30 साल पहले आज के ही दिन अनंतयात्रा पर गया था न्याय

बिटिया खबर

: चार दशक बाद ठीक वही नजारा। सर्वोच्च न्यायालय की शुचिता पर जज साहबान रहे मी लार्ड भी क्या नहीं बोल चुके? : प्रशांत भूषण के मामले में बहुत कुछ नंगा हो चुका :

वीरेंद्र सेंगर

नोएडा : आज सात सितंबर है। उम्र के 65साल पूरे कर लिए हैं।जन्मदिन के अवसर पर आज कुछ मन की बात की जाए! उस मन की बात नहीं ,जो मुन्नी बदनाम हो चला है। मैं तो कोई साहेब भी नहीं हूं।उनका प्यादा जैसा भी नहीं हूं। इसकी खुशी भी है।एकदम आमजन होना कोई कमतर तो नहीं होता ?

लेखन. पत्रकारिता के चार दशक हो गये।इस यात्रा की तमाम खट्टी. मीठी यादें हैं।इस यात्रा में कई ऐसे मंजर आये ,जब लगा कि क्यों पत्रकारिता को कैरियर बना लिया?लेकिन जब ठंडे दिमाग से यह सवाल अपने से किया?तो विकल्प का ठीक ठाक उत्तर ही नहीं मिला ।यही कि पत्रकार नहीं बनता ,तो और किसमें इतना संतोष और जुनून मिलता? शुरुआती दौर में एक बार वकील बनने का मन हुआ था।कानपुर के डीएवी कालेज से ला का फार्म भी भर दिया था।परीक्षा का प्रवेश पत्र भी ले लिया था।लेकिन परीक्षा में बैठा ही नहीं।

. . इस फैसले के कुछ महीने पहले ही एक मित्र के साथ एक नामी अपर जिला सत्र न्यायाधीश से मुलाकात उनके घर हुई थी।उस दौर में जज साहब की ख्याति खांटी ईमानदार और सख्त जज की थी।जुगाड़ पंथी उस्ताद वकील अपना केस उनकी अदालत में लगवाना पसंद नहीं करते थे।वे एकदम सहज थे।साहबी रुतबे से उन्हें एकदम चिढ़ थी। उनकी यह सहजता उनकी पत्नी को भी रास नहीं आती थी।क्योंकि जज साहब आफिस की कार से बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे।उनके बच्चे साइकिल रिक्शा से जाते थे।निजी कार थी नहीं।पत्नी पैसे वाले घर की थीं।उनके पिता एक बड़ी कंपनी के जीएम थे।न्यायिक सेवा में आने के बाद उनकी शादी हुई थी।

जज साहब के पिताजी!एक खांटी गांधीवादी स्कूल टीचर थे।एक तरह से घूंटी में ही उन्हें खांटी ईमानदार रहने का डोज मिला था।आम आदमी को सहज इंसाफ देने और दिलाने कि सपना लेकर न्यायिक सेवा में आये थे।जीनियस थे।वे हमेशा टापर रहे। उनसे मुलाकातों का सिलसिला तेज हो गया था।लगभग हर संडे को दो तीन घंटे विमर्श होने लगा था। इस बीच पत्रकारिता और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हो गया था।वकील बनना था।सो कानपुर कचेहरी के चक्कर भी लगा आता।बड़े भाई यहीं वकालत करते थे।लेकिन उनके पास कम जाता था।कचेहरी में चार दशक पहले भी बकरमंडी सा हाल था। यहीं दूरदराज से आए नितांत गरीब मुवक्किलों की हृदय विदारक बेबसी देखी।कसाई नुमा वकीलों के छूरीनुमा दांव देखे।जज साहबानों से महज कुछ फुट की दूरी पर बैठे उनके अहलकारों की सौदेबाजी देखी।

कुछ महीने तक लगातार ये परिदृश्य देखता रहा।।इन पर ही जज साहब से बहस करता था।यह सवाल भी करता था कि आप खुद ईमानदार हैं लेकिन आपकी अदालत में स्टाफ तारीख देने के पैसे खुलकर लेता है।वे कहते थेकि वे सब जानते हैं लेकिन वेबस हैं।गर्मी के दिन थे शाम को करीब आठ बज रहे थे।जज साहब ने सरकारी गाड़ी बुलाई।मुझे भी बैठा लिया।मैंने पूछा कहां चल रहे हैं?वे कुछ नहीं बोले।पांच मिनट में ही हम कचेहरी पंहुच गये।लाइट नहीं थी।जज साहब का बाबू छह सात लोंगों के साथ काम कर रहा था।सब कच्छा बनियान में थे।तीन पेट्रोमैक्स भी जल रहे थे।सभी पसीने में तरबदर थे।जज साहब ने लौटते वक्त कहा, अब आपको उत्तर मिल गया होगा? दरअसल,सालों से स्टाफ कम है।हम लोग पेशकार से कहते हैं इस काम का निस्तारण दो दिन में चाहिए तो वह बेरोजगार पढ़े लिखों को हायर कर लेता है।इनको अपनी जेब से भुगतान करता है।ऐसे में पेशकार को कैसे वसूली से रोक सकते हैं?तमाम पेशकार ही जजों के घर की शापिंग भी करवाते हैं।ये बीमारी की दूसरी स्टेज हैं।मेरी श्रीमती नाराज रहती हैं कि मैं तनख्वाह से ही क्यों काम चलता हूं?

जज साहब बताते थे ,महज ईमानदार रहने पर उन्हें घर से लेकर बाहर तक तमाम तानें सुनने पड़ते हैं।कुछ वकीलों ने तो उन्हें सनकी जज भी करार दिया था।महज दो साल में हत्याओं के बीस मामलों मेंफांसी की सजा सुना दी थी।यह एक रिकॉर्ड था। कचेहरी की मछली बाजार और जज साहब के अनुभवों के बाद मैंनें वकील बनने का इरादा छोड़ा तो ,परीक्षा में बैठा ही नहीं।जज साहब ने भी कहा था,वीरेंद्र! काला कोट तुम्हें फिट नहीं रहेगा।हमारी पूरी न्यायिक व्यवस्था सड़ गयी है।इसमें किसी गरीब को अगर न्याय मिल जाता है,तो उसे महज संयोग समझा जाए।अभी जो सर्वोच्च न्यालय में शुचिता दिख रही है, वो भी कब तक बची रहेगी ?क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था में सड़ांध तेज है।इस सक्रंमण से कोई संस्था अछूती नहीं रह सकती।

चार दशक बाद ठीक वही नजारा है।सर्वोच्च न्यायालय की शुचिता पर जज साहबान रहे मी लार्ड भी क्या नहीं बोल चुके?चर्चित वकील प्रशांत भूषण के मामले में बहुत कुछ नंगा हो चुका है।इस दौर में मुझे मित्र जज साहब बहुत याद आ रहे हैं।आज वो यह देखने के लिए जीवित नहीं है कि उनकी भविष्य वाणी कैसे बेशर्मी से फल फल रही है?जज साहब जिला सत्र न्यायाधीश बने थे।उन्होंने राज्य के एक दबंग मंत्री जी के दो भाइयों कोआजीवन कारावास की सजा सुना दी थी।फिर वकीलों के काकश ने मिलकर उन्हें मानसिक रोगी करार करा दिया।

दुर्भाग्य से खंटीपन के चक्कर में उनका घर टूट गया।भाभीजी ने तलाक ले लिया था।वकील तंज करते थे।उन्हें अवकाश लेना पड़ा था।लखनऊ मिलने गया था।वे बेईमान व्यस्था से टूट गये थे।बोले थे,मैं तो जल्दी विदा हो जाऊंगा।हो सके तो सब मिलकर इस लोकतंत्र को बचा लेना!

लगा यही था ,जीवन से हारे एक संवेदनशील जज का यह फौरी आत्मप्रलाप भर है।सात सितंबर 1990 को वे अनंतयात्रा की तरफ निकल गये। तब से मैं खुशी खुशी अपना जन्म दिन नहीं मनाता।जज मित्र का नाम अपरिहार्य कारणों से नहीं दे रहा हूं।न्यायिक व्यवस्था में जिस तरह का भूचाल इन दिनों है,ऐसे में जज साहब आज आप बहुत याद आ रहे हैं।आपकी की पावन स्मृतियों को सैल्यूट मेरे दोस्त!

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