जीवन के हर सुख-दुख में समाए हुए हैं विद्यापति :
शिवभक्ति की एक नयी श्रृंखला नचारी का निरूपण किया
मैथिल से असम, बंगाल, उडीसा व नेपाल-अवध तक में जैकारा
जै-जै भैरवी असुर भयावनी, पशुपति-भावनी माया अनुष्ठान गीत
मिथिला की मधुबनी पेंटिंग तक में विद्यापति के गीत हैं
अवाम तक कविता पहुंचाने के लिए अवहट्ट बोली अपनायी
बादशाह ने कहा- इतने बडे़ ज्ञानी हो तो आज इम्तिहान हो ही जाए। कवि ने चुनौती स्वीकार कर ली। बस फिर क्या था। एक संदूक में बंद करके उस कवि को कुंए में लटका दिया गया। बाहर एक नृत्यांगना अपने करतब दिखा रही थी। सवाल था कि बंद बक्से से देखो कि ऊपर क्या हो रहा है। और हैरत यह कि उस कवि के होंठों से कविता की धाराप्रवाह सरिता बह निकली। कुंए के बाहर का पूरा ब्योरा बखान कर दिया। बोल थे- माधव की कहुं संदर रूपै, कनक कदली पे सिंह चढ़ाइल, देखल नयन सरूपै। सजनि निहुरि फुकु आगि, तोहर कमल भ्रमर मोर देखल, मढन ऊठल जागि। जो तोहें भामिनि भवन जएबह, एबह कोनह बेला, जो ए संकट सौं जौ बांचत, होयत लोचन मेला।
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