मुक्ति-मार्ग के ज्ञानी अष्‍टावक्र

मेरा कोना

अष्‍टावक्र बोले: मोक्ष की लालसा में हुआ ध्‍यान-योग भी व्‍यर्थ
विकलांग और कुरूप अष्‍टावक्र ने बदल दी ज्ञान की परिभाषा
सुख-दुख, आशा-निराशा, जीवन-मृत्‍यु को समान भाव से देखो
मोक्ष नहीं, बल्कि मुक्ति का मार्ग ही एकमात्र संमार्ग
गेरूए वस्‍त्र और संन्‍यास के बजाय आत्‍मा की शुद्धि जरूरी

राजा ने पहला पैर घोडे के एक पांवडे पर रखा और अगला पैर दूसरे पांवडे में रखने ही जा रहा था कि एक निर्देश ने उसे आत्‍मज्ञानी बना दिया। निर्देश था कि अहंकार को छोडकर मन को मुट्ठी में पकडो। अब सवाल उठा कि आखिर यह दोनों काम कैसे हों। तत्‍काल जवाब मिला और राजा को आत्‍मबोध हो गया। अब तक राजा यह निर्देश देने वाले को अपने अहंकार के चलते कारागार में डालने के अपने सपने को पूरा होते देखने की कामना से प्रफुल्लित था, अचानक ही उस विद्वान की शरण में आ गया और देखते ही देखते वह आत्‍मज्ञान कराने वाले गुरू के चरणों में हाथ जोडे खडा हो गया। अब यह गुरू अपने इस पहले शिष्‍य को जीवन-मीमांसा से परिचित करा रहा था जिसने केवल अपने अहंकार के चलते हजारों विद्वानों को या तो प्रताडित किया या उनकी जल-समाधि करा दी थी। कारण केवल यह कि वे सभी विद्वान उस अहंकारी राजा की शर्तों पर आयोजित शास्‍त्रार्थ में पराजित हो गये थे।
भारतीय इतिहास और पौराणिक गाथाएं ऐसी हजारों घटनाओं या किंवदंतियों से भरी पडी हैं। लेकिन यह घटना इसलिए महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि यह राजा कोई और नहीं, बल्कि मिथिला के विख्‍यात ज्ञानी माने जाने वाले अधेड उम्र के राजा जनक और मात्र 12 साल के अष्‍टावक्र के बीच हुए संवाद को लेकर है। दरअसल अपने अहंकार में चूर राजा जनक का मानना था कि अत्‍यंत अल्‍पसमय में भी आत्‍मज्ञान प्राप्‍त किया जा सकता है। इसलिए उनकी शर्त थी कि घोडे के एक पांवडे पर पहला पैर रखने से लेकर दूसरे पांवडे पर पांव जमाने तक के समयकाल में जो व्‍यक्ति उन्‍हें आत्‍मज्ञान करा देगा, उसे वे मालामाल कर देंगे, वरना उसे कारागार में कठोर दंड का भागी बनना होगा।
तो आइये, देखा जाए कि यह किस्‍सा शुरू कैसे हुआ। प्रख्‍यात ऋषि उद्दालक की बेटी सुजाता का विवाह कहोड के साथ हुआ जो अपने समय के वरिष्‍ठ विद्वान थे। उनके आश्रम में केवल वेद-वेदांग के अध्‍ययन-अध्‍यापन का ही कार्य होता था। इसी बीच सुजाता के गर्भ में पल रहे शिशु ने भी पिता की भांति न केवल मंत्र आदि सीख लिये, बल्कि उनका उच्‍चारण भी करने लगा। इतना ही नहीं, एक दिन तो उसने गर्भ से ही अपने पिता को गलत उच्‍चारण के लिए टोक दिया। कहा जाता है कि कहोड को इस पर इतना गुस्‍सा आया कि उन्‍होंने उसे अपना शिशु मानने से इनकार करते हुए सुजाता के पेट पर एक घूंसा मारा। गर्भवती सुजाता जमीन पर गिरकर दर्द से छटपटा उठी जबकि गर्भस्‍थ शिशु शांत हो गया। पूरे आश्रम में हंगामा मच गया। चिकित्‍सकों के प्रयास से शिशु तो जिन्‍दा बचा लिया गया, मगर जन्‍म के बाद पता चला कि उस चोट से उसका शरीर काला और आठ स्‍थानों से विकलांग हो गया। अपनी इसी शारीरिक विकृति के चलते लोगों में हास्‍य का पात्र बने इस शिशु का नाम ही अष्‍टावक्र पड गया। हालांकि बाद में अपनी गलती पर क्षुब्‍ध पिता कहोड आत्‍मकेंद्रित हो गये और एक दिन राजा जनक द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता में शामिल होने निकल पडे।
जनक के अतिमहत्‍वाकांक्षी बंदी नामक महा-अमात्‍य की सलाह पर प्रतियोगिता की शर्त रखी गयी थी या तो जीत कर मालामाल हो जाओ या फिर पूरा जीवन कारागार में सडो। कहोड ने जनक की सभा में सभी विद्वानों को परास्‍त किया लेकिन अंत में वे बंदी से परास्‍त होकर जेल भेज दिये गये। उधर यह समाचार मिलने पर उद्दालक सुजाता को अष्‍टावक्र के साथ अपने आश्रम ले आये। उम्र के 12वें वर्ष में अष्‍टावक्र ने तमाम अपमान और उलाहनों के बावजूद अपनी पढाई आश्‍चर्यजनक रूप से पूरी की ही थी कि एक दिन उन्‍हें अपने पिता के कारागार में होने का पता चला। वे अपने पिता को बचाने के लिए जनक के महाअमात्‍य को चुनौती देने निकले। जनक की पूरी सभा ही उनकी कुरूपता-विकलांगता पर ठठाकर हंस पडी। अष्‍टावक्र ने दहाडते हुए इसका कडा प्रतिवाद किया और कहा कि केवल चमडे और हड्डी से किसी की विद्वता मत आंकी जाए। उनका तर्क था कि गन्‍ने के टेढे-मेढे होने भर से ही उसकी मिठास कम नहीं होती, नदी की धारा के मुड जाने से उसका प्रवाह कम नहीं होता, फूल की पंखुडियां भी तो टेढीमेढी ही होती हैं मगर सौंदर्य और सुगंध पर इसका असर नहीं होता।
शर्मसार सभागार स्‍तब्‍ध हो गयी। लेकिन भूल का अहसास होने के बावजूद जनक ने उनकी परीक्षा ली तो अष्‍टावक्र ने उन्‍हें निरूत्‍तर कर शुरू किया अद्वैत ब्रहृम पर महाअमात्‍य से शास्‍त्रार्थ। बंदी के अद्वैत का जवाब द्वैत से देते हुए जब शास्‍त्रार्थ चौदहवें स्‍तर तक पहुंचा तो बंदी ने सिर झुका लिया। और इस तरह अष्‍टावक्र ने अपने पिता कहोड के साथ ही जेल में बंद सभी विद्वानों को पूरे सम्‍मान के साथ रिहा कराया।
लेकिन राजा जनक ने अल्‍पकाल में आत्‍मज्ञान की शर्त रख दी। अष्‍टावक्र ने जनक को न केवल उसके अहंकार से अलग किया बल्कि लोभ, मोक्ष, लालसा, प्राप्ति आदि सांसारिक विवादों से भी मुक्‍त कर दिया। उन्‍होंने बताया कि मोक्ष भी एक भ्रम है, ठीक वैसा ही जैसा खुद को कर्ता या भोक्‍ता समझना। स्‍वयं को निमित्‍त-मात्र या उपकरण समझ कर रहने का अमृतपान करो और मानो कि यह सृष्टि अपने विशिष्‍ट नियमों से ही चल रही है और केवल परमात्‍मा ही कर्ता है। संन्‍यास या गेरूए वस्‍त्र से ही कोई आत्‍मज्ञानी बन कर मोक्ष को प्राप्‍त नहीं कर सकता। अपनी आत्‍मा को पहचानो तथा धर्म-अधर्म से मुक्‍त हो जाओ और मानो कि तुम आत्‍मा हो जो तुम्‍हारे पास ही है और वह परमात्‍मा है। आत्‍मा साक्षी है और वह व्‍यापक है, पूर्ण है, एकमेव है और मुक्‍त भी। आत्‍मा ही चैतन्‍यस्‍वरूप है, क्रियारहित है, असंग है, इच्‍छारहित है और सबसे बडी बात कि वह शांत है। परमात्‍मा कोई व्‍यक्ति नहीं बल्कि सर्वव्‍यापी है, निराकार और निश्‍चल है। अहंकारी-कर्म से मुक्ति नहीं, भले ही वह पूजन-अर्चन हो, उपासना हो या व्रत-अनुष्‍ठान। क्‍योंकि उनसे लालसा है। प्रवृत्ति में राग है और निवृत्ति में द्वेष, इसलिए आत्‍मबोध ही हल है। इससे ही शांति और मुक्ति है। छोडना तो पाने की शर्त है ही नहीं। आत्‍मानंद यानी परमात्‍मा सभी फलों का रस है जिसके सामने सभी रस फीके हैं। इससे व्‍यक्ति अस्तित्‍व से अनस्तित्‍व में छलांग लगा सकता है। सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण है निष्‍काम भाव से किया गया कर्म।
कहने की जरूरत नहीं कि अष्‍टावक्र के इन तर्कों ने जनक का सारा द्वैत यानी भ्रम दूर कर उसकी धनसंपदा को भी ठुकरा दिया। बाद में यही ज्ञान अष्‍टावक्र-गीता के नाम से मशहूर हुआ। और हां, उनकी पत्‍नी का नाम सुप्रभा था।

लेखक कुमार सौवीर जाने-माने पत्रकार हैं. इन दिनों महुआ न्यूज में यूपी ब्यूरो चीफ के रूप में कार्यरत हैं. उनका यह लेख जनसंदेश टाइम्‍स में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लिया गया है.

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