कमाने गये थे, लौटने में लुट गये। क्‍यों गये थे हम मुम्‍बई ?

दोलत्ती

: रिश्‍ता भी खोया, पैसा भी लुटाया और विश्‍वास भी हमेशा-हमेशा के लिए : घर-बदर जूठे पत्तल के जलने से निकला धुँआ बड़ा दमघोंटू निकला : कोरोना के किस्से -एक :
शैलेश त्रिपाठी
मुम्‍बई : सतीश मुम्बई से मौका लगते ही गाँव निकल गया। कोरोना काल मे शहर से गाँव पहुचने वालो के लिए 14 दिन घर से कुछ दूरी पर अलग जगह कोरनटाईन रहने की बाध्यता थी। बर्तनों में खाना परोसने व उसे बार बार धोने में छुआछूत के खतरे का आंकलन कर, घर वालो द्वारा उसे पत्तल पर भोजन देने की व्यवस्था की गई। आज भोजन के उपरांत उन्ही पत्तलों को वह जला रहा था। पानी से गीले जलते पत्तलों से धुआं भी बहुत निकल रहा था। जिससे बरबस ही सतीश की आंखों से पानी छलक आया।
36 साल के युवा सतीश को पुराने दिन याद आने लगे। कैसे मात्र 18 साल की उम्र में आर्थिक तंगी के कारण उसे पढ़ाई छोड़ कमाने के लिए मुम्बई जाना पड़ा। पढ़ाई भले बीच मे उसने छोड़ दिया परन्तु अपनी मेहनत व मुकद्दर के चलते चंद वर्षो में ही उसने वह सबकुछ हासिल कर लिया जो एक मध्यम वर्गीय युवा की चाहत रहती है। मितव्ययिता व बचत की उसकी आदत ने अपना प्रभाव दिखाया। जल्द ही उसके गांव में भी घर की माली हालत में अमूल चूल परिवर्तन होने लगा। खुशहाली आती है तो उसकी धमक आस-पड़ोस में भी महसूस होने लगती है।
आरंभिक ठोकरें खाने के बाद नौकरी की तलाश ने होलसेल व्यापारियों के बीच उसे ले जाकर खड़ा कर दिया। मुम्बई की यही सबसे बड़ी खासियत है की लोग सही समय और स्थान की तलाश में वर्षों गुजार देते हैं किसी को नसीब होता है कईयों को बस इंतज़ार रह जाता है। एक बार सही समय पर सही जगह पहुंच गए तो लक्ष्मी खुद ब खुद मेहरबान हो जाती है। इसी तकदीर ने उसे मुंबादेवी के पास पिंजरापोल इलाके में बर्तन के होलसेल व्यापारियों के पास पहुंचा दिया था। नौकरी करते हुए अपनी वाकपटुता के चलते कई व्यापारियों के यहां कमीशन एजेंट के तौर पर वह कार्य करने लगा। मुंबई में कमीशन का कारोबार बिना पूंजी के व्यापार करने वालों के लिए एक उपयुक्त माहौल देता है। कई छोटे मोटे व्यपारियों से ज्यादा हैसियत व रसूख कमीशन एजेंट के होते है। व्यापार की बारीकियों को सीख उसने कड़ी मेहनत से मनचाही सफलता प्राप्त कर लिया, जल्द ही उसे ईश्वर का दिया सब कुछ हासिल हो गया था।
शुरुआती दिनों में आसपास के कई गांव के लोग होल सेल मार्केट में उसकी पहचान व पकड़ के कारण से उससे जुड़ते थे। यह पन्द्रह साल पहले का वह दौर था जब गांव में किसी के घर शादी, गौना व अन्य कोई उत्सव हो मुंबई से सारे सामान खरीद गाँव ले जाने की परंपरा थी। बड़े शहरों से सामान गाँव ले जाना भी एक प्रतिष्ठा का प्रतीक समझा जाता था। इस अवसर पर सतीश गाँव के लोगों को विभिन्न होलसेल मार्केट ले जाता और उनके मन चाहे समान उन्हें दिलाता। बर्तन मार्केट से तो सारे बर्तन उन्हें खरीदवा देता था। जिससे उसे भरपूर कमीशन भी मिलता और सामने वाले को होलसेल बाजार से खरीदने के कारण सस्ता ही प्रतीत होता। धीरे-धीरे उसके गांव के घर में बर्तनों का इतना अंबार लगा कि अगर विभिन्न प्रकार के साइज के बर्तनों को एक जगह रख दिया जाए तो एक अच्छी-खासी बर्तनों की दुकान उसके आगे फेल हो जाती। यह वह दौर था जब शहरों की नीरस संस्कृति और आधुनिकता ने अपने पैर गांव की तरफ नहीं पसारे थे। उस दौर में आयोजन वाले दिन गांव के लोग बर्तनों और सामानों को एक दूसरे से मांग कर काम चला लिया करते थे।
सतीश का अपने घर वालों को निर्देश था की गांव में किसी के भी आयोजन में बर्तन की जरूरत हो तो उसे इनकार नहीं करना है, उन्हें वह बर्तन उपलब्ध कराना है । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने कई बड़े साइज के बर्तन भी गांव भेजे थे। जिससे आस पड़ोस में उसकी तूती भी बोलती रहे। जिसके घर उत्सव होता वह सतीश के घर से सारे बर्तन ले जा अपने उत्सव को पूर्ण करता था। वक्त बदला शहरों की संस्कृति सुविधाजनक लगने लगी “पैसा फेंक तमाशा देख” की नीति ने लोगों में आपसी लगाव को भी कम कर दिया है। कैटरिंग या बड़े बड़े हलवाईयों का प्रभाव इस कदर बढ़ गया था जिससे सब कुछ भाड़े पर उपलब्ध कर दिया जाता। फिर भी मितव्यतिता के स्वभाव व कम बजट के कारण आज भी छोटे-छोटे कार्यक्रमों में कुछ लोग उसके यहां से बर्तन मांगकर ले जाया करते थे।
कोरोना काल में मुंबई से न सिर्फ श्रमिकों ने पलायन किया बल्कि मध्यम वर्ग का पलायन भी भरपूर हुआ। ऐसे ऐसे लोग भी यहां से गाँव चले गए जो महीनों बिना किसी समस्या के अपने घरों में रह सकते थे। इसका कारण लोगो मे अत्यधिक भय व महामारी के बहुत ज्यादा फैलने की आशंका थी। ऐसे माहौल में सतीश ने भी पलायन करना ही श्रेयस्कर समझा। आनन-फानन में उसने पचास हज़ार रुपये में गाड़ी बुक की और परिवार सहित उत्तर प्रदेश की तरफ रवाना हो गया। परिवार सहित गाँव पहुँचकर कोरण्टाइन हुए उसे दो दिन गुजर गए। पहले दो दिन भोजन के उपरांत उसके परिवार ने उन पत्तलों को पास के कूड़े के ढेर पर ही फेंक दिया था। जब मुसीबत आती है तो चारों तरफ से आती है । उस कूड़े के ढेर पर से लू चलने और पछुआ हवा के कारण झूठे पत्तल इधर-उधर उड़ने लगे। कुछ पत्तल उड़कर पड़ोसियों के घर के सामने पहुच गए।
पहले से ही खार खाए पड़ोसियों ने स्थानीय चौकी पर इस बात की शिकायत कर दी की शहर से आये लोग जूठे पत्तल फेंककर कोरोना फैला रहे है। आनन-फानन में हलके के दो हवलदार उसके दरवाजे पर उपस्थित थे। कोविड-19 फैलाने की विभिन्न धाराओं का धौस दिखाते हुए घर वालों को धमकाया गया । सतीश ने उन्हें दूर से ही समझाना चाहा कि वह कोरोना वायरस के टेस्ट में नेगेटिव है । वह सिर्फ सरकारी गाइडलाइन्स व सुरक्षा के लिहाज से घर की बजाय बाहर रह रहा है, पत्तल का उड़ना महज एक संयोग है। परंतु उसकी बात को खारिज कर पुलिस वालों ने उसे एफआईआर दर्ज कर सबक सिखाने की बात कही। मामला बिगड़ते देख छोटा भाई सामने आया गांव के इन पैतरों से वह भली-भांति परिचित था। कुल मिलाकर तीन हज़ार की रकम से पुलिस वालों की जेब गर्म करनी पड़ी। वे भी इस हिदायत के साथ गए कि अपने पत्तल खाना खाने के बाद जला देना और आगे से दोबारा शिकायत नहीं आनी चाहिए। आज परिवार के सभी सदस्यों के भोजन के बाद सतीश उन्हीं जूठे पत्तलों को जला रहा था। बार-बार हवा के रुख के कारण धुंआ लगता व उसके आंख से आंसू आ रहे थे। उसे व्यवसाय में किये गए सभी गलत काम, झूठ, सच सब याद आ रहे थे। परिवार बिना किसी विलासिता के संसाधनों के रह रहा था। उसे लगा जिस भौतिक चीजों के लिए वह जीवन भर दौड़ता रहा आज उसका कोई अर्थ ही न रहा।
उधर जूठे पत्तल के जलने से निकला धुँआ बर्तन के एक बड़े व्यापारी की आंखें साफ कर उसे दार्शनिक बना रहे थे…

( खास कर मुम्‍बई में रोजी-रोटी के लिए बरसों-बरस तकअपना खून-पसीना बहाया है उत्‍तर भारत से आये प्रवासी मजदूरों ने। अपने देश से हजारों मील दूर जाकर उनका हाड़तोड़ परिश्रम केवल मजदूरी के लिए या अपना पेट भरने के लिए ही समर्पण नहीं था। बल्कि वे तो अपने घर-दुआर को भी प्रयासों से पुष्पित-पल्लवित करना चाहते रहे हैं। लेकिन कोरोना ने उनके भविष्‍य को ही नहीं, बल्कि उनके रिश्‍तों को भी एक भयावह सच मेंतब्‍दील करदिया। जिसे वे अपने अपनत्‍व की उर्वर जमीन मानते रहे थे, उनके लिए समर्पित होते रहे थे, वे अब उनकी आस्‍थाओं को भी ऊसर बना चुके हैं। पेशे से पत्रकार शैलेश त्रिपाठी मूलत: जौनपुर के हैं, लेकिन मुम्‍बई में भावुक, संवेदनशील, सक्रिय, जागरूक और तार्किक पत्रकार की छवि बनाये हुए हैं। उन्‍होंने प्रवासियों की इस कोरोना-काल की व्‍यथा-गाथा को कलमबद्ध किया है। उनका यह लिखा यह किस्‍सा हम श्रंखलाबद्ध प्रकाशित करते रहेंगे। संपादक :- दोलत्‍ती डॉट कॉम )

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