चिढ़ के पैगोडा में कई वजह जुड़ती हैं, जबकि गुस्‍सा क्षणिक

बिटिया खबर

: गुस्‍सा क्षणिक, जबकि चिढ़ दीर्घकालिक। उन सब को जल्‍दी निपटाओ यार : चिढ़ और गुस्‍सा को दूर करना जरूरी, लेकिन समस्‍या यह कि लसोढ़ा लगाया जाए तो कहां : अक्‍सर तो तय ही नहीं हो पाता कि समाधान किस समस्‍या का हो : दिलों को जोड़ने के लिए भावुक लसलसे लसोढ़ा-पन की जरूरत सख्‍त :

कुमार सौवीर

लखनऊ : नये सम्‍बन्‍धों से जुड़ना और पुराने सम्बन्धों को आपस में जोड़े रखना ही तो जिन्‍दगी होती है। सार्वजनिक रूप से माना तो यही जाता है कि सम्‍बन्‍ध जितने होंगे और जितने प्रगाढ़ होंगे, जिन्‍दगी उतनी ही समृद्ध समझी और सार्थक मानी जाएगी। हरा-भरा उपवन की तरह, जहां सिर्फ जीवन ही नहीं, बल्कि विभिन्‍न फूलों की दिलकश छटा, मोहक गमक और चिडि़यों की चहचहाहट। बिना सम्‍बन्‍धों के जीवन को बेहद नीरस और दिशा-हीन माना जाता है। समझिये, डेड-लाइन। यानी जिन्‍दगी की सड़क का खात्‍मा हो जाना।
तो सम्‍बन्‍धों को जोड़ने के लिए दिलों को जोड़ना होता है, और दिलों को जोड़ने के लिए ऐसे भावुक लसलसे लसोढ़ा-पन की जरूरत होती है, जो एक-दूसरे को लपक कर अंगीकार कर ले। यह लसोढ़ापन आपके व्‍यवहार के चलते सम्‍बन्‍धों को चिपक सकता है, भेंट-मुलाकात के बीच हो सकता है, व्‍यावसायिक सम्‍बन्‍धों के बीच विकसित हो सकता है, कार्य-स्‍थल पर उग सकता है, पड़ोसी के बीच जुड़ सकता है। विपरीत-लिंगी लोगों में तो यह गोंद देखते ही देखते विकसित होने लगता है। कोई कागज, किताब, पेन, नोट का लेनदेन भी इस तरह का लसोढ़ापन को गाढ़ा करने लगता है। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि विपरीत सेक्‍स के आधार पर जुड़े रिश्‍तों में दैहिक आकर्षण ही मूल-आधार होता है, जो अक्‍सर बना ही रहता है।
लेकिन अक्‍सर ऐसे सम्‍बन्‍धों में आधार बने लसोढ़ापन की मजबूती तब मिलती है, जबकि व्‍यावसायिक रिश्‍तों में आत्‍मीयता बढ़ने लगती है। रिश्‍ते पिता-माता या छोटे भाई की तरह भी बनने लगते हैं। जाहिर है कि ऐसे रिश्‍तों का विकास घर की पहुंच तक निरंतरता प्रवाह होने के बाद ही मजबूत हो पाता है। ऐसे रिश्‍ते हमेशा छोटे द्वारा बड़े रिश्‍ते की ओर बढ़ता है, जहां छोटे को अभय और बड़ों द्वारा प्रश्रय मिलता है। लेकिन असल आधार है परस्‍पर विश्‍वास।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ऐसे रिश्‍तों में भी लसोढ़ापन का गाढ़ापन हमेशा ऐसा ही रहे। कभी-कभार तो ऐसा लसोढ़ा केवल नाममात्र तक ही होता है, बल्कि विलुप्‍त होता है। केवल कल्‍पनाओं में भी उनका अहसास हो पाता है। यह आभास केवल एकांगी ही नहीं, बल्कि दोनों ही स्‍तरों पर भी हो सकता है। यानी दोनों ही ओर फीकापन का भ्रम शुरू से ही रहता है, खुलासा ऐन वक्‍त पर हो पाता है। लेकिन इसका अहसास तब होता है, जब आपको ऐसे रिश्‍तों की जरूरत हो, लेकिन आपको गोंद के बजाय अपनी उंगलियों में केवल गीलापन ही महसूस हो।
हमारे एक मित्र के पारिवारिक अनुष्‍ठान में ऐसा ही हुआ। ऐन वक्‍त पर उनके तीन-चार आत्‍मीय लोग अचानक उस आयोजन से कट गये। जाहिर है कि आयोजक भौंचक्‍का ही रह गया। आयोजन में तीन-चार फूफा जैसे आत्‍मीय लोग अनुष्‍ठान में मुंह फुलाये बैठ गये हों, तो उसका खुलासा सार्वजनिक तो हो ही जाएगा। जाहिर है कि समाज में असमंजस की हालत न हो, इसके लिए जो भी सहज लेकिन हाजमेदार जवाब बुने जा सकते थे, बुन डाले गये। लेकिन लसोढ़ापन की अनुपस्थिति गहरे तक महसूस की गयी।
मैंने उस मित्र से पूछा कि अगर फूफा लोग गलत थे, ऐसी हालत में आप खुद ही हस्‍तक्षेप कर मामला निपटा सकते थे। कम से कम अनुष्‍ठान तो सफलतापूर्वक निपट जाता !
मित्र का जवाब था:- पता ही नहीं चल पा रहा था कि उनके व्यवहार का कारण क्या था ? गुस्‍सा या चिढ़ ? अगर कारण चिढ़ थी, तो उसको दूर करने की कोशिश में ज्‍यादा ही झुलस जाते हाथ। क्‍योंकि चिढ़ न ही अचानक पैदा होती है, और न ही एकदम खत्‍म हो ही पाती है। कारण यह कि चिढ़ एक-के-ऊपर-एक चढ़ाये गये रद्दा की तरह चढ़ता है। इसके विकास में कई स्‍तर यानी लेयर बन चुकी होती हैं। चिढ़ को दूर करने का समाधान एकदम निपटाया जा सकता है। और अगर ऐसी कोशिश की जाए, तो चिढ़ की आग में तेल डालने जैसे नतीजे निकलते हैं। जबकि, गुस्‍सा का विषय एक ही होता है। गुस्‍सा तो दूर करने के लिए आप सीधे माफी मांग करके उसको खत्‍म कर सकते हैं, या फिर अपना कान पकड़ कर माफी मांग सकते हैं। ऐसे में मामला रफा-दफा हो जाता है। लेकिन ऐसी कोशिश तो तब की जाए, जब यह तो पता चल पाये कि असल कारण चिढ़ है या फिर गुस्‍सा।
खास तौर पर तब, जब आपके सामने एक अजब सा धर्म-संकट हो गया हो, कि आपको पहले क्‍या करना है। अनुष्‍ठान-समारोह को निपटाना, या फिर यह विश्‍लेषण करने बैठ जाना, कि मामला चिढ़ का है या गुस्‍सा का।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा– सात )

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