जैविक पिता से ज्‍यादा पूज्‍य होता है वैचारिक पिता

दोलत्ती


: नीतिशास्त्र का पिता है सुकरात, अरस्‍तु ने ऐलानिया माना : पिता का जयजयकारा लगाने के साथ हमें उनकी त्रुटियां जाहिर करने का साहस भी दिखाना चाहिए : साहसी व्यक्ति हमेशा न्यायी ही नहीं, अन्यायी भी हो सकता है :

प्रेम अगम

पटना : सामान्य तौर पर इतिहास में विचारों के तीन क्रम होते हैं :-
प्रथम चरण में मनुष्य के विश्वास का आधार विवेक या तर्क नहीं होता | इसे अन्धविश्वास का काल कहा जा जाता है | दूसरे चरण में मनुष्य के ज्ञान का विस्तार होता है और वह अपने विश्वास के लिए आधार की तलाश करता है | वह अपने विश्वास पर सन्देह करता है , उनका खंडन करता है | और तीसरे चरण में विवेक और तर्क के आधार पर नए विश्वासों की स्थापना करता है |
सुकरात के पहले के काल को विचारों के प्रथम अवस्था का काल कहा जा सकता है | उसके बाद सोफिस्टों का काल विकास की दूसरी अवस्था थी | विचारों की तीसरी अवस्था में सुकरात का काल आता है | जहाँ सुकरात ने दर्शन को आसमान से उतार कर धरातल पर ले आते हैं | सुकरात विश्व की उत्पत्ति और तत्त्वों के स्वरुप की समस्याओं को छोड़ कर मनुष्य के व्यावहारिक समस्याओं की और ध्यान देते हैं | उनका पूरा चिंतन इस बात को समर्पित है की मनुष्य सैद्धांतिक रूप से नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप से उचित जीवन कैसे जी सकता है | वे शुभ, अशुभ, सदगुण तथा सत्य को वास्तविक रूप से समझाने की बात करते हैं | वो उन आचरणों की बात करते हैं जिससे मनुष्य एक आनंदमय जीवन को प्राप्त कर सकता है | इसी कारण अरस्तु ने सुकरात को नीतिशास्त्र का पिता कहा है |
सुकरात अपने अज्ञान को स्वीकार करने को ही ज्ञान का पहला सोपान मानते है | उनके अनुसार वो कुछ नहीं जानते और इसी बात का ज्ञान उन्हें दूसरों से अलग करता है | वो सबसे पहले खुद को जाने की बात करते हैं | उनके अनुसार ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ न हो कर, वस्तुनिष्ठ होता है | सोफिस्टों से विपरीत उनका मानना है की ज्ञान कभी भी व्यक्ति के सापेक्ष नहीं हो सकता है, यह हमेशा ही निरपेक्ष होता है |
सुकरात के अनुसार कोई भी व्यक्ति इस बात को नहीं जान सकता की इस संसार की उत्पत्ति कैसे हुई है अथवा इसकी नियति क्या है ? परन्तु वह निश्चित रूप से यह अवश्य जान सकता है कि हमें क्या करना चाहिए, जीवन के आदर्श क्या हैं, सर्वोच्च शुभ क्या है | अत: यही ज्ञान वास्तविक और उपयोगी है |
सुकरात के दर्शन के केन्द्रीय विषय मनुष्य के लिए आदर्श जीवन की खोज ही रहा है | इसी क्रम में वे सबसे पहले सद्गुणों की बात करते हैं , वो शुभ की बात करते हैं तथा अंतिम सत्य की बात करते है | सुकरात ने शिक्षण की कुछ नयी पद्धति विकसित की जिसे आज सुकरातियन पद्धति कहा जाता है | यह वार्तालाप पर आधारित पद्धति है | इसमें मुख्य चीज थीसिस , एंटी थीसिस और सिंथेसिस है | वो अपने शिष्यों से पूछते थे कि:- बताओ शुभ क्या ? उनके जवाबों के आधार पर उसके विपरीत विचार की बात करते थे फिर इन सब के समन्वय से एक अंतिम सत्य की स्थापना करते थे जो की वस्तुनिष्ठ होता था | उनके अनुसार कोई भी नया विचार आसमान से उतर कर नहीं आता, बल्कि प्रत्येक विचार अपने पूर्ववर्ती या समकालीन विचारों के समर्थन या विरोध में खड़ा होता है |
सुकरात कहते हैं कि शुभ क्या है, इसी प्रश्न के उत्तर में प्रत्येक मनुष्य का सुख आधारित है | यानि वे कर्म जिनके करने से मनुष्य को सुख की प्राप्ति होती है वो शुभ है | सुकरात का मानना था कि कोई भी मनुष्य दुःख नहीं चाहता। इसलिए वह जानबूझ कर कोई भी अशुभ कार्य नहीं करेगा | वह केवल इस अज्ञान के कारण ही अशुभ का वरण करता है | जिस प्रकार ज्ञान वस्तुनिष्ठ है उसी प्रकार शुभ भी वस्तुनिष्ठ है |
सुकरात के सद्गुण सम्बंधित विचार भी वस्तुनिष्ठता पर ही आधारित है | वो कहते हैं साहस, न्याय, दया, प्रेम जैसे सद्गुण ज्ञान स्वरुप हैं| उनके अनुसार ज्ञान ही सद्गुण है सुकरात ने यह स्पष्ट किया कि ऐसा ज्ञान मात्र सैद्धांतिक नहीं होगा जिसको शिक्षा द्वारा मनुष्य सीख लेता है, बल्कि इससे उसके जीवन के मूल्यों के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास अपने आप ही उत्पन्न हो जायेगा | ऐसे सद्गुण मनुष्य की चेतना पर आधारित है जोकि उसके विवेक का परिणाम है |
सुकरात मृत्यु के उपरांत जीवन पर कोई चर्चा नहीं करते | उनके अनुसार यदि शुभ कर्म स्वयं शुभ है तो इसके परिणाम हमेशा ही शुभ होंगे | अत: यह प्रश्न ही व्यर्थ है कि मृत्यु के उपरान्त क्या होगा ?
सुकरात यद्यपि शुभ-अशुभ की बात करते है और इसे वस्तुनिष्ट भी मानते हैं परन्तु उन्होंने इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी | इसी आधार पर अरस्तु ने इनकी आलोचना भी की है | वे सद्गुणों की एकता की बात करते हैं | अर्थात किसी भी योग्य व्यक्ति में सभी सद्गुण मौजूद होते हैं , परन्तु अरस्तु ने यह कहा कि एक साहसी व्यक्ति जरूरी नहीं कि हमेशा न्यायी ही हो वह अन्यायी भी हो सकता है |
इन आलोचनाओं के बावजूद सुकरात का दर्शन में जो योगदान है वह महत्वपूर्ण है | वे सीमित संन्यास की बात करते हैं , यानि केवल जो जीने के लिए जरूरी हो, अपनी आवश्यकताओं को उतनी रखना चाहिए |
सुकरात का सत्य के प्रति अटूट विश्वास था | जब उन्हें मौत की सजा सुनाई गयी तो उन्होंने भाग जाने के विकल्प के वावजूद मृत्यु का वरण किया क्यूँकि उनके अनुसार अपरीक्षित जीवन जीने योग्य नहीं होता | उन्हें 399 ईपू में मृत्युदंड दिया गया |

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