: आप ठहाके लगाते रहियेगा योगी देवनाथ जी। मैं बस पहुंच रहा हूं : मैं ही अनावृत्त औघड़, साक्षात नंगा अवधूत। मुझ में जो कुछ भी है, वह सब का सब नंगा : प्राणदायिनी गोमती-जल से ही आसपास के निवासी दाल चुरवाते हैं : जौनपुर एक बेमिसाल और अजीमुश्शान शहर है :
कुमार सौवीर
लखनऊ : चंद षडयंत्रकारियों को छोड़ दीजिए, तो सच बात यही है कि मैं जौनपुर का कभी भी ऋण नहीं चुका सकता।
यह शहर छोड़े हुए अब 13 बरस पूरे हो चुके हैं, लेकिन आज भी यहां से तीन-चार फोन तो आ ही जाते हैं मेरे पास। बहुत छोटा सा वक्त ही मैंने यहां में बिताया, लेकिन जितनी आत्मीयता, प्रेम, स्नेह, लगाव, समर्पण, त्याग और आस्था मैंने यहां हासिल की, वह नाकाबिल-ए-बयान है। किसी दैवीय उपहार की तरह।
पहला शख्स तो औघड़ों का गुरू काल-बाबा था, जिसने अपनी नंगी आदमीयता का प्रदर्शन कर मुझे वाकई नंगा-अवधूत में तब्दील कर दिया। जीवन और मरघट को अलग-अलग और परस्पर अस्पृश्य तत्व माने जाने वाले समाज के अंध-विश्वास को एक ही झटके में काल बाबा ने मेरे दिल-दिमाग से हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर दिया। फिर क्या था, जीवन की वह लाजवाब और अनिर्वचनीय प्रेम की धारा मेरी धमनियों में धड़कने लगी, वह किसी महान गायक तानसेन तक की स्वर-लहरियों से उछल कर कोसों-योजनों आगे निकल गयी। जीवन का नृत्य व गीत मुझ में झूम-झूम कर बरसने-टपकने लगा। दो बरस पहले काल-बाबा ने अपनी देह तो त्याग दी, लेकिन मानो मुझ में ही उनका पुनर्जन्म हो गया। अब मैं ही औघड़ हूं। साक्षात नंगा अवधूत। अनावृत्त। मुझ में जो कुछ भी है, वह नंगा है, साक्षात है। कुछ भी छिपा नहीं रह चुका है अब।
श्यामसूरत द्विवेदी, आरपी सिंह जैसों का आशीर्वाद और सानिध्य मिला। बाकी लोगों में प्रख्यात शिक्षाविद और टीडी कालेज के पूर्व प्राचार्य प्रो अरूण कुमार सिंह और भूगोल के पूर्व विभागाध्यक्ष आरएल सिंह की सरलता अस्सीम है। हर प्रश्न-जिज्ञासा का जवाब प्रो एके सिंह ने दिया, जबकि एक पिता की भूमिका में आरएल सिंह जी की भूमिका शब्दों से परे रही। इसी कालेज में मुझे पिछले जन्म के खोए हुए अप्रतिम भाई डॉ पीएल टामटा मिले। प्रो धरणीधर दुबे का सानिध्य तो कभी नहीं मिला, लेकिन उनकी कृपाा मुझ पर हमेशा रही। पीसी विश्वकर्मा का दर्शन यहीं हुआ। हालांकि यहां के डॉक्टरों ने एक वक्त में मुझे बहुत बेइज्जत किया, लेकिन वह सिर्फ एक षडयंत्रकारी शख्स का कमीनापन ही था। आज डॉक्टर मेरे हैं इष्ट-देव। इनमें
रामदेव की तरह अपनी टपाटप आंखों का दिव्य-दर्शन कराने वाले विद्यासागर सोनकर मुझे यहीं मिले, वहीं संन्यास से राजनीति की सड़ांध फैलाते चिन्मयानंद भी यहीं मिले। कैसे भूला जा सकता है जिला उद्योग-व्यापार संघ के प्रमुख इंद्र भान सिंह इंदू और कलेक्ट्रेट बार एसोसियेशन के तब के अध्यक्ष शचींद्रनाथ त्रिपाठी को जिन्होंने मेरे खिलाफ कमीनों द्वारा बुनी हुई हरकतों का जवाब लिखित दिया, वह भी तब जब मुझे यहां से निलम्बित करके हिन्दुस्तान दैनिक के मालिकों ने वाराणसी भेज दिया था। दीवानी बार संघ के महासचिव कामरेड जेपी लाजवाब हैं। वकालत के काले चोंगे में खिलखिलाती शख्सियत। पूर्व विधायक सुरेंद्र सिंह का बाहरी चेहरा नारियल सा है, लेकिन भीतर निर्मल मक्खन।
पूर्वांचल ही नहीं, पूरे यूपी और आसपास में भी है कोई ऐसा कोई समाजसेवी, जो जेब्रा संगठन वाले संजय सेठ का मुकाबला कर सके ? कांग्रेस के रगड़-घिस्सू रट्टू-तोता चंचल-भूजी, उनके महा-घनघोर बियर-से समर्थक श्वेत-केशी राजेश सिंह और व्यवसाय में निर्मल हृदय की धड़कन आत्मसात करनी हो, तो जेपी होटल वाले जेपी सिंह बेमिसाल हैं। पत्रकारिता में राममूर्ति यादव में मैंने हमेशा अपना अनुज ही देखा-महसूस किया। एक दीवाना-शातिर खुर्शीद अनवर खान आज भी जहां मिल जाए, मैं उसे सरेआम पीट कर अपना जीवन धन्य करना चाहता हूं। नीरज सिंह बंटी और चंद्रभान यादव को हमेशा भीतर सुना है मैंने। शाइस्तगी का सबक मिर्जा दावर बेग ने सिखाया और शायरी की समझ ही नहीं, गजब मित्रता भी मुझे अता फरमायी शायद अहमद निसार ने। जबकि चकड़-लोमड़ी डॉ ब्रजेश यदुवंशी का अंदाज-जीवन किसी को भी भावासिक्त कर सकता है। जिला अस्पताल के गेट पर मेडिकल स्टोर वाले विनोद सोनकर और उसके भाइयों ने मुझे बेहिसाब प्यार दिया। दीदी हमीदा बानो से मैं यहीं मिला, और तत्क्षण उनके चरणों में जा गिरा। दुर्धर्ष जिजीविषा वाली डॉ अंजू सिंह, साहसी सीमा सिंह और शिक्षाविद विमला सिंह के अलावा चार अन्य महिलाओं की मित्रता भी मुझे यहीं मिली, जो वाकई अप्रतिम और दैवीय उपहार की तरह है। निष्पाप और बेधड़क। नाम बताने में कोई दिक्कत नहीं, लेकिन यहां के अधिकांश लोगों को मूली और मक्का पर नहीं, अपनी मक्कारी पर ज्यादा अगाध आस्था और विश्वास होता है। उनके रक्त में रच-बस चुकी है मक्कारी। इसलिए उनका नाम नहीं बताऊंगा।
लेकिन यह सारी नामावली लिखने का मतलब यह नहीं कि कहानी यहीं तक सिमट गयी। आज भी सौ-पचास लोग मौजूद हैं, जिनसे जौनपुर की पहचान है। मसलन, आनंद स्टोर वाले तिवारी जी, मेडिकल स्टोर वाले मिथिलेश और बॉबी वगैरह-वगैरह। गोमती नदी यहां की प्राण है, जिसके पानी से ही आसपास के निवासी आज भी अपनी दाल चुरवाते हैं। भारत में यह शायद इकलौता शहर है, जहां नदी पार करने के लिए चढ़ाई नहीं पड़ती।
एक शख्स और है यहां। जो है तो गुरू, लेकिन खुद को गुरू कहलाने में उसे उज्र है, लेकिन परम्पराएं भी तो बहुत मजबूत जड़ें होती हैं। नाम है योगी देवनाथ, बारीनाथ मठ के मठाधीश। कद करीब सवा छह फीट और भंगिमा स्वामी विवेकानंद सरीखी। संन्यास में जीवन्तता का दिग-दर्शन करना हो, तो इसी मठ पर पधारिये। गुरूपूर्णिमा के दिन उनका चरण-पूजन होता है। दक्षिणा भी उन्हें खूब मिलती है। मैंने पूछा:- आप के पास तो वाकई ढेरों चेले हैं।
योगी जी बोले:- न, न। वे चेले नहीं। और मैं गुरू भी नहीं। वे चेले शक्कर हैं, जो शिष्यत्व में गुरू बन चुके हैं। बाकायदा गुरू-घंटाल।
अभी रात साढ़े आठ बजे ही उनका फोन आ गया। ठहाका लगाती उनकी आवाज खनखना रही थी। बातचीत में उन्होंने मेरी बेटी साशा के विवाह-समारोह में न आ पाने पर दुख-कष्ट व्यक्त किया। लेकिन वायदा कि 13 अक्टूबर को बकुल की शादी में वे जरूर आयेंगे। साशा-विवाह में न आने की जो वजह उन्होंने बतायी, उससे मैं दंग रह गया। वे बोले कि उनकी डायलिसिस चल रही है आजकल। दोनों गुर्दे खराब हो गये थे।
योगी देवनाथ नाथ सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं, जहां के संन्यासियों को कनफड़ा साधु भी पुकारा जाता है। नाथद्वारा पीठ, गोरक्षनाथ पीठ, तुलसीपुर पीठ के अलावा देश-विदेश में इसकी पीठें मौजूद हैं। योगी जी ने अपने गुरू-भाई योगी राकेश जी से भी बातचीत करायी। वे भी मेरे बेहद आत्मीय और वरिष्ठ सम्बन्धी हैं। वे बाबा मस्तराम मठ के प्रमुख हैं, जिनके आश्रम बद्रीनाथ, त्रषिकेश, करनाल, लखनऊ, दिल्ली समेत सैकड़ों स्थानों पर हैं। योगी देवनाथ जी का हालचाल लेने के लिए योगी राकेश जी आज ही जौनपुर पहुंचे।
डायलिसिस की खबर सुन कर मैं सन्नाटे में आ गया। कुछ समझ में ही नहीं आया। यकीन ही नहीं आया कि बात-बात पर ठहाके लगा कर ज्ञान की गंगा प्रवाहित करने वाला यह योगी भी रूग्ण हो सकता है।
फैसला कर लिया मैंने। आनन-फानन मैंने बैग में दो-चार कपड़े ठूंसे, और बस-अड्डे की ओर रवाना हो गया। लेकिन वहां पहुंचते ही आखिरी बस निकल चुकी थी। रात भर सोचता रहा उनके और जौनपुर के बारे में। एक क्षण के लिए भी नींद नहीं आयी। लेकिन कोई बात नहीं, सुबह की आठ बजे वाली वोल्वो बस पकड़ लूंगा। उम्मीद है कि साढ़े 11 या फिर 12 बजे तक उनके पास पहुंच जाउंगा।
पुष्पेशु चंपा: , नगरेशु कांची: ।
उपमा कुमार सौवीरश्य: , रमणीश रम्भा: ।।
मुग्ध है मन आपकी शैली से….!!
सादर प्रणाम