: संकट में बेहाल युवक की रंगत से ही पहचान जाते थे शचींद्र : राघवेंद्र सिंह जब गुस्सा आता, तो वे अपने साथी के सारे कपड़े धोकर सुखा डालते : जौनपुर के पिलकिछा के रहने वाले शचींद्र नाथ उपाध्याय ने इलाहाबाद में पूरा जीवन एकाकी बिताया : कुछ की हरकतें, जरूरतें, लापरवाहियां, तो भूल-चूक से हर महीने मामला गड़बड़ : ऐसा लसोढा-पन ही तो जीवन देता है :
कुमार सौवीर
लखनऊ : तनिक सोचिये कि हाईकोर्ट का एक जज सरकारी न्यायिक गेस्ट हाउस में हो और किसी चीज का भुगतान करने की कोशिश कर रहा हो। अचानक वहां मौजूद एक बाबू बोल पड़े:- छोड़ो यार। कभी तुमने अपनी जेब से एक धेला भर खर्चा किया है कभी ? कि आज ही सारी शेखी बघार रहे हो ! इतना ही नहीं, इतना सुनते हुए उस जज ने अपनी जेब से निकला पर्स हंसते हुए वापस अपनी जेब के हवाले कर दिया। जाहिर है कि उसके बाद वह सारा भुगतान उस बाबू ने ही किया।
सामान्य तौर पर तो यह बात बहुत गम्भीर दीखती है। लेकिन उसके साथ जो लास्य, आत्मीयता, समर्पण और प्रेम की हिलोरें उछाल रही हैं, उसे वह बाबू और जज ही समझ पा रहे थे। वजह यह कि यह दोनों ही आत्मीयता के उस सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुके थे, जहां भौतिक सुविधा, दिखावा और हैसियत का कोई अर्थ ही नहीं रह पाता था। उसमें एक छोटे भाई जैसा व्यक्ति था, जबकि दूसरा व्यक्ति एक अभिभावक की भूमिका में। छोटे भाई को निष्पाप में व्यवहार करने का अधिकार था, जबकि दूसरे को दूसरे के अभिभावकत्व को शिरोधार्य करने का माद्दा।
यह मामला है जौनपुर के गोमती नदी के किनारे बसे खुटहन के पिलकिछा इलाके का है। गांव थोड़ा ऊंचे टीले जैसे माहौल में है, जबकि गोमती नदी की लहरों की आवाज ऊपर उछलती सी सुनाई दिखायी पड़ती है। दरअसल, इस पिलकिछा में कोई 18 बरस पहले मेरा एक रिपोर्टर हुआ करता था। नाम था अरविंद उपाध्याय। उसके करीबी बाबा थे शचींद्र नाथ उपाध्याय। शचींद्र फैजाबाद में पढ़ रहे थे, कि अचानक उनके एक साथी ने उन्हें जल निगम में एक नौकरी के लिए प्रेरित किया। नतीजा, जलनिगम में एक एकाउंटेट बन गये इलाहाबाद में शचींद्र। शुरू से ही वे अपने परिवार से दूर ही रहते थे। हां, छुट्टी-त्योहार में पिलकिछा जाना उनका धर्म था। चूंकि उपाध्याय जी बिलकुल अनोखे चेसिस के मालिक थे, इसलिए उनका मनोविज्ञान भी अलग था। उनको समझ कर जल निगम वालों ने उनकी पोस्टिंग ही ऐसी कर रखी थी, जहां उन्हें किसी ऊपरी आमदनी का कोई लेनादेना ही न था। केवल काम से काम। प्रयाग रेलवे स्टेशन के पास 40 बटे एक नम्बर के एक नम्बर मकान में रहते थे। दरअसल, यह मकान डेलीगेसी के आधार पर था, जिसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कई छात्र भी रहते थे।
हालांकि आज शचींद्र 72 बरस के हो चुके हैं और अपने मित्र के अनुरोध पर इलाहाबाद के ही मीरापुर में दो कमरों में स्थाई रूप से बस गये हैं। लेकिन यह किस्सा बहुत पुराना है। उस वक्त कहने को तो सभी छात्र के पास महीने का खर्चा आ ही जाता था, लेकिन कुछ की हरकतें, कुछ की जरूरतें, कुछ की लापरवाहियां, तो किसी की भूल-चूक ने मामला गड़बड़ ही हो जाता था। अक्सर दिक्कत तो उनके भोजन का हो जाता। लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत तब होती, जब किसी फार्म को जमा करने में छात्र के पास रकम भी नहीं बचती थी। आर्थिक रूप से सभी नंग-धड़ंग। कोई किसी से मदद मांगे भी तो कैसे और किससे। सब के सब एक से बड़े लण्ठ। एक तो संकट, उस पर बेफिक्री।
ऐसे में किसी देवदूत की तरह दिखायी पड़ जाते थे शचींद्र नाथ उपाध्याय। अपना कपड़ा खुद धोना, कमरा और बर्तन खुद साफ करना और भोजन भी खुद ही बनाना। लेकिन संकट में बेहाल दिखते हुए युवक की रंगत से ही पहचान जाते थे शचींद्र। प्रेम से उनको बुला कर भोजन कराना उनका अक्सर का धंधा बन गया। इतना ही नहीं, शचींद्र को इस बारे में पता चल जाता था कि किस ने फार्म भरा या नहीं। नहीं भरा, तो यह उस छात्र की जिम्मेदारी तो कम होती थी, लेकिन शचींद्र नाथ उपाध्याय की सबसे पहली। वे टोक-टोक कर फार्म भरवाते और कमती पड़ने पर भुगतान भी खुद ही कराते थे। व्यवहार ऐसा कि उन सारे लोगों का ठेका शचींद्र ने ही ले रखा है, जबकि बाकी छात्र अपनी मस्ती में दुंधवाते रहते थे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि उन्हें अपनी पीड़ा का अहसास नहीं था, लेकिन सच यही था कि शचींद्र के होते हुए वे पूरी तरह किसी जिम्मेदार अभिभाहक की मौजूद महसूस खुद को पूरी तरह संतुष्ट महसूस करते थे। मस्ती, मानो जैसे शिशुवत। कई छात्रों को तो किसी कक्षा या सरकारी नौकरी तो केवल शचींद्र के प्रयासों से ही मिल पाया। जो समय से फार्म न कर पाता, या फीस जमा नहीं कर पाता, उसके पास दौड़-दौड़ कर उसका काम कराते। जाहिर है कि उनका पूरा वेतन इसी थैंकलेस धंधे में खर्च हो जाता था।
शचींद्र के ऐसे ही लोगों में से एक थे रणविजय सिंह, जो शचींद्र की कोशिशों में वकालत कर पाये, लेकिन बाद में सीधे इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज हो गये। शचींद्र से उनका रिश्ता अभिभावक की तरह था। एक दिन लखनऊ जाने के पहले रणविजय सिंह शचींद्र नाथ उपाध्याय के पास पहुंचे कि भाईसाहब, चलिए आपको साथ लखनऊ ले घुमा लाऊं।
क्यों मुझे अर्दली बना कर ले चलोगे ?
अरे नहीं भाई साहब। आपके साथ आपके सम्मान में चलूंगा।
चल पड़े दोनों लखनऊ। कार सरकारी थी। पारिवारिक न्यायालय के गेस्ट हाउस में डेरा डाला गया। इसी बीच वेटर से कोई सामान का भुगतान होने लगा तो रणविजय सिंह ने अपनी जेब से पर्स निकाला। उसके बाद का किस्सा तो आप सुन ही चुके हैं।
लेकिन बस्ती वाले राघवेंद्र सिंह तो गजब व्यक्ति निकले। सन-85 से सन-89 तक वे इलाहाबाद में एक कमरे में साथ रहे। साथ में थे आरडी शाही। शाही जी बताते हैं कि वे तो मस्त-मौला था, जबकि राघवेंद्र सिंह बेहद गम्भीर। घर की सफाई, कपड़ा, भोजन वगैरह वे खुद ही करते थे। लेकिन अक्सर दिखावा के लिए आरडी शाही उनकी मदद करने की कोशिश करते, तो राघवेंद्र सिंह उन्हें तत्काल टोक देते। नौटंकी मत करो, अपना काम करो। खाना बन जाए, तो खा लेना, और बस इतना ही कृपा कर लिया करो। ऐसा नहीं कि राघवेंद्र सिंह को आरडी शाही पर कभी गुस्सा नहीं आता था। लेकिन जब भी गुस्सा आता था, आरडी शाही के सारे कपड़े धोकर सुखा डालते थे राघवेंद्र सिंह। आजकल वे बस्ती के अदालत में प्रैक्टिस कर रहे हैं, लेकिन शाही जी के अनुसार राघवेंद्र सिंह के व्यक्तित्व पर तनिक भी फर्क नहीं पड़ा है। एक और शख्सियत हुआ करती थीं अयोध्या में योगेश कुमार श्रीवास्तव के तौर पर। आरडी शाही के साथ ही वे भी पढ़ते थे। लेकिन योगेश ट्यूशन भी पढ़ाते थे। इसलिए कि उन्हें ज्यादा धन की आवश्यकता है, बल्कि इसलिए कि कभी शाही को कोई दिक्कत न हो पाये। एक बार तीन हजार रुपया उन्होंने ले लिया। जब वापस देने वे अयोध्या गये तो पता चला कि योगेश कहीं बाहर चले गये हैं, लेकिन पता चलने पर वे नाराज हो गये। शाही जी कहते हैं कि उन्होंने धमकी दी कि अगर यह रकम नहीं कुबूल की, तो वे उनके खेतों में मजदूरी करेंगे। इसके बाद ही उनकी देनदारी पूरी हो पायी।
( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्न समूहों के प्रतिनिधि-व्यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा- आठ )