्द ही काम करता रहूंगा। बेटी-दमाद और नाती हैं। सफर में जो है, वह है। जो अपनी किसी डगर में अलग चला गया, तो चला गया।
लेकिन याद तो है ही। आती ही रहेगी दारुण कटु-स्‍मृति। जिन्‍दगी भर।

1 thought on “एक संतान की मौत: भोला गुजर गया

  1. दुखद असहनीय पीड़ा बहुत कष्ट जिसका आंकलन कर पाना बहुत मुश्किल है यह क्या हो गया हमारे परिवार के साथ किसकी नजर लग गई हमारे परिवार को
    इस कष्ट को शब्दों में बयां कर पाना बहुत मुश्किल है
    बड़े भैया (भोले) आपने तो मुझसे दिल्ली आने का वादा किया था ना मुझसे मिलने का वादा किया था ना
    फिर आप अपना वादा कैसे भूल गए भैया

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