: दर्द को नया नशीला अंदाज़ दे दिया था साधना ने : फिल्म की साधना: 45 साल तक साधना, फिर मौत : मैं साधना को बहुत प्यार करता रहा। जैसे अपनी माँ को प्यार करता हूँ :
कुमार सौवीर
लखनऊ : नहीं, नहीं। साधना मेरी नहीं, मेरे पापा के वक़्त की दिलकश हीरोइन थीं। उन जैसे जवां दिलों की धड़कन। उस दौर में जब युवाओं के हाथ अपने सीने पर रख दिये जाते थे, चेहरा बायें या दाहिनी ओर झुक जाता था, तब ही उनके मुंह से यह आह निकलती थी:- हाय साधना। जिन फिल्म अभिनेत्रियों की फोटो वाले फिल्म के पोस्टरों के रद्दी कागज युवाओं के आंसुओं से भीग कर लुगदी बन जाते थे, उन हिरोइनों में अव्वल हुआ करती थीं साधना।
साधना का अपने गले में दुपट्टा या पट्टी बांधना उनकी मजबूरी थी, लेकिन मेरी माँ के दौर की युवतियों ने उसे फैशन मान लिया। जबकि मेरे पिता के दौर के युवकों ने साधना की रहस्यमयी मुस्कान, अधरों की लहर, होठों के खिंचावों पर जमकर आहें भरी। रात जागते हुए। निरर्थक। वेस्टेज ऑफ़ टाइम। ठीक वैसे ही, जैसे आज के युवक आज की हिरोइनों पर वक्त जाया करते हैं।
कुछ भी हो, मैं साधना को बहुत प्यार करता रहा। ठीक वैसे ही, जैसे मैं अपनी माँ को प्यार करता हूँ। मां के दौर की हर महिला मेरे लिए मातृ तुल्य ही तो है। बोलिये न, है कि नहीं?
इसीलिए में साधना की मृत्यु से सन्नाटे में हूँ। फूट-फूट कर रोने की हालात तक। जी हाँ, अभी दोपहर को ही खबर मिली है कि साधना इस दुनिया में अब नहीं हैं। मुम्बई के एक अस्पताल में उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया।
कराची में 2 सितम्बर-1941 को जन्मी साधना का सिंधी परिवार बंटवारे के बाद मुम्बई आ गया था। तब की बंगाली साधना बोस के नाम पर ही उनके पिता शिवदासानी ने साधना रखा था। व्यवहार गंभीर और अंदाज़ शोख। बचपन से ही उन्हें फिल्मो में छिटपुट काम मिलने लगा था। बालों का अनोखा अंदाज़ साधना को शोहरत तक पहुंचाने के लिए सीढ़ी बन गया।
लेकिन श्री 420 में राजकपूर ने साधना ने एक कोरस गीत गवाया था:- मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के….. और साधना हिट हो गईं।
उस दौर के सफल फ़िल्म निर्देशक केके नैयर ने उन्हें लव इन शिमला में लिया। फ़िल्म सफल हुई और नैयर से मोहब्बत भी। शादी हो गई। फिर ताबड़तोड़ फ़िल्में मिलने लगीं। कुल 35। देवानंद के साथ उनकी जोड़ी सुपरहिट हो चुकी थी।
साधना की खासियत अभिनय और शोखी तो थी ही, लेकिन उनकी पीड़ा को भी जमाने के दर्शकों ने एक नयी अदा मानना शुरू कर दिया था। यह त्रासदी थी साधना की, जिसे उन्होंने बेहद खूबसूरती का लुक दे दिया। सन्-70 में उनके गले में एक खतरनाक फोड़ा निकाला जो बाद में कैंसर बन गया। गले के फोड़े को छिपाने के लिए साधना गले में पट्टी-दुपट्टा बांधना शुरू किया, जिसे उस दौर की युवतियों ने इस्टाइल मान कर हिट कर दिया। फोड़े की पीड़ा से थिरकते होंठों को युवकों ने मोनालिसा जैसी रहस्यमयी मुस्कान मान लिया। साधना क्या करती, किस-किस को बताती। उस पर तुर्रा यह कि उसी वक्त उनकी फ़िल्म अनीता फ्लॉप हुई, जिससे उन्हें खासी उम्मीदें थीं।
लेकिन गजब जज्बा रहा साधना में, जो इतनी खतरनाक बिमारी और दर्दनाक पीड़ा के बावजूद वे 45 साल तक जूझती ही रहीं। पिछले साल भी उन्हें खून की उल्टी हुई थी। वाकई पीड़ा की साधना ही साबित हुईं साधना। खुद का दर्द छिपाकर दर्शकों को गुदगुदाना कोई साधना से ही सीखे।
प्रख्यात पत्रकार हैं त्रिलोक दीप। आज उन्होंने अपने संस्करणों में उनके साथ दिल्ली में फिल्म अभिनेत्री साधना से हुई भेंट का जिक्र किया है।
सन-2015 को साधना की मृत्यु कैंसर से हो गयी थी। उसके अगले ही दिन मैंने साधना जी पर एक लेख लिखा था। यह लेख लखनऊ के दैनिक डेली न्यूज एक्टिविस्ट और उसके बाद जनसंदेश टाइम्स और दैनिक तरुणमित्र में भी प्रकाशित हुआ।
आज त्रिलोक दीप के संस्मरण के साथ मैं साधना जी पर अपना लिखा वह अनुभव भी प्रकाशित कर रहा हूं।
अगर आप त्रिलोक दीप द्वारा साधना जी का लिखा गया इंटरव्यू देखना चाहें, तो कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-
1 thought on “साधना मेरी नहीं, पापा के सपनों की रानियों में से थीं”